बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
यहाँ कुरआन की आयत 2:110 की पूरी व्याख्या हिंदी में प्रस्तुत की जा रही है:
﴿وَأَقِيمُوا۟ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُوا۟ ٱلزَّكَوٰةَ ۚ وَمَا تُقَدِّمُوا۟ لِأَنفُسِكُم مِّنْ خَيْرٍ تَجِدُوهُ عِندَ ٱللَّهِ ۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ﴾
हिंदी अनुवाद:
"और नमाज़ की स्थापना करो और ज़कात दो, और (दुनिया में) जो भी भलाई तुम अपने लिए आगे भेजोगे, उसे अल्लाह के पास (क़यामत में) पाओगे। निश्चय ही अल्लाह तुम्हारे सब कर्मों को देख रहा है।"
शब्द-दर-शब्द अर्थ (Arabic Words Meaning):
وَأَقِيمُوا۟ : और स्थापित करो (पूरी शर्तों के साथ अदा करो)
ٱلصَّلَوٰةَ : नमाज़ (प्रार्थना)
وَءَاتُوا۟ : और अदा करो (दो)
ٱلزَّكَوٰةَ : ज़कात (अनिवार्य दान)
وَمَا : और जो कुछ भी
تُقَدِّمُوا۟ : तुम आगे भेजोगे
لِأَنفُسِكُم : अपने लिए (अपने भविष्य/आखिरत के लिए)
مِّنْ خَيْرٍ : भलाई में से (कोई अच्छा काम)
تَجِدُوهُ : तुम पाओगे उसे
عِندَ ٱللَّهِ : अल्लाह के पास
إِنَّ ٱللَّهَ : निश्चित रूप से अल्लाह
بِمَا تَعْمَلُونَ : उस चीज़ के साथ जो तुम करते हो
بَصِيرٌ : देखने वाला है
पूर्ण व्याख्या (Full Explanation):
यह आयत पिछली आयतों के संदर्भ में आती है, जहाँ अहले-किताब की ईर्ष्या और विरोध का ज़िक्र था। ऐसे माहौल में अल्लाह तआला मुसलमानों को उनके मुख्य कर्तव्यों की याद दिलाता है और उन्हें यह सिखाता है कि बाहरी विरोध और चुनौतियों में उलझने के बजाय, उनका ध्यान अल्लाह की इबादत और उसके आदेशों के पालन पर होना चाहिए।
आयत को तीन भागों में समझा जा सकता है:
इबादत का आदेश (وَأَقِيمُوا۟ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُوا۟ ٱلزَّكَوٰةَ): अल्लाह दो मौलिक इबादतों का आदेश देता है:
नमाज़ क़ायम करो: यह सिर्फ़ पढ़ने भर का नाम नहीं है, बल्कि "इक़ामत" यानी पूरी नियमितता, ख़ुशू-ख़ुज़ू (विनम्रता) और शर्तों के साथ उसे स्थापित करना है। नमाज़ अल्लाह के साथ बंदे के रिश्ते की नींव है। यह एक मुसलमान के दिन-रित्य का ढाँचा तैयार करती है और उसे गुनाहों और बुराइयों से रोकती है।
ज़कात अदा करो: यह समाज के साथ बंदे के रिश्ते की नींव है। ज़कात सिर्फ़ एक "दान" नहीं है, बल्कि अल्लाह द्वारा निर्धारित एक अनिवार्य वित्तीय इबादत है जो समाज से गरीबी दूर करती है, भाईचारा बढ़ाती है और माल की सफ़ाई का काम करती है।
प्रतिफल का आश्वासन (وَمَا تُقَدِّمُوا۟ لِأَنفُسِكُم مِّنْ خَيْرٍ تَجِدُوهُ عِندَ ٱللَّهِ): अल्लाह बंदों को एक बहुत ही सुंदर और प्रोत्साहित करने वाली बात बताता है। दुनिया में किया गया हर अच्छा काम, चाहे वह नमाज़-ज़कात हो या कोई और भलाई, वह असल में हम अपने ही भविष्य (आख़िरत) के लिए एक "पूँजी" के रूप में आगे भेज रहे हैं। यह पूँजी ज़रा भी बर्बाद नहीं होगी, बल्कि बढ़-चढ़ कर और पूरी की पूरी अल्लाह के पास सुरक्षित मिलेगी। यह एक व्यापारी के उस सुरक्षित बैंक की तरह है जहाँ उसकी पूँजी पूरी सुरक्षित रहती है और लाभ के साथ मिलती है।
