यहाँ कुरआन की दूसरी सूरह, अल-बक़ारह की दसवीं आयत (2:10) का पूर्ण विस्तृत व्याख्या हिंदी में प्रस्तुत है।
कुरआन 2:10 - "फी कुलूबिहिम मरदुन फ जरबहुमुल्लाहु बि मरदिहिम व लहुम अज़ाबुन अलीमु बिमा कानू यक्जिबून" (فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ فَزَادَهُمُ اللَّهُ مَرَضًا ۖ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ بِمَا كَانُوا يَكْذِبُونَ)
हिंदी अर्थ: "उनके दिलों में (आस्थाहीनता का) रोग है, तो अल्लाह ने उनके रोग में और वृद्धि कर दी और उनके लिए दर्दनाक यातना है, उस झूठ के कारण जो वे बोला करते थे।"
यह आयत मुनाफिक़ीन (पाखंडियों) के विवरण की श्रृंखला को जारी रखते हुए उनकी आंतरिक बीमारी, उसके परिणाम और अंतिम सजा की ओर इशारा करती है। यह एक गहन मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक सत्य को उजागर करती है।
आइए, इस आयत को शब्द-दर-शब्द और उसके गहन अर्थों में समझते हैं।
1. शब्दार्थ विश्लेषण (Word-by-Word Analysis)
फी कुलूबिहिम (Fee quloobihim): "उनके दिलों में है" (In their hearts is)
मरदुन (Maradun): "एक बीमारी" (A disease)
फ जरबहुमुल्लाहु (Fa zaadahumullahu): "तो अल्लाह ने उन्हें बढ़ा दिया" (So Allah increased them)
बि मरदिहिम (Bi maradihim): "उनकी बीमारी में" (In their disease)
व लहुम (Wa lahum): "और उनके लिए है" (And for them is)
अज़ाबुन अलीमुन (Azaabun aleem): "एक दर्दनाक यातना" (A painful punishment)
बिमा कानू यक्जिबून (Bimaa kaanoo yakziboon): "उसके कारण जो वे झूठ बोलते थे" (Because of what they used to lie)
2. गहन अर्थ और संदेश (In-depth Meaning & Message)
यह आयत तीन चरणों में मुनाफिक़ की दुर्दशा का वर्णन करती है:
1. आंतरिक बीमारी: दिल का रोग (The Internal Disease: Disease of the Heart)
"फी कुलूबिहिम मरदुन" - "उनके दिलों में रोग है।"
यह कोई शारीरिक बीमारी नहीं है। यह एक आध्यात्मिक और नैतिक बीमारी है। इस रोग में शामिल हैं:
संदेह (Shak): ईमान और सत्य के प्रति शक की बीमारी।
कपट (Nifaaq): दिखावा और पाखंड की बीमारी।
लालच (Hirs): दुनियावी फायदे के लिए ईमान को दाँव पर लगाना।
डर (Khauf): लोगों का डर अल्लाह के डर से बड़ा होना।
यह बीमारी उन्हें सच्चाई को स्वीकार करने और दिखावे को छोड़ने से रोकती है।
2. दैवीय नियम: बीमारी में वृद्धि (The Divine Law: Increase in the Disease)
"फ जरबहुमुल्लाहु बि मरदिहिम" - "तो अल्लाह ने उनके रोग में और वृद्धि कर दी।"
यह अल्लाह की एक प्राकृतिक और न्यायसंगत व्यवस्था है। जब कोई इंसान लगातार बुराई, झूठ और पाखंड को चुनता है, तो उसका दिल और कठोर होता जाता है। उसकी बुराई की आदत और गहरी हो जाती है।
अल्लाह का "बढ़ा देना" एक दंडात्मक कार्रवाई है। चूंकि उन्होंने स्वेच्छा से गुमराही चुनी, अल्लाह ने उन्हें उनकी गुमराही में और छोड़ दिया। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति गंदगी में पड़ा रहे और उसके शरीर पर और कीड़े पड़ जाएँ। यह उसकी अपनी पसंद का नतीजा है।
3. अंतिम परिणाम: दर्दनाक यातना (The Ultimate Consequence: Painful Punishment)
"व लहुम अज़ाबुन अलीमुन" - "और उनके लिए दर्दनाक यातना है।"
यह यातना मुख्यतः आख़िरत (परलोक) में होगी। कुरआन बताता है कि मुनाफिकों के लिए जहन्नम की सबसे निचली और सबसे कठोर सजा है।
"अलीम" शब्द विशेष रूप से तीव्र शारीरिक और मानसिक पीड़ा को दर्शाता है।
4. यातना का कारण: लगातार झूठ बोलना (The Cause of Punishment: Persistent Lying)
"बिमा कानू यक्जिबून" - "उसके कारण जो वे झूठ बोलते थे।"
यहाँ "झूठ" से तात्पर्य है:
अल्लाह, उसके पैगंबर और आख़िरत के बारे में झूठा विश्वास रखना।
लोगों के सामने ईमान का झूठा दावा करना।
अपनी वास्तविक मंशाओं और इरादों को छिपाना।
यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उनकी यातना उनके अपने कर्मों का प्रत्यक्ष परिणाम है, न कि कोई मनमानी सजा।
3. व्यावहारिक जीवन में महत्व (Practical Importance in Daily Life)
आत्म-निरीक्षण का आह्वान: यह आयत हर इंसान को अपने दिल का जायजा लेने के लिए कहती है। कहीं हमारे दिल में भी तो संदेह, दिखावा या लालच का रोग नहीं है? हमें इस आध्यात्मिक बीमारी से बचने के लिए ईमान और इखलास (शुद्धता) को मजबूत करना चाहिए।
कर्मों के परिणाम का सिद्धांत: यह आयत बताती है कि बुराई का चुनाव करने से बुराई ही बढ़ती है। एक छोटा सा पाप अगर दोहराया जाए, तो वह एक बड़ी बीमारी बन सकता है। इसलिए, गुनाहों से तौबा करना और अच्छाई की ओर लौटना जरूरी है।
ईमानदारी की अहमियत: यह आयत सिखाती है कि ईमानदारी सिर्फ एक नैतिक गुण नहीं है, बल्कि दिल की सेहत के लिए जरूरी है। झूठ और पाखंड इंसान को अंदर से खोखला कर देते हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
कुरआन की आयत 2:10 मुनाफिक़ीन की आध्यात्मिक यात्रा का एक भयानक चित्रण करती है। यह बताती है कि कैसे एक आंतरिक बीमारी (संदेह और पाखंड) लगातार बुरे चुनावों के कारण बढ़ती जाती है और अंततः एक दर्दनाक सजा की ओर ले जाती है। यह आयत हमें चेतावनी देती है कि ईमान के मामले में कोई समझौता या दिखावा घातक है। इसका सीधा संदेश है: अपने दिल की बीमारियों को नजरअंदाज न करें, उनका इलाज ईमान की शुद्धता और सच्चे तौबा से करें, नहीं तो नुकसान स्वयं का ही होगा।