﴿وَدَّ كَثِيرٌ مِّنْ أَهْلِ ٱلْكِتَـٰبِ لَوْ يَرُدُّونَكُم مِّنۢ بَعْدِ إِيمَـٰنِكُمْ كُفَّارًا حَسَدًا مِّنْ عِندِ أَنفُسِهِم مِّنۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلْحَقُّ ۖ فَٱعْفُوا۟ وَٱصْفَحُوا۟ حَتَّىٰ يَأْتِىَ ٱللَّهُ بِأَمْرِهِۦ ۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَىْءٍ قَدِيرٌ﴾
हिंदी अनुवाद:
"अहले-किताब (यहूदी और ईसाई) में से बहुत से लोग चाहते हैं कि तुम्हें तुम्हारे ईमान लाने के बाद (फिर) काफ़िर बना दें, अपने मन के हिसाब से हसद (ईर्ष्या) के कारण, इसके बाद कि उनके सामने हक़ (सच्चाई) स्पष्ट हो चुकी है। तो (ऐसे में) क्षमा कर दो और धैर्य से काम लो, यहाँ तक कि अल्लाह अपना फैसला (आदेश) ले आए। निश्चय ही अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर (सामर्थ्यवान) है।"
शब्द-दर-शब्द अर्थ (Arabic Words Meaning):
وَدَّ : चाहता है / इच्छा रखता है
كَثِيرٌ : बहुत से
مِّنْ أَهْلِ ٱلْكِتَـٰبِ : अहले-किताब में से (यहूदी व ईसाई)
لَوْ يَرُدُّونَكُم : कि यदि वे पलटा/लौटा सकें तुम्हें
مِّنۢ بَعْدِ إِيمَـٰنِكُمْ : तुम्हारे ईमान लाने के बाद
كُفَّارًا : काफ़िर (अविश्वासी) बनाकर
حَسَدًا : ईर्ष्या/डाह के कारण
مِّنْ عِندِ أَنفُسِهِم : उनके अपने मन (के तर्क) से
مِّنۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلْحَقُّ : इसके बाद कि स्पष्ट हो चुका है उनके लिए सच्चाई
فَٱعْفُوا۟ : तो तुम क्षमा कर दो (दरगुज़र कर दो)
وَٱصْفَحُوا۟ : और उपेक्षा कर दो (सहनशीलता दिखाओ)
حَتَّىٰ يَأْتِىَ ٱللَّهُ بِأَمْرِهِۦ : यहाँ तक कि ले आए अल्लाह अपना आदेश (फैसला)
إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَىْءٍ قَدِيرٌ : निश्चित रूप से अल्लाह हर चीज़ पर सामर्थ्यवान है
पूर्ण व्याख्या (Full Explanation):
यह आयत उस समय की पृष्ठभूमि में उतरी जब मदीना के नए मुसलमान समाज के साथ यहूदी समुदाय रह रहा था। पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आने और कुरआन के उतरने के बाद, सच्चाई (हक़) पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी थी। उनके अपने धर्मग्रंथों (तौरात और इंजील) में भी आखिरी पैगंबर के आने की भविष्यवाणी मौजूद थी।
इसके बावजूद, अहले-किताब (यहूदी और ईसाई) के बहुत से लोग मुसलमानों के प्रति गहरी ईर्ष्या (हसद) महसूस करने लगे। इस ईर्ष्या के कई कारण थे:
धार्मिक नेतृत्व की हानि: उन्हें डर था कि इस नए धर्म के आने से उनका धार्मिक और सामाजिक वर्चस्व खत्म हो जाएगा।
सत्य को स्वीकार न कर पाना: यह स्वीकार करना कि अंतिम पैगंबर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की संतानों में से होंगे लेकिन इस्माईल (अलैहिस्सलाम) की औलाद से होंगे, इश्माएल (अलैहिस्सलाम) की नस्ल से नहीं, उनके लिए मुश्किल था।
आंतरिक जिद: उनकी अपनी पहचान और रूढ़िवादिता।
इस ईर्ष्या के कारण, वह चाहते थे कि मुसलमान फिर से कुफ्र (अविश्वास) की स्थिति में लौट आएं। वे इसके लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते थे, जैसे संदेह पैदा करना, झूठे सवाल पूछना और मुसलमानों को बहकाने की कोशिश करना।
