आयत का अरबी पाठ:
وَإِذَا كُنتَ فِيهِمْ فَأَقَمْتَ لَهُمُ الصَّلَاةَ فَلْتَقُمْ طَائِفَةٌ مِّنْهُم مَّعَكَ وَلْيَأْخُذُوا أَسْلِحَتَهُمْ فَإِذَا سَجَدُوا فَلْيَكُونُوا مِن وَرَائِكُمْ وَلْتَأْتِ طَائِفَةٌ أُخْرَىٰ لَمْ يُصَلُّوا فَلْيُصَلُّوا مَعَكَ وَلْيَأْchūzū حِذْهُمْ وَأَسْلِحَتَهُمْ ۗ وَدَّ الَّذِينَ كَفَرُوا لَوْ تَغْفُلُونَ عَنْ أَسْلِحَتِكُمْ وَأَمْتِعَتِكُمْ فَيَمِيلُونَ عَلَيْكُم مَّيْلَةً وَاحِدَةً ۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ إِن كَانَ بِكُمْ أَذًى مِّن مَّطَرٍ أَوْ كُنتُم مَّرْضَىٰ أَن تَضَعُوا أَسْلِحَتَكُمْ ۖ وَخُذُوا حِذْرَكُمْ ۗ إِنَّ اللَّهَ أَعَدَّ لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا مُّهِينًا
हिंदी अनुवाद:
"और जब आप उन (सिपाहियों) के बीच हों और उनके लिए नमाज़ कायम करें, तो उनमें से एक गिरोह आपके साथ नमाज़ में खड़ा हो और वे अपने हथियार लेकर (पहरा देते रहें)। फिर जब वह गिरोह सजदा कर चुके, तो वे आपके पीछे (पहरा देने) आ जाएँ और दूसरा गिरोह, जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी है, आए और आपके साथ नमाज़ पढ़े, और वे भी अपनी सावधानी रखें और अपने हथियार लेकर रहें। काफिर तो चाहते हैं कि तुम अपने हथियारों और सामान से बेखबर हो जाओ, ताकि वे एक ही बार में तुम पर टूट पड़ें। और अगर तुम्हें बारिश की तकलीफ हो या तुम बीमार हो, तो अपने हथियार रख देने में तुम पर कोई गुनाह नहीं है, पर सावधानी अवश्य बरतो। निश्चय ही अल्लाह ने काफिरों के लिए अपमानजनक यातना तैयार कर रखी है।"
📖 आयत का सार और सीख:
इस आयत का मुख्य संदेश जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखना है। यह हमें सिखाती है:
समय प्रबंधन और प्राथमिकता: खतरे की स्थिति में भी नमाज़ जैसे धार्मिक कर्तव्य और सुरक्षा जैसी दुनियावी ज़रूरतों के बीच संतुलन बनाया जा सकता है।
सामूहिक जिम्मेदारी: समाज में हर किसी को अपनी भूमिका निभानी चाहिए। एक गिरोह इबादत करता है तो दूसरा सुरक्षा का काम देखता है।
सतर्कता और सावधानी: दुश्मन हमेशा कमजोर पल का फायदा उठाना चाहता है, इसलिए हर हाल में सजग रहना चाहिए।
🕰️ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Past Relevance):
युद्ध के मैदान में नमाज़: प्रारंभिक इस्लामी युद्धों के दौरान, जब मुसलमान सेना दुश्मन के सामने होती थी, तो नमाज़ के समय सुरक्षा की चुनौती उत्पन्न होती थी।
व्यावहारिक समाधान: यह आयत युद्ध की परिस्थिति में नमाज़ पढ़ने का एक व्यावहारिक तरीका बताती है - सिपाहियों के दो गिरोह बनाना, एक नमाज़ पढ़े जबकि दूसरा पहरा दे।
सामरिक महत्व: इस पद्धति से सेना की सुरक्षा भी बनी रहती थी और धार्मिक कर्तव्य भी पूरे हो जाते थे।
💡 वर्तमान और भविष्य के लिए प्रासंगिकता (Contemporary & Future Relevance):
1. आधुनिक जीवन में संतुलन:
कार्य और धर्म के बीच तालमेल: आज के व्यस्त जीवन में, यह आयत सिखाती है कि कैसे हम अपने पेशेवर कर्तव्यों और धार्मिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बना सकते हैं।
समय प्रबंधन: ऑफिस के काम के बीच में भी नमाज़ के लिए समय निकालना और फिर वापस काम पर लग जाना।
2. सामूहिक सहयोग:
पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियाँ: परिवार या समुदाय में अलग-अलग लोग अलग-अलग जिम्मेदारियाँ निभाएँ तो सबका काम आसानी से हो सकता है।
टीम वर्क: आधुनिक संस्थानों में टीम वर्क की अवधारणा इसी सिद्धांत पर आधारित है।
3. सतर्कता और सुरक्षा:
साइबर सुरक्षा: डिजिटल युग में हमें अपने डेटा और ऑनलाइन गतिविधियों के प्रति सतर्क रहने की जरूरत है।
व्यक्तिगत सुरक्षा: महिलाओं की सुरक्षा, बच्चों की सुरक्षा आदि मामलों में सजगता बरतना।
4. लचीलापन और व्यावहारिकता:
आपात स्थितियों में धार्मिक कर्तव्य: बाढ़, महामारी, या अन्य आपदाओं के समय धार्मिक प्रथाओं में व्यावहारिक बदलाव करना।
विशेष जरूरतों वाले लोग: बीमार या विकलांग लोगों के लिए धार्मिक कर्तव्यों में रियायत।
5. भविष्य के लिए मार्गदर्शन:
बदलती तकनीक के साथ तालमेल: नई तकनीकों और सामाजिक बदलावों के साथ धार्मिक प्रथाओं को ढालने में यह आयत मार्गदर्शन प्रदान करेगी।
वैश्विक समाज में एकता: विविधताओं के बीच एकजुटता और सहयोग की भावना विकसित करना।
निष्कर्ष:
कुरआन की यह आयत हमें जीवन की जटिल परिस्थितियों में संतुलन, सहयोग और सतर्कता का पाठ पढ़ाती है। यह सिखाती है कि इस्लाम एक व्यावहारिक धर्म है जो मानवीय आवश्यकताओं और परिस्थितियों को समझता है। आधुनिक युग में जहाँ जीवन की गति तेज है और चुनौतियाँ बहुआयामी हैं, यह आयत और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है। यह हमें सिखाती है कि धर्म और दुनिया, इबादत और सुरक्षा, व्यक्तिगत और सामूहिक हितों के बीच सही संतुलन बनाकर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है।
वालहमदु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन (और सारी प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सारे जहानों का पालनहार है)।