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क़ुरआन की आयत 2:285 की पूरी व्याख्या

 

क़ुरआन की आयत 2:285 (सूरह अल-बक़ारह) - पूर्ण विवरण

यह आयत पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और उनके सच्चे साथियों के ईमान की शुद्धता और पूर्ण समर्पण को दर्शाती है। यह एक मुसलमान के विश्वास के स्तंभों को स्पष्ट करती है और अल्लाह पर पूर्ण भरोसे (तौक़ील) का सिद्धांत स्थापित करती है।

1. अरबी आयत (Arabic Verse):

آمَنَ الرَّسُولُ بِمَا أُنزِلَ إِلَيْهِ مِن رَّبِّهِ وَالْمُؤْمِنُونَ ۚ كُلٌّ آمَنَ بِاللَّهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّن رُّسُلِهِ ۚ وَقَالُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا ۖ غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَيْكَ الْمَصِيرُ

2. अरबी शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • آمَنَ الرَّسُولُ: "ईमान लाया रसूल ने"

  • بِمَا أُنزِلَ إِلَيْهِ: "उस (वह्य) पर जो उनकी ओर उतारी गई"

  • مِن رَّبِّهِ: "उनके पालनहार की ओर से"

  • وَالْمُؤْمِنُونَ: "और ईमान वालों ने (भी)"

  • كُلٌّ آمَنَ بِاللَّهِ: "हर एक (समूह) ने ईमान लाया अल्लाह पर"

  • وَمَلَائِكَتِهِ: "और उसके फरिश्तों पर"

  • وَكُتُबِهِ: "और उसकी किताबों पर"

  • وَرُسُلِهِ: "और उसके रसूलों पर"

  • لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّن رُّسُلِهِ: "हम उसके रसूलों में से किसी के बीच भेद नहीं करते"

  • وَقَالُوا: "और उन्होंने कहा"

  • سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا: "हमने सुना और हमने माना (आज्ञा का पालन किया)"

  • غُفْرَانَكَ رَبَّنَا: "हे हमारे पालनहार, हमें तेरी ही क्षमा प्राप्त हो"

  • وَإِلَيْكَ الْمَصِيرُ: "और तेरी ही ओर (सबको) लौटना है"

3. आयत का हिंदी अनुवाद और पूर्ण व्याख्या (Full Explanation in Hindi):

अनुवाद: "रसूल (मुहम्मद) ईमान लाए उस (वह्य) पर जो उनके पालनहार की ओर से उन पर उतारी गई और (उसी तरह) सभी ईमान वालों (ने भी)। सबने ईमान लाया अल्लाह पर, उसके फरिश्तों पर, उसकी (अवतरित) किताबों पर और उसके रसूलों पर। (वे कहते हैं:) हम उसके रसूलों में से किसी के बीच भेद नहीं करते। और उन्होंने (अल्लाह से) कहा: 'हमने सुना और हमने आज्ञा का पालन किया। हे हमारे पालनहार! हम तेरी ही क्षमा के भागी हैं और तेरी ही ओर लौटकर जाना है।'”

व्याख्या:

यह आयत एक मुसलमान के पूर्ण ईमान (विश्वास) को तीन स्पष्ट चरणों में प्रस्तुत करती है:

1. ईमान के स्तंभ (आस्था की घोषणा):
सबसे पहले, आयत हर मुसलमान के ईमान के मूल आधारों को स्पष्ट करती है। ये हैं:

  • अल्लाह पर: उसके अस्तित्व, उसकी एकता (तौहीद) और उसके सभी गुणों पर।

  • फरिश्तों पर: उनके अस्तित्व और उनके द्वारा अल्लाह के आदेशों के पालन पर।

  • किताबों पर: अल्लाह द्वारा भेजी गई सभी दिव्य पुस्तकों (तौरात, ज़बूर, इंजील, कुरआन आदि) पर।

  • रसूलों पर: अल्लाह द्वारा भेजे गए सभी पैगंबरों (आदम से लेकर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तक) पर।

एक विशेष बात यह है कि मुसलमान "उसके रसूलों में से किसी के बीच भेद नहीं करते"। इसका मतलब है कि सभी पैगंबर सच्चे और सम्मान के पात्र हैं, भले ही उन पर उतरने वाला कानून (शरीअत) अलग-अलग रहा हो।

2. पूर्ण समर्पण (सुनना और मानना):
ईमान की घोषणा के बाद आता है कार्य। सहाबा के शब्द "सَمِعْنَا وَأَطَعْنَا" (हमने सुना और हमने माना) पूर्ण आज्ञाकारिता और बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार करने की भावना को दर्शाते हैं। यह एक मुसलमान का अल्लाह और उसके रसूल के प्रति दृष्टिकोण है: पहले दिल से स्वीकार करो, फिर पूरी तरह से पालन करो।

