﴿هَٰأَنْتُمْ هَٰؤُلَاءِ حَاجَجْتُمْ فِيمَا لَكُمْ بِهِ عِلْمٌ فَلِمَ تُحَاجُّونَ فِيمَا لَيْسَ لَكُمْ بِهِ عِلْمٌ ۚ وَاللَّهُ يَعْلَمُ وَأَنْتُمْ لَا تَعْلَمُونَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 66)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
هَٰأَنْتُمْ هَٰؤُلَاءِ (Haa-antum haaulaa'i): लो! तुम यही लोग हो।
حَاجَجْتُمْ فِيمَا لَكُمْ بِهِ عِلْمٌ (Haajajtum fee maa lakum bihee 'ilmun): तुमने उस मामले में बहस की जिसका तुम्हें ज्ञान था।
فَلِمَ تُحَاجُّونَ فِيمَا لَيْسَ لَكُمْ بِهِ عِلْمٌ (Falima tuhaajjoona fee maa laisa lakum bihee 'ilmun): तो फिर तुम उस मामले में क्यों बहस करते हो जिसका तुम्हें ज्ञान नहीं है?
وَاللَّهُ يَعْلَمُ (Wallaahu ya'lamu): और अल्लाह जानता है।
وَأَنْتُمْ لَا تَعْلَمُونَ (Wa antum laa ta'lamoon): और तुम नहीं जानते।
पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):
यह आयत पिछली आयत में दिए गए तर्क को और मजबूत करती है और अहले-किताब की बहस की मानसिकता पर एक तीखा प्रहार करती है। अल्लाह उनकी बौद्धिक बेईमानी और जिद को उजागर करता है।
आयत के दो मुख्य भाग हैं:
ज्ञान और अज्ञान की बहस का फर्क:
"तुमने उस मामले में बहस की जिसका तुम्हें ज्ञान था": यहाँ 'ज्ञान वाली बहस' से तात्पर्य उन मामलों से हो सकता है जिनका उनकी अपनी किताबों (तौरात, इंजील) में स्पष्ट उल्लेख है, या फिर दुनियावी ऐसे मामले जिन्हें वह अपनी आँखों से देख और समझ सकते थे। उदाहरण के लिए, हज़रत ईसा के चमत्कारों पर बहस करना, जो उनकी अपनी किताबों में दर्ज हैं।
"तो फिर तुम उस मामले में क्यों बहस करते हो जिसका तुम्हें ज्ञान नहीं है?": यह सीधे हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के बारे में उनकी बहस पर लक्षित है। उनके पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं था कि इब्राहीम यहूदी या ईसाई थे। यह एक ऐसा विषय था जिसके बारे में उनके पास कोई दिव्य प्रमाण नहीं था, बल्कि यह सिर्फ एक अंधी जिद और पूर्वाग्रह था।
अल्लाह के ज्ञान और मनुष्य के अज्ञान का सिद्धांत:
"और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते": यह वाक्य उनकी हेकड़ी को चूर-चूर कर देता है। अल्लाह उन्हें याद दिलाता है कि पूर्ण ज्ञान का स्रोत केवल वही है। जो कुछ तुम नहीं जानते, वह अल्लाह जानता है। इसलिए, उन चीजों के बारे में दृढ़ता से बहस करना, जिनका तुम्हें ज्ञान नहीं है, एक मूर्खता और घमंड है।
संक्षेप में, अल्लाह कह रहा है: "तुम लोगों की आदत है कि तुम तथ्यों पर भी बहस करते हो और अपनी कल्पनाओं पर भी। तुम्हें उन मामलों में बहस करने का कोई अधिकार नहीं है जिनके बारे में तुम्हारे पास कोई जानकारी नहीं है। असली ज्ञान तो अल्लाह के पास है।"
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):
ज्ञान के बिना बहस न करें: इस्लाम बेवजह की बहस और झगड़े से मना करता है, खासकर तब जब इंसान के पास ज्ञान न हो। यह समय और ऊर्जा की बर्बादी है।
विनम्रता का पाठ: इंसान को हमेशा यह याद रखना चाहिए कि उसका ज्ञान सीमित है और अल्लाह का ज्ञान असीमित। इस एहसास से इंसान में विनम्रता आती है।
बौद्धिक ईमानदारी: एक मोमिन का यह कर्तव्य है कि वह बौद्धिक रूप से ईमानदार रहे। उसे तथ्यों को स्वीकार करना चाहिए और अपने पूर्वाग्रहों को सच्चाई पर हावी नहीं होने देना चाहिए।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में, यह आयत यहूदी और ईसाई विद्वानों के खोखले दावों और अहंकार का पर्दाफाश करने के लिए एक शक्तिशाली हथियार थी।
वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:
सोशल मीडिया और बहस की संस्कृति: आज का युग बहस और ट्रोलिंग का युग है। लोग बिना किसी ज्ञान के हर विषय पर राय देते हैं। यह आयत हमें यह सीख देती है कि बिना ज्ञान के बहस करने से बचना चाहिए।
धार्मिक कट्टरता: आज भी कई लोग अपने धर्म के बारे में बिना गहन ज्ञान के कट्टरपंथी रुख अपनाते हैं और दूसरों से बहस करते हैं। यह आयत उन्हें चेतावनी देती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण: विज्ञान भी सिखाता है कि केवल सबूत और ज्ञान के आधार पर ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए। यह आयत इसी वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देती है।
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा मानवता के लिए "बौद्धिक विनम्रता और जिम्मेदारी" का मार्गदर्शक सिद्धांत बनी रहेगी। भविष्य में जब ज्ञान-विज्ञान और भी आगे बढ़ेगा, यह आयत हर पीढ़ी को यह याद दिलाती रहेगी कि इंसान का ज्ञान सीमित है और उसे हमेशा सीखने और विनम्र रहने की जरूरत है। यह आयत बिना ज्ञान के बहस करने वालों के लिए हमेशा एक कलंक के रूप में खड़ी रहेगी।