कुरआन की आयत 4:143 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"ذَوْبَةً بَيْنَ ذَٰلِكَ لَا إِلَىٰ هَٰؤُلَاءِ وَلَا إِلَىٰ هَٰؤُلَاءِ ۚ وَمَنْ يُضْلِلِ اللَّهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهُ سَبِيلًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • ذَوْبَةً (Dawbatan): दुविधा में, झूलते हुए, दोनों ओर झुकाव रखते हुए।

  • بَيْنَ (Baina): बीच में।

  • ذَٰلِكَ (Zalika): उस (हालat का)।

  • لَا إِلَىٰ (La Ila): न तो किसी की ओर।

  • هَٰؤُلَاءِ (Haula'i): ये लोग (ईमान वाले)।

  • وَلَا إِلَىٰ (Wa La Ila): और न ही किसी की ओर।

  • هَٰؤُلَاءِ (Haula'i): ये लोग (काफिर)।

  • وَمَنْ (Wa Man): और जिसे।

  • يُضْلِلِ (Yudlil): गुमराह कर दे।

  • اللَّهُ (Allahu): अल्लाह।

  • فَلَنْ (Falan): तो कभी नहीं।

  • تَجِدَ (Tajida): तुम पाओगे।

  • لَهُ (Lahu): उसके लिए।

  • سَبِيلًا (Sabeelan): कोई मार्ग (मार्गदर्शन का)।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

इस आयत का संदर्भ "मुनाफिकीन" (ढोंगी/पाखंडी) से है। मुनाफिक वे लोग थे जो मुंह से ईमान लाने का दावा करते थे लेकिन दिल से काफिर थे। वह मुसलमानों के बीच रहकर उन्हें नुकसान पहुंचाते थे।

आयत का भावार्थ: "ये मुनाफिक (ढोंगी) लोग (ईमान और कुफ्र के) बीच ऐसे झूल रहे हैं, न इन (मोमिनों) की तरफ और न उन (काफिरों) की तरफ। और जिसे अल्लाह गुमराह कर दे, तो तुम उसके लिए हिदायत का कोई रास्ता कभी नहीं पा सकोगे।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत मुनाफिकीन की मानसिक स्थिति और उनके चरित्र की बहुत गहरी तस्वीर पेश करती है।

  • दुविधा की स्थिति (ذَوْبَةً بَيْنَ ذَٰلِكَ): मुनाफिक का सबसे बड़ा लक्षण है उसकी दुविधा। उसका कोई स्थायी ठिकाना नहीं होता। वह न तो पूरी तरह से ईमान और सच्चाई के साथ खड़ा हो पाता है और न ही खुलेआम कुफ्र का साथ देने का साहस जुटा पाता है। उसका जीवन स्वार्थ और ऊपरी फायदे के लिए एक लगातार झूलने वाला जीवन है।

  • दोनों समूहों से अलग-थलग: वह मोमिनों के बीच रहकर भी उनका नहीं होता और काफिरों से मिलकर भी पूरी तरह उनका साथी नहीं बन पाता। दोनों ही पक्ष उस पर पूरा भरोसा नहीं करते। इस तरह वह समाज में एक अलग-थलग और अविश्वसनीय इकाई बनकर रह जाता है।

  • अल्लाह की मर्जी: आयत के अंत में अल्लाह फरमाता है कि जिसे वह गुमराह कर दे, उसे कोई सीधा रास्ता नहीं दिखा सकता। यह इस बात की ओर इशारा है कि हिदायत और गुमराही का स्रोत अंततः अल्लाह ही है। मुनाफिक का दिल इतना काला और सच्चाई से इतना दूर हो चुका होता है कि उसे सही रास्ते पर लाना लगभग नामुमकिन हो जाता है, क्योंकि उसने खुद ही सच्चाई को ठुकरा दिया है।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. ईमान में पक्कापन जरूरी है: ईमान एक पूर्ण और स्पष्ट समर्पण है। इसमें दुविधा, ढुलमुलपन या दो-टूक रवैये की कोई जगह नहीं है। एक मुसलमान को चाहिए कि वह अपने विश्वास और कर्म में पूरी तरह स्पष्ट और दृढ़ रहे।

  2. पाखंड एक भयानक बीमारी है: मुनाफिकत (पाखंड) सिर्फ एक सामाजिक बुराई नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक बीमारी है जो इंसान के दिल और चरित्र को खोखला कर देती है। इससे बचना हर मोमिन के लिए जरूरी है।

  3. स्पष्ट पहचान: एक मुसलमान की पहचान स्पष्ट और निर्भीक होनी चाहिए। उसे सच्चाई और झूठ के बीच कोई समझौता नहीं करना चाहिए।

  4. अल्लाह से हिदायत की दुआ: हमें हमेशा अल्लाह से दुआ करनी चाहिए कि वह हमें ईमान पर कायम रखे और पाखंड और दुविधा की बीमारी से बचाए।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत मदीना के उस दौर में स्पष्ट चेतावनी थी जब मुसलमानों के भीतर मुनाफिकीन का एक समूह सक्रिय था। यह आयत मोमिनों को उनकी पहचान और खतरे से आगाह करने के लिए थी।

  • वर्तमान (Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • व्यक्तिगत स्तर पर: आज का इंसान अक्सर सच और झूठ, हलाल और हराम, नैतिकता और अनैतिकता के बीच झूलता रहता है। सोशल मीडिया और आधुनिक जीवनशैली ने इस दुविधा को और बढ़ा दिया है। यह आयत हमें इस मानसिक दुविधा से बाहर निकलने और स्पष्ट नैतिक रुख अपनाने की प्रेरणा देती है।

    • समाज के स्तर पर: आज भी समाज में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो मौके और फायदे के अनुसार अपनी नीयत और रुख बदलते रहते हैं। राजनीति, व्यवसाय और यहां तक कि धार्मिक मामलों में भी पाखंड देखने को मिलता है। यह आयत ऐसे लोगों की मानसिकता को उजागर करती है और समाज को उनसे सावधान रहने की शिक्षा देती है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक इंसानी समाज रहेगा, सच्चाई और झूठ, ईमान और कुफ्र के बीच का संघर्ष रहेगा। ऐसे में हमेशा ऐसे लोग मौजूद रहेंगे जो दोनों दुनिया के फायदे लेना चाहेंगे और अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करेंगे। कुरआन की यह आयत कयामत तक आने वाले सभी लोगों के लिए एक स्थायी चेतावनी और मार्गदर्शन बनी रहेगी, ताकि वे इस घातक मानसिक और आध्यात्मिक बीमारी से बच सकें और ईमान की स्पष्ट राह पर चल सकें।

निष्कर्ष: सूरा अन-निसा की यह आयत केवल एक ऐतिहासिक घटना का बयान नहीं है, बल्कि यह इंसानी चरित्र की एक सार्वभौमिक कमजोरी की ओर इशारा करती है। यह हर जमाने के इंसान को अपने अंदर झांकने, अपनी नीयत को साफ रखने और एक स्पष्ट, दृढ़ और ईमानदार जीवन जीने की प्रेरणा देती है।