3. विनम्र प्रार्थना (क्षमा और लौटने का एहसास):
अपनी आज्ञाकारिता का बयान देने के बाद, वे अल्लाह के सामने विनम्रता दिखाते हैं। वे नहीं कहते, "हमने आज्ञा मान ली, अब हमारा काम पूरा हुआ।" बल्कि, वे कहते हैं: "ग़ुफ़्रानक रब्बना व इलैकल मसीर" (हे हमारे पालनहार, हमें तेरी ही क्षमा प्राप्त हो और तेरी ही ओर लौटकर जाना है)। यह दर्शाता है कि:

  • एक सच्चा मोमिन अल्लाह की क्षमा का हमेशा माँगने वाला रहता है, क्योंकि वह जानता है कि उसकी आज्ञाकारिता भी अल्लाह की दया के योग्य नहीं है।

  • उसे हमेशा आखिरत (प्रलय) और अल्लाह के सामने पेश होने का एहसास बना रहता है।

4. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral):

  1. ईमान की संपूर्णता: एक मुसलमान का ईमान अल्लाह, उसके फरिश्तों, उसकी किताबों और उसके सभी पैगंबरों पर एक साथ और बिना किसी भेद के होता है। यह आंशिक विश्वास नहीं हो सकता।

  2. आज्ञाकारिता का तत्काल प्रतिक्रिया: एक मोमिन का कर्तव्य है कि वह अल्लाह के आदेश को सुनते ही "सुन लिया और मान लिया" का रवैया अपनाए, बहानेबाजी या टालमटोल न करे।

  3. विनम्रता और आशा: सच्ची आज्ञाकारिता इंसान में अहंकार नहीं, बल्कि और अधिक विनम्रता पैदा करती है। व्यक्ति को हमेशा अल्लाह की क्षमा की आवश्यकता महसूस होती है।

  4. अंतिम लक्ष्य की याद: दुनिया के सभी कर्मों का अंतिम लक्ष्य अल्लाह के पास लौटना है। यह एहसास हर काम को सही दिशा देता है।

5. अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत में (In the Past):
    यह आयत सहाबा (पैगंबर के साथियों) के आदर्श चरित्र को दर्शाती है। जब भी कोई नया आदेश (जैसे किबला बदलना, सूद की मनाही) उतरता, उनकी प्रतिक्रिया बिल्कुल यही होती थी: "सَمِعْنَا وَأَطَعْنَا"। उन्होंने बिना सवाल किए, पूरी निष्ठा से आदेश का पालन किया। यही भावना उनकी सफलता का रहस्य थी।

  • वर्तमान में (In the Present):
    आज का मुसलमान अक्सर धार्मिक आदेशों को अपनी सुविधा और दुनियावी ज्ञान के अनुसान "फिल्टर" करने लगता है। वह कुछ बातें मानता है और कुछ को नज़रअंदाज़ कर देता है।

    • प्रासंगिकता: यह आयत आज के मुसलमानों के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि ईमान का मतलब चुनिंदा आज्ञाकारिता नहीं है। इस्लाम एक संपूर्ण जीवन प्रणाली है और इसे पूरी तरह स्वीकार करना ही एक मोमिन की पहचान है। यह आयत हमें सहाबा वाली मानसिकता अपनाने का आह्वान करती है।

  • भविष्य में (In the Future):
    भविष्य में, दुनिया और भी अधिक जटिल और भ्रमित करने वाली होगी। नैतिकता के सापेक्ष सिद्धांत (Relative Morality), धर्मनिरपेक्षतावाद (Secularism) और विभिन्न विचारधाराएँ मनुष्य को अल्लाह के आदेशों से दूर ले जाएँगी।

    • भविष्य की दृष्टि: ऐसे माहौल में, यह आयत एक मजबूत सिद्धांत के रूप में खड़ी रहेगी। यह मुसलमानों को याद दिलाती रहेगी कि उनकी निष्ठा का केंद्र केवल अल्लाह और उसका धर्म है। "सَمِعْنَا وَأَطَعْنَا" का सिद्धांत उनके लिए एक ऐसा मार्गदर्शक सिद्धांत होगा जो उन्हें हर प्रकार की भटकाव से बचाएगा। यह उन्हें सिखाता रहेगा कि अल्लाह के आदेशों के आगे पूरी तरह समर्पण ही सच्ची सफलता है, और अंत में उसी के पास लौटना है।

निष्कर्ष: कुरआन 2:285 एक मुसलमान के लिए ईमान और आज्ञाकारिता का एक संपूर्ण कोड (Code of Faith and Obedience) है। यह सिखाती है कि सच्चा ईमान, पूर्ण समर्पण और विनम्र प्रार्थना के साथ मिलकर ही एक पूर्ण मानव जीवन का निर्माण करता है। यह आयत हर युग में मुसलमानों के लिए आदर्श व्यवहार का मार्गदर्शक है।