अल्लाह की निगरानी का बोध (إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ): आयत का अंत इस महत्वपूर्ण बात के साथ होता है कि अल्लाह तुम्हारे हर काम को देख रहा है। यह बात बंदे के अंदर "इह्सान" की भावना पैदा करती है, यानी यह एहसास कि हम अल्लाह को देख रहे हैं, और भले ही नहीं देख रहे, लेकिन वह हमें देख रहा है। इस ज्ञान से इंसान के अंदर अच्छे काम करने की प्रेरणा पैदा होती है और गुप्त गुनाहों से बचने की ताकत मिलती है।
शिक्षा और सबक (Lesson and Moral):
आस्था और सामाजिक जिम्मेदारी का संतुलन: इस्लाम सिर्फ़ रूहानियत या सिर्फ़ समाजसेवा का धर्म नहीं है। नमाज़ (अल्लाह के हक़) और ज़कात (बंदों के हक़) को एक साथ जोड़कर इस्लाम ने दोनों के बीच संपूर्ण संतुलन स्थापित किया है।
आख़िरत की तैयारी: असल जीवन तो आख़िरत का है। दुनिया की ज़िंदगी एक खेती के समान है, जहाँ हम जो बोएँगे, आख़िरत में उसी की कटाई करेंगे। इसलिए हमें अपने असल "बैंक बैलेंस" (अल्लाह के पास) को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए।
निरंतर जागरूकता: अल्लाह की हाज़िर-नाज़िर होने का एहसास (इह्सान) इंसान के पूरे जीवन और चरित्र को सुधार देता है। यह एहसास ही उसे हर अच्छे काम को ईमानदारी से करने और हर बुराई से बचने की ताक़त देता है।
अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) में प्रासंगिकता: यह आदेश सभी पैग़म्बरों और उनकी उम्मतों के लिए रहा है। हज़रत इब्राहीम, मूसा, ईसा (उन पर सलाम) सभी ने अपनी उम्मत को नमाज़ और ज़कात (या उस समय की प्रचलित इबादत के रूप में) का आदेश दिया। यह आयत मुसलमानों को यह याद दिलाती है कि वह भी उसी सनातन और सार्वभौमिक धर्म के अनुयायी हैं।
वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता: आज के युग में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:
व्यस्त जीवन में नमाज़: आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में लोग नमाज़ को टालते हैं या उसकी शर्तों (ख़ुशू-ख़ुज़ू) का ध्यान नहीं रखते। यह आयत "इक़ामत-ए-सलात" (नमाज़ की स्थापना) पर ज़ोर देकर हमें उसकी पाबंदी और उसके भावनात्मक पहलू को समझने की ताकीद करती है।
आर्थिक असमानता और ज़कात: दुनिया में आर्थिक असमानता एक बहुत बड़ी समस्या है। ज़कात का सिस्टम इसका एक व्यावहारिक हल पेश करता है। अगर मुसलमान समुदाय ईमानदारी से ज़कात अदा करे, तो उनके अपने समाज में गरीबी लगभग ख़त्म की जा सकती है।
नैतिकता का संकट: "इन्नल्लाहा बिमा तअमलूना बसीर" का एहसास आज के नैतिक संकट (भ्रष्टाचार, बेईमानी) को दूर करने की सबसे बड़ी ताक़त है। अगर हर व्यक्ति को यह यक़ीन हो कि उसके हर छोटे-बड़े काम का लेखा-जोखा है, तो समाज में बहुत हद तक सुधार आ सकता है।
भविष्य (Future) में प्रासंगिकता: जब तक इंसान रहेगा, उसे आध्यात्मिकता (नमाज़) और सामाजिक न्याय (ज़कात) की आवश्यकता रहेगी। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी के लिए एक स्थायी और अमर मार्गदर्शन है। यह हमेशा यह याद दिलाती रहेगी कि इंसान का लक्ष्य अल्लाह की इबादत, समाज की सेवा और अपनी आख़िरत के लिए अच्छे कर्मों का संचय करना है, और यह कि हम हर पल एक सर्वव्यापी और सर्वज्ञानी अल्लाह की निगरानी में हैं।