इस मुश्किल परिस्थिति में, अल्लाह मुसलमानों को दो महत्वपूर्ण निर्देश देता है:
फ़ज़ा कर दो (क्षमा कर दो): यानी उनकी बातों और कार्यों को अनदेखा करो, बदले की कार्रवाई न करो।
धैर्य से काम लो: उनकी शत्रुता और ईर्ष्या के आगे घबराओ नहीं और सहनशीलता दिखाओ।
लेकिन यह निर्देश एक शर्त के साथ है: "यहाँ तक कि अल्लाह अपना फैसला ले आए।" इसका मतलब यह नहीं है कि हमेशा माफ़ करते रहो। बल्कि, जब अल्लाह का आदेश (उसकी मदद, विजय, या लड़ाई की अनुमति) आ जाए, तो उसका पालन करो। आयत का अंत इस बात के साथ होता है कि अल्लाह हर चीज़ पर पूरी तरह सक्षम है, वही सही समय पर अपना फैसला सुनाएगा।
शिक्षा और सबक (Lesson and Moral):
ईर्ष्या एक घातक बीमारी है: हसद (ईर्ष्या) इंसान को अंधा कर देती है, यहाँ तक कि सच्चाई सामने होने के बाद भी वह उसे स्वीकार नहीं कर पाता।
सहनशीलता और क्षमा की अहमियत: दुश्मनी और प्रकोप के जवाब में पहला कदम सहनशीलता और क्षमा होना चाहिए। यह मुसलमान की ताकत और ईमान की पहचान है।
अल्लाह पर भरोसा (तवक्कुल): मुसलमानों को चाहिए कि वे हर स्थिति में धैर्य रखें और अंतिम फैसला अल्लाह पर छोड़ दें, क्योंकि वही हर चीज़ पर काबू रखता है।
रणनीतिक धैर्य: इस्लाम शांति और समझौते को प्राथमिकता देता है, लेकिन जब दुश्मनी सीमा पार कर जाए तो उचित जवाब देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) में प्रासंगिकता: यह आयत सीधे तौर पर मदीना के यहूदी कबीलों (बनू क़ैनुक़ा, बनू नज़ीर, बनू क़ुरैज़ा) के साथ हुए घटनाक्रम को समझाती है। शुरू में मुसलमानों को सहनशीलता का आदेश दिया गया, लेकिन जब उन्होंने विश्वासघात किया और शत्रुता की हद पार कर दी, तो अल्लाह के आदेश (अनुमति) से मुसलमानों ने उन्हें उचित जवाब दिया।
वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता: आज के दौर में यह आयत बेहद प्रासंगिक है:
वैचारिक संघर्ष: आज मुसलमानों के खिलाफ मीडिया, सोशल मीडिया और सांस्कृतिक मोर्चे पर एक सुनियोजित मुहिम चल रही है। इस्लाम और पैगंबर के खिलाफ झूठा प्रचार, इस्लामोफोबिया और मुसलमानों को उनके धर्म से भटकाने की कोशिशें इसी "हसद" (ईर्ष्या) का आधुनिक रूप हैं।
मुसलमानों के लिए रणनीति: इस आयत से आज के मुसलमानों को सीख मिलती है। पहला कदम सब्र, समझ और शांतिपूर्ण संवाद होना चाहिए। बदले की भावना से काम लेना गलत है। लेकिन साथ ही, जब धर्म और समुदाय पर सीधा हमला हो, तो अल्लाह पर भरोसा रखते हुए कानूनी और शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात रखनी और अपना बचाव करना भी जरूरी है।
अंतर्विरोध: एक ही समुदाय के भीतर भी लोग दूसरों की तरक्की और प्रशंसा देखकर ईर्ष्या करते हैं। यह आयत हर स्तर पर ईर्ष्या की बुराई से बचने की सीख देती है।
भविष्य (Future) में प्रासंगिकता: जब तक दुनिया में अलग-अलग विचारधाराएं और धर्म रहेंगे, तब तक संघर्ष और ईर्ष्या की यह भावना बनी रहेगी। यह आयत भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शन के रूप में काम करेगी। यह सिखाती है कि सच्चाई के मार्ग पर चलने वालों को हमेशा विरोध और ईर्ष्या का सामना करना पड़ेगा, लेकिन उन्हें धैर्य, बुद्धिमत्ता और अल्लाह पर पूर्ण भरोसा के साथ आगे बढ़ते रहना चाहिए।