﴿يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهِ مَن يَشَاءُ ۗ وَاللَّهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 74)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
يَخْتَصُّ (Yakhtassu): वह विशेष रूप से चुन लेता है।
بِرَحْمَتِهِ (Bi rahmatihi): अपनी रहमत (दया) से।
مَن يَشَاءُ (Man yashaaa'u): जिसे चाहता है।
وَاللَّهُ (Wallaahu): और अल्लाह।
ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ (Zul-fadlil-'Azeem): बड़े अनुग्रह वाला है।
पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):
यह आयत पिछली आयत के अंतिम सिद्धांत को और भी स्पष्ट तथा जोरदार ढंग से प्रस्तुत करती है। यह अहले-किताब के जातीय अहंकार और एकाधिकार के दावे का अंतिम जवाब है।
इस छोटी सी आयत में दो गहरे सत्य समाहित हैं:
"वह विशेष रूप से चुन लेता है अपनी रहमत से जिसे चाहता है": यहाँ "इख्तिसास" (विशेष रूप से चुनना) शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। अल्लाह की रहमत सभी पर है, लेकिन उसकी विशेष दया - जैसे पैगंबरी का दर्जा, दिव्य किताब, या विशेष ज्ञान - वह वही देता है जिसे वह अपनी हिक्मत (तत्वदर्शिता) के तहत चुनता है। यह चुनाव किसी खास नस्ल, रंग या जाति के आधार पर नहीं, बल्कि अल्लाह की असीम बुद्धिमत्ता और उसके गुप्त ज्ञान पर आधारित है। जैसे उसने इस्माईल (अलैहिस्सलाम) की संतान में से अरब के बीच पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को चुना।
"और अल्लाह बड़े अनुग्रह वाला है": यह वाक्य अल्लाह की महानता और उदारता को दर्शाता है। "फज़ल" का मतलब है अतिरिक्त अनुग्रह, वह देन जिसका इंसान हकदार भी नहीं है। अल्लाह का अनुग्रह "अज़ीम" (अत्यंत महान) है, यानी वह सीमित नहीं है। उसकी दया का भंडार इतना विशाल है कि वह सभी को दे सकता है, बिना किसी के हिस्से में कमी किए।
संक्षेप में, आयत का भाव यह है: "अल्लाह मनचाहे व्यक्ति को अपनी विशेष दया प्रदान करता है और वह अत्यधिक उदार है। तुम उसकी दया को सीमित नहीं कर सकते।"
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):
अल्लाह की मर्जी सर्वोपरि: इंसान को यह स्वीकार करना चाहिए कि मार्गदर्शन और विशेष अनुग्रह देने का अधिकार पूरी तरह से अल्लाह के हाथ में है। उसकी मर्जी के आगे किसी की चली नहीं।
घमंड का त्याग: किसी को अपने ऊपर घमंड नहीं करना चाहिए कि वह अल्लाह की रहमत का विशेष हकदार है। हो सकता है कल वह रहमत किसी और को मिल जाए।
आशा और भरोसा: चूंकि अल्लाह "ज़ुल-फज़लिल-अज़ीम" है, इसलिए हर इंसान को उसकी रहमत से कभी निराश नहीं होना चाहिए। वह किसी भी समय किसी को भी अपनी विशेष दया से नवाज़ सकता है।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में, यह आयत यहूदियों के उस दावे को खारिज करने के लिए थी कि पैगंबरी और अल्लाह की विशेष कृपा केवल इब्राहीम की संतान के एक特定 हिस्से (इसहाक की संतान) तक ही सीमित है। इसने साबित किया कि अल्लाह ने इब्राहीम की दूसरी संतान (इसमाईल की संतान) में से भी एक महान पैगंबर को चुन लिया।
वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:
धार्मिक कट्टरता का इलाज: आज भी कई धार्मिक समूह यह मानते हैं कि अल्लाह की कृपा सिर्फ उन्हीं पर है। यह आयत उस सोच को गलत साबित करती है।
नस्लवाद का खंडन: नस्लीय श्रेष्ठता का दावा करने वालों के लिए यह आयत एक चुनौती है। अल्लाह जिसे चाहे, चुन लेता है, चाहे वह किसी भी नस्ल या देश का हो।
व्यक्तिगत प्रेरणा: हर मुसलमान को यह आयत यह प्रेरणा देती है कि वह अल्लाह की विशेष रहमत (जैसे इल्म, तौफीक़, नेकी) पाने की कोशिश करे, क्योंकि वह उसे किसी को भी दे सकता है।
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा मानवता के लिए "अल्लाह की संप्रभुता और उदारता" का एक स्थायी सिद्धांत बनी रहेगी। भविष्य में जब भी कोई समुदाय या व्यक्ति अल्लाह की दया पर एकाधिकार का दावा करेगा, यह आयत उसके मुँह पर तमाचा होगी। यह आयत हर युग के लोगों को नम्रता के साथ अल्लाह की रहमत की आशा रखने और उसके फैसलों पर राजी रहने की शिक्षा देती रहेगी।