﴿إِلَّا الَّذِينَ يَصِلُونَ إِلَىٰ قَوْمٍ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُم مِّيثَاقٌ أَوْ جَاؤُوكُمْ حَصِرَتْ صُدُورُهُمْ أَن يُقَاتِلُوكُمْ أَوْ يُقَاتِلُوا قَوْمَهُمْ ۚ وَلَوْ شَاءَ اللَّهُ لَسَلَّطَهُمْ عَلَيْكُمْ فَلَقَاتَلُوكُمْ ۚ فَإِنِ اعْتَزَلُوكُمْ فَلَمْ يُقَاتِلُوكُمْ وَأَلْقَوْا إِلَيْكُمُ السَّلَمَ فَمَا جَعَلَ اللَّهُ لَكُمْ عَلَيْهِمْ سَبِيلًا﴾
(अरबी आयत)
शब्दार्थ (Meaning of Words):
إِلَّا الَّذِينَ: सिवाय उन लोगों के
يَصِلُونَ: जो मिल जाते हैं
إِلَىٰ قَوْمٍ: किसी ऐसे समुदाय से
بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُم مِّيثَاقٌ: जिनके और तुम्हारे बीच समझौता (अहद) है
أَوْ جَاؤُوكُمْ: या वे तुम्हारे पास आएँ
حَصِرَتْ صُدُورُهُمْ: जिनके सीने तंग हो गए हों (असमंजस में हों)
أَن يُقَاتِلُوكُمْ: कि तुमसे लड़ें
أَوْ يُقَاتِلُوا قَوْمَهُمْ: या अपनी ही कौम से लड़ें
وَلَوْ شَاءَ اللَّهُ: और यदि अल्लाह चाहता
لَسَلَّطَهُمْ عَلَيْكُمْ: तो उन्हें तुम पर सत्ता दे देता
فَلَقَاتَلُوكُمْ: तो वे अवश्य तुमसे लड़ते
فَإِنِ اعْتَزَلُوكُمْ: फिर यदि वे अलग हो जाएँ तुमसे
فَلَمْ يُقَاتِلُوكُمْ: और तुमसे न लड़ें
وَأَلْقَوْا إِلَيْكُمُ السَّلَمَ: और तुम्हारी ओर शांति का हाथ बढ़ाएँ
فَمَا جَعَلَ اللَّهُ: तो अल्लाह ने नहीं बनाया है
لَكُمْ عَلَيْهِمْ سَبِيلًا: तुम्हारे लिए उन पर कोई रास्ता (उनसे लड़ने का)
सरल अर्थ (Simple Meaning):
"सिवाय उन लोगों के जो किसी ऐसे समुदाय से मिल जाएँ जिनके और तुम्हारे बीच समझौता है, या वे तुम्हारे पास इस हालत में आएँ कि उनके सीने तंग हों (असमंजस में हों) कि तुमसे लड़ें या अपनी ही कौम से लड़ें। और यदि अल्लाह चाहता तो उन्हें तुम पर सत्ता दे देता, तो वे अवश्य तुमसे लड़ते। फिर यदि वे तुमसे अलग हो जाएँ और तुमसे न लड़ें और तुम्हारी ओर शांति का हाथ बढ़ाएँ, तो अल्लाह ने तुम्हारे लिए उन पर कोई रास्ता (लड़ने का) नहीं बनाया है।"
(यह आयत पिछली आयत 4:89 में दिए गए सामान्य आदेश के अपवाद (Exception) बताती है)
आयत का सन्देश और शिक्षा (Lesson from the Verse):
यह आयत इस्लाम में युद्ध नीति के महत्वपूर्ण अपवाद और मानवीय दया के सिद्धांत स्थापित करती है:
समझौतों का सम्मान: जो लोग उस समुदाय से जुड़े हों जिसके साथ मुसलमानों का शांति समझौता (अहद) है, उनके साथ शत्रुता नहीं की जा सकती। इस्लाम अंतरराष्ट्रीय समझौतों और वादों का पूरा सम्मान करता है।
मजबूरी की स्थिति में दया: जो लोग मजबूरी में हों, जिनका दिल लड़ाई के खिलाफ हो, जो अपने ही लोगों से लड़ने को तैयार न हों - ऐसे लोगों के साथ नरमी और समझदारी से पेश आना चाहिए।
शांति के इच्छुक लोगों के साथ शांति: जो लोग लड़ाई छोड़कर शांति का हाथ बढ़ाएँ, उनके साथ शांति और अमन से रहना चाहिए। इस्लाम जबरदस्ती लड़ाई थोपने का समर्थन नहीं करता।
