﴿لَن يَضُرُّوكُمْ إِلَّا أَذًى ۖ وَإِن يُقَاتِلُوكُمْ يُوَلُّوكُمُ الْأَدْبَارَ ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat 111)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
لَن يَضُرُّوكُمْ (Lan yadurrookum): वे तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
إِلَّا أَذًى (Illaa adhan): सिवाय तकलीफ (दुख/कष्ट) के।
وَإِن يُقَاتِلُوكُمْ (Wa in yuqaatilookum): और अगर वे तुमसे लड़ेंगे।
يُوَلُّوكُمُ الْأَدْبَارَ (Yuwallookumul-adbaara): तो तुम्हारी ओर पीठ फेर लेंगे (भाग जाएँगे)।
ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ (Thumma laa yunsaroon): फिर उनकी कोई मदद नहीं करेगा।
पूरी तफ्सीर (व्याख्या) और अर्थ (Full Explanation):
इस आयत का पूरा अर्थ है: "वे (दुश्मन) तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, सिवाय एक तकलीफ (और परेशानी) के। और अगर वे तुमसे लड़ेंगे तो तुम्हारी ओर पीठ फेरकर भाग जाएँगे, फिर उनकी कोई सहायता नहीं करेगा।"
यह आयत पिछली आयत (3:110) में बताई गई "सर्वश्रेष्ठ उम्मत" को एक शक्तिशाली आश्वासन (गारंटी) और ढाढस देती है। जब मुसलमान अपनी जिम्मेदारी (अम्र बिल मारूफ) निभाते हैं, तो दुनिया के दुश्मन और विरोधी उनके रास्ते में आएंगे। इस आयत में अल्लाह तआला उन दुश्मनों की वास्तविक ताकत और अंत को बताकर मोमिनीन का हौसला बढ़ा रहे हैं।
1. "वे तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, सिवाय एक तकलीफ के":
यहाँ "वे" से तात्पर्य ईमान के दुश्मनों, विशेष रूप से उन अहले-किताब और मुनाफिकीन से है जो मुसलमानों को नुकसान पहुँचाना चाहते थे।
"कुछ नहीं बिगाड़ सकते" का मतलब है कि वे तुम्हारे ईमान, ताक़्वा और आखिरत की सफलता को नहीं छीन सकते। वे सिर्फ दुनियावी नुकसान पहुँचा सकते हैं।
"सिवाय एक तकलीफ के" यानी वे सिर्फ बाहरी चोट पहुँचा सकते हैं, जैसे:
बद्दुआ देना, बुरा-भला कहना।
साजिशें रचना, आर्थिक नुकसान पहुँचाना।
सामाजिक बहिष्कार करना।
ये चीजें दर्द जरूर देती हैं, लेकिन ये मोमिन की आंतरिक ताकत और उसके ईमान को नष्ट नहीं कर सकतीं।
2. "और अगर वे तुमसे लड़ेंगे तो तुम्हारी ओर पीठ फेरकर भाग जाएँगे":
यह एक भविष्यवाणी और वादा है। अल्लाह कह रहा है कि अगर दुश्मन हिंसा और जंग का रास्ता अपनाते हैं, तो उनकी हार निश्चित है।
"पीठ फेरकर भाग जाएँगे" यानी युद्ध के मैदान में उन्हें शर्मनाक हार का सामना करना पड़ेगा और वे मैदान छोड़कर भागेंगे।
3. "फिर उनकी कोई सहायता नहीं करेगा":
यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। दुश्मन की हार इसलिए निश्चित है क्योंकि अल्लाह की मदद उनके साथ नहीं होगी।
चाहे वे दुनिया में कितनी भी ताकतवर क्यों न हों, अल्लाह की मदद के बिना वे सफल नहीं हो सकते। जब अल्लाह की मदद ही नहीं, तो कोई दूसरी ताकत उनकी सहायता नहीं कर सकती।
सबक और शिक्षा (Lesson and Guidance):
अल्लाह पर भरोसा (तवक्कुल): मोमिन को हमेशा यह यकीन रखना चाहिए कि उसका असली सहारा और रक्षक अल्लाह है। दुश्मन की चालें और ताकत सिर्फ एक "तकलीफ" हैं, जो गुजर जाएगी।
नैतिक जीत का महत्व: दुश्मन सिर्फ शारीरिक या आर्थिक नुकसान पहुँचा सकता है, लेकिन अगर मोमिन अपना ईमान और सब्र बनाए रखे, तो वह असली में जीत जाता है।
डरने की जरूरत नहीं: अल्लाह के वादे पर यकीन रखते हुए मुसलमानों को दुश्मनों के डर से अपना फर्ज (अम्र बिल मारूफ) छोड़ना नहीं चाहिए।
अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) में: यह आयत उस समय के नए मुस्लिम समुदाय के लिए एक बहुत बड़ी मनोबल बूस्टर थी। जब मक्का के काफिर और मदीना के यहूदी उन्हें डरा-धमका रहे थे और उनके खिलाफ साजिशें रच रहे थे, तो यह आयत उन्हें आश्वस्त करती थी कि अल्लाह की मदद से उनकी जीत निश्चित है। बद्र के युद्ध जैसे मौकों पर यह वादा सच साबित हुआ।
वर्तमान (Present) में: आज के दौर में यह आयत बेहद प्रासंगिक है:
मीडिया और मनोवैज्ञानिक युद्ध (Psychological War): आज मुसलमानों के खिलाफ जंग ज्यादातर मीडिया, प्रोपेगैंडा और झूठी खबरों के जरिए लड़ी जा रही है। यह "ज़िल्म का अज़ा" (दुख/तकलीफ) का एक आधुनिक रूप है। यह आयत हमें बताती है कि ये हमले हमारे ईमान को नहीं मार सकते, सिर्फ परेशान जरूर कर सकते हैं।
आतंकवाद का झूठा आरोप: दुनिया भर में मुसलमानों को आतंकवादी का ठप्पा लगाकर प्रताड़ित किया जा रहा है। यह आयत हमें सब्र और अल्लाह पर भरोसा रखने की सीख देती है।
वैश्विक स्तर पर विरोध: जब मुसलमान फिलिस्तीन, कश्मीर या कहीं और जुल्म के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो उन्हें धमकियाँ मिलती हैं। यह आयत उनके हौसले को बुलंद करती है कि अगर दुश्मन लड़ने भी आएगा, तो अल्लाह की मदद से उसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ेगा।
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत कयामत तक हर मोमिन के लिए एक स्थायी आश्वासन बनी रहेगी। यह हमेशा यह याद दिलाती रहेगी कि:
अल्लाह का वादा सच्चा है।
दुश्मन की ताकत दिखावटी और अस्थायी है।
असली जीत ईमान और सब्र की जीत है।
यह आयत हर मुसलमान को यह दुआ सिखाती है: "ऐ अल्लाह! हमें दुश्मनों की तकलीफों पर सब्र दे और हमें यह यकीन दिला दे कि अंत में जीत तेरी मदद से हमारी ही होगी।"