Read Quran translation in Hindi with verse-by-verse meaning and time-relevant explanations for deeper understanding.

कुरआन की आयत 4:16 की पूर्ण व्याख्या

 

1. आयत का अरबी पाठ (Arabic Text)

وَاللَّذَانِ يَأْتِيَانِهَا مِنكُمْ فَآذُوهُمَا ۖ فَإِن تَابَا وَأَصْلَحَا فَأَعْرِضُوا عَنْهُمَا ۗ إِنَّ اللَّهَ كَانَ تَوَّابًا رَّحِيمًا


2. आयत का हिंदी अर्थ (Meaning in Hindi)

"और तुम में से जो दो व्यक्ति (पुरुष और स्त्री) यह बुराई करें, तो उन्हें दुःख दो (या फटकारो)। फिर यदि वे दोनों तौबा कर लें और अपने आचरण को सुधार लें, तो उनसे विमुख हो जाओ (उन्हें छोड़ दो)। निस्संदेह अल्लाह तौबा स्वीकार करने वाला, अत्यंत दयावान है।"


3. आयत से मिलने वाला सबक (Lesson from the Verse)

  1. नैतिक दोष में समानता: यह आयत पिछली आयत (4:15) से आगे बढ़ते हुए एक मौलिक सिद्धांत स्थापित करती है - नैतिक अपराध (फाहिशा) में दोनों पक्ष (पुरुष और स्त्री) समान रूप से जिम्मेदार हैं। इस्लाम में नैतिकता के नियम दोनों पर समान रूप से लागू होते हैं, यह कोई एक-तरफा कानून नहीं है।

  2. सजा का उद्देश्य सुधार है: इस आयत में दी गई सजा "आज़ूहुमा" (उन्हें दुःख दो/फटकारो) एक सामाजिक और नैतिक दंड है, न कि कोई कठोर शारीरिक दंड। इसका स्पष्ट उद्देश्य अपराधी को शर्मिंदा करके और समाज की नाराजगी दिखाकर उसे सही रास्ते पर लाना है।

  3. तौबा (पश्चाताप) का महत्व: यह आयत तौबा के सिद्धांत को केंद्र में रखती है। सजा स्थायी नहीं है। जैसे ही अपराधी पश्चाताप करते हैं और अपना व्यवहार सुधारते हैं, समाज को उन्हें माफ कर देना चाहिए और उनके पिछले अपराध को दोबारा नहीं उछालना चाहिए ("उनसे विमुख हो जाओ")।

  4. अल्लाह की दया पर जोर: आयत का अंत इस बात पर जोर देकर होता है कि अल्लाह स्वयं तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान है। इसलिए, उसके बंदों को भी दूसरों के पश्चाताप को स्वीकार करने में दयालु होना चाहिए।


4. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevance: Past, Present & Future)

अतीत में प्रासंगिकता (Past Relevance):

  • एक क्रांतिकारी सुधार: जहिलिय्यत (अज्ञानता) के दौर में यौन अनैतिकता के लिए दोषी ठहराई गई महिलाओं को कठोर दंड दिया जाता था, जबकि पुरुष अक्सर बच निकलते थे। इस आयत ने स्पष्ट कर दिया कि दोष पुरुष और स्त्री दोनों का बराबर का है और दोनों के लिए एक जैसी सामाजिक फटकार का प्रावधान है। यह एक बड़ा सामाजिक सुधार था।

  • सुधारवादी दृष्टिकोण की शुरुआत: यह आयत पिछली आयत (4:15) में वर्णित "घर में नज़रबंद" के दंड को और विकसित करती है। यह दर्शाता है कि इस्लामी कानून धीरे-धीरे विकसित हो रहा था और इसका अंतिम लक्ष्य केवल दंड देना नहीं, बल्कि सामाजिक और व्यक्तिगत सुधार लाना था।

वर्तमान में प्रासंगिकता (Present Relevance):

  • लैंगिक न्याय का सिद्धांत: आज के युग में लैंगिक समानता (Gender Equality) एक बड़ा मुद्दा है। यह आयत इस्लाम के उस मौलिक सिद्धांत को रेखांकित करती है जो नैतिक जिम्मेदारी में पुरुष और स्त्री को बराबर मानता है। यह उन लोगों के लिए एक जवाब है जो गलत तरीके से यह दावा करते हैं कि इस्लाम महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करता है।

  • सजा बनाम सुधार: आधुनिक कानूनी दर्शन भी अब सजा के बजाय सुधार (Reform over Retribution) पर जोर दे रहा है। यह आयत इसी दृष्टिकोण की ओर संकेत करती है। किसी गलती के बाद व्यक्ति को सुधार का मौका देना और उसे समाज में दोबारा शामिल करना एक प्रगतिशील विचार है।

  • सोशल मीडिया और 'कैंसल कल्चर': आज का "कैंसल कल्चर" (Cancel Culture) जहाँ लोगों को उनकी पुरानी गलतियों के लिए सदैव कोसा जाता है, उसके खिलाफ यह आयत एक बेहतर विकल्प पेश करती है। यह सिखाती है कि अगर कोई व्यक्ति ईमानदारी से पश्चाताप कर ले और सुधर जाए, तो समाज को उसे माफ कर देना चाहिए और उसे दोबारा एक सम्मानजनक जीवन जीने का मौका देना चाहिए।

  • पारिवारिक और युवा मार्गदर्शन: आज के समाज में यौन अनैतिकता एक चुनौती है। इस आयत से माता-पिता और शिक्षकों को यह सीख मिलती है कि युवाओं को केवल डरा कर या दंड देकर ही नहीं, बल्कि उन्हें शर्मिंदा करके (फटकार) और फिर सुधार के लिए प्रेरित करके ही सही रास्ते पर लाया जा सकता है। इसका लक्ष्य व्यक्ति को बर्बाद करना नहीं, बल्कि सुधारना है।

भविष्य में प्रासंगिकता (Future Relevance):

  • शाश्वत नैतिक सिद्धांत: भविष्य का समाज चाहे जितना बदल जाए, नैतिक जिम्मेदारी, पश्चाताप और क्षमा के सिद्धांत सदैव प्रासंगिक रहेंगे। यह आयत भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत है कि नैतिक अपराधों से कैसे निपटा जाए।

  • मानवीय दयालुता का आधार: एक ऐसे भविष्य की कल्पना करें जहाँ तकनीक और निगरानी बहुत अधिक हो। ऐसे में गलतियाँ करने वालों के प्रति दयालुता और उन्हें सुधार का मौका देना और भी महत्वपूर्ण हो जाएगा। यह आयत एक ऐसे समाज का निर्माण करने में मदद करेगी जो न्यायपूर्ण होने के साथ-साथ दयालु भी है।

निष्कर्ष:
कुरआन की आयत 4:16 एक संतुलित और दयालु कानूनी दर्शन प्रस्तुत करती है। यह नैतिक जिम्मेदारी में लैंगिक समानता स्थापित करती है, सजा के बजाय सुधार पर जोर देती है, और पश्चाताप व क्षमा को समाज का एक अनिवार्य हिस्सा बनाती है। यह अतीत में एक क्रांतिकारी सुधार थी, वर्तमान में 'कैंसल कल्चर' के खिलाफ एक दवा है और भविष्य के लिए एक दयालु और न्यायपूर्ण समाज का आधार है।