अल्लाह की मर्जी का एहसास: "यदि अल्लाह चाहता तो वे तुमसे लड़ते" - यह बात मुसलमानों को याद दिलाती है कि जीत-हार अल्लाह के हाथ में है और उन्हें घमंड नहीं करना चाहिए।
मुख्य शिक्षा: इस्लाम की युद्ध नीति कठोरता और दया के बीच एक संतुलन बनाती है। यह समझौतों का सम्मान करती है, मजबूर लोगों के साथ दया दिखाती है, और शांति के इच्छुक लोगों के साथ शांति स्थापित करती है।
अतीत, वर्तमान और भविष्य के सन्दर्भ में प्रासंगिकता (Relevance to Past, Present and Future)
1. अतीत में प्रासंगिकता (Past Context):
यह आयत उन लोगों के बारे में उतरी थी जो मक्का के काफिरों के समुदाय से तो थे, लेकिन उनके दिल में लड़ाई के लिए कोई जगह नहीं थी। कुछ लोग मजबूरी में काफिरों के साथ रह रहे थे, लेकिन वे चाहते थे कि मुसलमानों से लड़ाई न हो। इस आयत ने मुसलमानों को ऐसे लोगों के साथ दया और समझदारी से पेश आने का आदेश दिया।
2. वर्तमान में प्रासंगिकता (Contemporary Relevance):
आज के समय में यह आयत बेहद प्रासंगिक है:
अंतरराष्ट्रीय संबंध: आज के वैश्विक समाज में देशों के बीच शांति समझौते (Treaties) होते हैं। यह आयत हमें सिखाती है कि ऐसे समझौतों का पालन करना और दूसरे देशों के नागरिकों के साथ शांति से रहना हमारा धार्मिक दायित्व है।
शरणार्थियों और अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार: जो लोग युद्धग्रस्त क्षेत्रों से भागकर आते हैं या जो अल्पसंख्यक समुदायों में रह रहे हैं, उनके साथ दया और सम्मान का व्यवहार करना चाहिए, बशर्ते वे शांति के पक्ष में हों।
आंतरिक संघर्ष में मध्यस्थता: किसी भी समाज में ऐसे लोग हो सकते हैं जो हिंसा और संघर्ष के खिलाफ हों। उन्हें सुरक्षा और सम्मान देना चाहिए।
3. भविष्य के लिए सन्देश (Message for the Future):
यह आयत भविष्य की सभी पीढ़ियों के लिए एक स्थायी शांति मार्गदर्शक है:
शांति सह-अस्तित्व का सिद्धांत: यह आयत भविष्य के मुसलमानों को सिखाएगी कि शांति और सह-अस्तित्व इस्लाम की मूलभूत शिक्षा है। आक्रामकता और उग्रवाद इस्लाम की शिक्षा नहीं है।
मानवाधिकारों का संरक्षण: यह आयत निर्दोष लोगों, शांति चाहने वालों और समझौतों का सम्मान करने की शिक्षा देकर मानवाधिकारों के संरक्षण में मदद करेगी।
संघर्ष समाधान: भविष्य के संघर्षों में, यह आयत मुसलमानों को यह सिखाएगी कि शांति के लिए तैयार लोगों के साथ शांति स्थापित करना और मजबूर लोगों के साथ दया दिखाना धार्मिक रूप से उचित है।
निष्कर्ष (Conclusion):
कुरआन की यह आयत इस्लाम की शांति और मानवता की छवि को स्पष्ट करती है। यह हमें सिखाती है कि इस्लाम आक्रामक युद्ध का समर्थन नहीं करता। यह समझौतों का सम्मान, मजबूर लोगों के प्रति दया, और शांति के इच्छुक लोगों के साथ शांति स्थापित करने का आदेश देता है। एक मोमिन का कर्तव्य है कि वह हर स्थिति में न्याय और दया का संतुलन बनाए रखे।