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कुरआन की आयत 3:78 की पूरी व्याख्या

 

﴿وَإِنَّ مِنْهُمْ لَفَرِيقًا يَلْوُونَ أَلْسِنَتَهُم بِالْكِتَابِ لِتَحْسَبُوهُ مِنَ الْكِتَابِ وَمَا هُوَ مِنَ الْكِتَابِ وَيَقُولُونَ هُوَ مِنْ عِندِ اللَّهِ وَمَا هُوَ مِنْ عِندِ اللَّهِ وَيَقُولُونَ عَلَى اللَّهِ الْكَذِبَ وَهُمْ يَعْلَمُونَ﴾

(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 78)


अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):

  • وَإِنَّ مِنْهُمْ (Wa inna minhum): और निश्चित रूप से उनमें से कुछ।

  • لَفَرِيقًا (Lafareeqan): एक समूह ऐसा है।

  • يَلْوُونَ أَلْسِنَتَهُم (Yalwoona alsinatahum): वह तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं अपनी जुबानों को (शब्दों को)।

  • بِالْكِتَابِ (Bil-kitaabi): किताब (तौरात) के (साथ)।

  • لِتَحْسَبُوهُ مِنَ الْكِتَابِ (Li-tahsaboohu minal-kitaabi): ताकि तुम समझो कि वह (बात) किताब में से है।

  • وَمَا هُوَ مِنَ الْكِتَابِ (Wa maa huwa minal-kitaabi): जबकि वह किताब में से नहीं है।

  • وَيَقُولُونَ هُوَ مِنْ عِندِ اللَّهِ (Wa yaqooloona huwa min 'indillaahi): और वह कहते हैं कि यह अल्लाह की तरफ से है।

  • وَمَا هُوَ مِنْ عِندِ اللَّهِ (Wa maa huwa min 'indillaahi): जबकि वह अल्लाह की तरफ से नहीं है।

  • وَيَقُولُونَ عَلَى اللَّهِ الْكَذِبَ (Wa yaqooloona 'alallaahil-kaziba): और वह अल्लाह पर झूठ बोलते हैं।

  • وَهُمْ يَعْلَمُونَ (Wa hum ya'lamoon): और वह (सच्चाई) जानते हुए भी।


पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):

यह आयत अहले-किताब (यहूदियों) के एक समूह की एक और गंभीर धार्मिक बेईमानी को उजागर करती है - जानबूझकर अल्लाह की किताब में छेड़छाड़ करना। यह उनकी साजिश का तरीका बताती है।

इस आयत में उनकी छेड़छाड़ के तीन स्तर बताए गए हैं:

  1. शब्दों को तोड़-मरोड़कर पेश करना (यलवून): वह अपनी जुबान से तौरात के शब्दों और वाक्यों को इतनी चालाकी से बोलते या पढ़ते थे कि उनका अर्थ ही बदल जाता था। वह शब्दों के उच्चारण, लहजे या विराम चिह्नों में हेर-फेर करके मूल संदेश को विकृत कर देते थे। उदाहरण के लिए, पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में भविष्यवाणी को इस तरह पढ़ते कि उसका मतलब बदल जाए।

  2. अपनी बात को किताब का हिस्सा बताना: वह अपनी तरफ से गढ़ी हुई बातों या गलत व्याख्याओं को इस तरह पेश करते कि साधारण लोग यही समझते कि यह बात भी तौरात में लिखी हुई है। इस तरह वह अपनी मनगढ़ंत बातों को दिव्य स्वीकृति दिलवाते थे।

  3. अल्लाह पर झूठा आरोप लगाना: सबसे बड़ा अपराध यह था कि वह इन विकृत और गढ़ी हुई बातों को "अल्लाह की तरफ से" बताते थे। यानी वह जानबूझकर अल्लाह के नाम पर झूठ बोल रहे थे।

आयत के अंत में एक बार फिर जोर देकर कहा गया: "और वह (यह सब) जानते हुए भी (करते हैं)।" यह कोई भूल नहीं, बल्कि एक सोची-समझी साजिश थी। उन्हें पता था कि जो वह पढ़ रहे हैं वह किताब का हिस्सा नहीं है, फिर भी वह लोगों को गुमराह करने के लिए ऐसा करते थे।


सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):

  1. धार्मिक ग्रंथों की जिम्मेदारी: धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने-समझने और समझाने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। उनके साथ छेड़छाड़ करना एक भयानक पाप है।

  2. ज्ञान की ईमानदारी: ज्ञान को कभी भी धोखे या पक्षपात के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। एक विद्वान का फर्ज है कि वह सच्चाई को ही पेश करे।

  3. अल्लाह के नाम पर झूठ सबसे बड़ा जुर्म: अल्लाह के नाम पर झूठ बोलना या उस पर झूठा आरोप लगाना सबसे गंभीर अवज्ञा है।


अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में, यह आयत यहूदी विद्वानों के उस धोखे को उजागर करती थी जिसके तहत वह तौरात की आयतों को तोड़-मरोड़कर पेश करते थे ताकि पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की भविष्यवाणी को छिपा सकें।

  • वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:

    • गलत व्याख्याओं से सावधानी: आज भी कुछ लोग कुरआन और हदीस की आयतों को जान-बूझकर गलत तरीके से पेश करते हैं, उनका संदर्भ हटाकर या अर्थ बदलकर। इस आयत की रोशनी में हमें ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए।

    • धार्मिक नेताओं की जवाबदेही: धार्मिक नेता और उपदेशक इस आयत से सबक लें कि उन्हें अल्लाह के धर्म को शुद्ध रूप में पेश करना है, न कि अपनी मर्जी की बातें थोपनी हैं।

    • सच्चाई की तलाश: आम लोगों का फर्ज है कि वह धार्मिक मामलों में सच्चाई की तलाश स्वयं भी करें और केवल एक ही स्रोत पर निर्भर न रहें।

  • भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा "धार्मिक पाठ की शुद्धता और ईमानदारी" के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत बनी रहेगी। भविष्य में जब भी कोई समूह या व्यक्ति अल्लाह के धर्म के साथ छेड़छाड़ करेगा, यह आयत उसके खिलाफ एक स्थायी निंदा के रूप में खड़ी रहेगी। यह आयत हर युग के मुसलमानों को यह याद दिलाती रहेगी कि कुरआन अंतिम और संरक्षित किताब है और उसकी शिक्षाओं को विकृत होने से बचाना उनका कर्तव्य है।