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क़ुरआन 2:145 (सूरह अल-बक़रह) - पूर्ण व्याख्या

 

1. आयत का अरबी पाठ (Arabic Verse)

وَلَئِنْ أَتَيْتَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ بِكُلِّ آيَةٍ مَّا تَبِعُوا قِبْلَتَكَ ۚ وَمَا أَنتَ بِتَابِعٍ قِبْلَتَهُمْ ۚ وَمَا بَعْضُهُم بِتَابِعٍ قِبْلَةَ بَعْضٍ ۚ وَلَئِنِ اتَّبَعْتَ أَهْوَاءَهُم مِّن بَعْدِ مَا جَاءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ إِنَّكَ إِذًا لَّمِنَ الظَّالِمِينَ

2. शब्दार्थ (Word-by-Word Meaning)

  • وَلَئِنْ: और यदि (बेशक / शपथ के साथ)

  • أَتَيْتَ: आप ले आते

  • الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ: जिन लोगों को किताब दी गई थी (यहूदी व ईसाई)

  • بِكُلِّ آيَةٍ: हर एक निशानी (चमत्कार) के साथ

  • مَّا تَبِعُوا: वे कभी अनुसरण नहीं करेंगे

  • قِبْلَتَكَ: आपके किब्ले का

  • وَمَا أَنتَ: और न तो आप हैं

  • بِتَابِعٍ: अनुसरण करने वाले

  • قِبْلَتَهُمْ: उनके किब्ले का

  • وَمَا بَعْضُهُم: और न ही उनमें से कुछ लोग

  • بِتَابِعٍ: अनुसरण करने वाले हैं

  • قِبْلَةَ بَعْضٍ: दूसरों के किब्ले का

  • وَلَئِنِ: और यदि (बेशक)

  • اتَّبَعْتَ: आपने अनुसरण किया

  • أَهْوَاءَهُم: उनकी इच्छाओं (झूठी बातों) का

  • مِّن بَعْدِ: उसके बाद

  • مَا جَاءَكَ: जो आपके पास आया है

  • مِنَ الْعِلْمِ: ज्ञान (वह्य का) से

  • إِنَّكَ إِذًا: तो निश्चय ही आप उस समय

  • لَّمِنَ الظَّالِمِينَ: ज़ालिमों में से होंगे

3. आयत का पूर्ण व्याख्या (Full Explanation in Hindi)

यह आयत किब्ला परिवर्तन के विषय को समाप्त करते हुए, अहले-किताब (यहूदियों और ईसाइयों) की हठधर्मिता और अविश्वास को बेनकाब करती है। पिछली आयत में कहा गया था कि वे लोग जानते हैं कि काबा की ओर रुख करना सत्य है। इस आयत में अल्लाह उससे आगे की स्थिति स्पष्ट करता है।

पहला भाग: अहले-किताब की जिद का खुलासा (Exposing the Stubbornness of the People of the Book)
अल्लाह अपने पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से फरमाता है: "और (हे पैगंबर) यदि आप उन लोगों के पास, जिन्हें किताब दी गई थी, हर तरह की निशानी (चमत्कार) लेकर आते, तब भी वे आपके किब्ले का अनुसरण नहीं करते।"
यह एक बहुत ही मजबूत अंदाज़े-बयान है। अल्लाह कह रहा है कि मामला सबूतों का नहीं, बल्कि उनकी जिद, हठ और ईर्ष्या का है। भले ही आप उनकी मांग के मुताबिक कोई भी चमत्कार दिखा दें, लेकिन वे सत्य स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि उनका उद्देश्य सत्य की खोज नहीं, बल्कि अपनी धार्मिक बड़ाई बनाए रखना है।

दूसरा भाग: स्वतंत्र पहचान की घोषणा (Declaration of an Independent Identity)
फिर अल्लाह तीन बातों द्वारा इस उम्मत की स्वतंत्र पहचान स्थापित करता है:

  1. "और न आप उनके किब्ले के अनुयायी हैं।" – यानी अब मुसलमानों का अपना एक स्वतंत्र और अलग मार्ग है।

  2. "और न ही उनमें से कुछ लोग दूसरों के किब्ले के अनुयायी हैं।" – यह यहूदियों और ईसाइयों की आपसी फूट और असमंजस की स्थिति को दर्शाता है। यहूदी बैतुल मुक़द्दस को ही किब्ला मानते हैं, जबकि ईसाई (जैरूसलम में) विभिन्न दिशाओं में मुंह करके प्रार्थना करते हैं। उनमें आपस में भी एकता नहीं है।

तीसरा भाग: स्पष्ट चेतावनी (A Clear Warning)
आयत का सबसे शक्तिशाली हिस्सा एक गंभीर चेतावनी है: "और यदि आपने उस ज्ञान के आ जाने के बाद भी जो आपके पास आया है, उनकी इच्छाओं का अनुसरण किया, तो निश्चय ही आप उस स्थिति में ज़ालिमों में से होंगे।"
यह चेतावनी सीधे पैगंबर (सल्ल.) को दी गई है, जिसका उद्देश्य पूरी उम्मत को सिखाना है। अगर अल्लाह का ज्ञान (वह्य) आने के बाद भी कोई व्यक्ति लोगों की खुशामद या दबाव में आकर सत्य से समझौता करे, तो वह सबसे बड़ा ज़ुल्म (अन्याय) करेगा – अपने ऊपर, अपने ईमान पर और अपनी जिम्मेदारी पर।

4. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral)

  1. हठधर्मिता सत्य को स्वीकार नहीं करने देती: इस आयत से पता चलता है कि कुछ लोगों का इनकार सबूतों की कमी के कारण नहीं, बल्कि उनके अहंकार, ईर्ष्या और हठ के कारण होता है।

  2. इस्लाम एक स्वतंत्र धर्म है: मुसलमानों को किसी और के रीति-रिवाजों या मान्यताओं का अनुसरण नहीं करना है। इस्लाम एक पूर्ण और स्वतंत्र जीवन प्रणाली है।

  3. अल्लाह के ज्ञान के बाद किसी की बात नहीं: सबसे बड़ा सबक यह है कि एक बार अल्लाह का आदेश और ज्ञान (कुरआन और सुन्नत) स्पष्ट हो जाए, तो फिर दुनिया भर के लोगों की इच्छाओं और दबावों के आगे झुकना सबसे बड़ा अत्याचार (ज़ुल्म) है।

  4. आत्मसमीक्षा का संदेश: हर मोमिन को अपने जीवन में यह आत्मसमीक्षा करनी चाहिए कि कहीं वह लोगों को खुश करने या समाज के दबाव में आकर अल्लाह के आदेशों से समझौता तो नहीं कर रहा।

5. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future)

  • अतीत (Past) में प्रासंगिकता:

    • इस आयत ने मदीना के मुसलमानों का मनोबल बढ़ाया और उन्हें यहूदियों की ओर से होने वाली आलोचनाओं और फब्तियों से निपटने की ताकत दी।

    • इसने यहूदियों और ईसाइयों के सामने उनकी हठधर्मिता को पूरी तरह उजागर कर दिया, जिससे मुसलमानों को उनके षड्यंत्रों का सामना करने में मदद मिली।

  • वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:

    • धार्मिक एकता के झूठे दावे: आज एक "अंतर-धार्मिक एकता" (Interfaith Harmony) के नाम पर कुछ लोग यह कोशिश करते हैं कि सभी धर्मों की मान्यताओं को मिला-जुलाकर पेश किया जाए और इस्लाम की विशिष्ट शिक्षाओं (जैसे हिजाब, जिहाद, किब्ला) से समझौता किया जाए। यह आयत ऐसे सभी प्रयासों के खिलाफ एक स्पष्ट चेतावनी है।

    • सांस्कृतिक दबाव: आज का मुसलमान पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के दबाव में आकर अक्सर अपनी पहचान और धार्मिक मान्यताओं से समझौता करने लगता है। यह आयत उसे याद दिलाती है कि अल्लाह के ज्ञान के बाद किसी और की "इच्छाओं" का पालन करना ज़ुल्म है।

    • आत्म-पहचान का संकट: यह आयत मुसलमानों को उनकी स्वतंत्र और स्पष्ट पहचान का एहसास कराती है और कहती है कि तुम्हारा अपना एक मार्ग है, उस पर डटे रहो।

  • भविष्य (Future) के लिए प्रासंगिकता:

    • शाश्वत मार्गदर्शन: भविष्य में जब भी कोई समूह या शक्ति इस्लाम की मौलिक शिक्षाओं से समझौता करने के लिए दबाव डालेगी, यह आयत हर मोमिन के लिए मार्गदर्शन का स्रोत बनी रहेगी।

    • हठ के खिलाफ चेतावनी: यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को सिखाती रहेगी कि सत्य को स्वीकार करने में हठ और अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। मोमिन को हमेशा सत्य के लिए तैयार रहना चाहिए, भले ही वह उसकी अपनी इच्छाओं के खिलाफ ही क्यों न हो।

    • सत्य के लिए अडिग रहने का सिद्धांत: यह आयत एक शाश्वत सिद्धांत स्थापित करती है: "सत्य की पहचान होने के बाद भी, अगर तुमने लोगों को खुश करने के लिए उसका साथ छोड़ दिया, तो तुम स्पष्ट रूप से ज़ालिम हो।" यह सिद्धांत कयामत तक के लिए मार्गदर्शन करता रहेगा।

निष्कर्ष: कुरआन की यह आयत सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना का ब्यौरा नहीं है, बल्कि यह हर युग के मुसलमान को उसकी पहचान, उसके कर्तव्य और उसके लिए खतरों से आगाह करती है। यह हमें सिखाती है कि अल्लाह के स्पष्ट ज्ञान के आगे किसी भी मानवीय दबाव, लोभ-लालच या भय का कोई स्थान नहीं है।