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कुरआन की आयत 2:141 की पूरी व्याख्या

 यहाँ कुरआन की आयत 2:141 की पूरी व्याख्या हिंदी में प्रस्तुत की जा रही है:

﴿تِلْكَ أُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۖ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُم مَّا كَسَبْتُمْ ۖ وَلَا تُسْـَٔلُونَ عَمَّا كَانُوا۟ يَعْمَلُونَ﴾

हिंदी अनुवाद:

"वह एक समुदाय था जो बीत गया। उसके लिए वह (प्रतिफल) है जो उसने कमाया और तुम्हारे लिए वह (प्रतिफल) है जो तुमने कमाया। और तुमसे उनके कर्मों के बारे में सवाल नहीं किया जाएगा।"


शब्द-दर-शब्द अर्थ (Arabic Words Meaning):

  • تِلْكَ : वह

  • أُمَّةٌ : एक समुदाय / जमात

  • قَدْ : निश्चित रूप से

  • خَلَتْ : बीत गया / गुज़र गया

  • لَهَا : उसके लिए

  • مَا : जो

  • كَسَبَتْ : उसने कमाया

  • وَلَكُم : और तुम्हारे लिए

  • مَّا : जो

  • كَسَبْتُمْ : तुमने कमाया

  • وَلَا : और नहीं

  • تُسْـَٔلُونَ : तुमसे पूछा जाएगा

  • عَمَّا : उसके बारे में

  • كَانُوا۟ : वे करते थे

  • يَعْمَلُونَ : कर्म / अमल


पूर्ण व्याख्या (Full Explanation):

यह आयत पिछली आयतों में वर्णित ऐतिहासिक घटनाओं का निष्कर्ष प्रस्तुत करती है और एक महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित करती है। जब यहूदी अपने पूर्वजों (इब्राहीम, इसहाक, याकूब आदि) के नाम पर गर्व करते हुए यह दावा करते थे कि वे उनके सच्चे अनुयायी हैं, तो अल्लाह इस आयत के माध्यम से उन्हें (और सभी मनुष्यों को) एक मौलिक सबक सिखाता है।

आयत के तीन मुख्य सिद्धांत:

  1. अतीत की समाप्ति (तिल्का उम्मतुन कद खलत):

    • "वह एक समुदाय था जो बीत गया।"

    • "तिल्का उम्मतुन" से तात्पर्य हज़रत इब्राहीम, इसमाईल, इसहाक, याकूब और उनकी धर्मपरायण संतानों के उस समुदाय से है जो सच्चे इस्लाम पर थे।

    • "कद खलत" का अर्थ है कि उनका युग समाप्त हो चुका है। वे अपना जीवन जी चुके हैं और अब इतिहास का हिस्सा हैं।

  2. व्यक्तिगत जिम्मेदारी का सिद्धांत (लहा मा कसबत व लकुम मा कसबतुम):

    • "उसके लिए वह (प्रतिफल) है जो उसने कमाया और तुम्हारे लिए वह (प्रतिफल) है जो तुमने कमाया।"

    • यह इस आयत का मुख्य संदेश है। अल्लाह स्पष्ट करता है कि हर व्यक्ति या समुदाय केवल अपने ही कर्मों का फल भोगेगा।

    • पूर्वजों के नेक कर्मों से उनकी संतानों को कोई लाभ नहीं मिलेगा, और न ही पूर्वजों को उनकी संतानों के बुरे कर्मों का दंड मिलेगा।

    • "कसब" (कमाया) शब्द बहुत सटीक है। यह दर्शाता है कि हर इंसान अपने प्रतिफल का स्वयं "कारीगर" है।

  3. जिम्मेदारी की सीमा (व ला तुस'लूना अम्मा कानू यअ'मलून):

    • "और तुमसे उनके कर्मों के बारे में सवाल नहीं किया जाएगा।"

    • इसका दोहरा अर्थ है:

      • यहूदियों से उनके पूर्वजों के कर्मों के बारे में सवाल नहीं किया जाएगा।

      • यहूदियों के पूर्वजों से यहूदियों के कर्मों के बारे में सवाल नहीं किया जाएगा।

    • हर व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों का जवाबदेह है।


शिक्षा और सबक (Lesson and Moral):

  • पैतृक गौरव का अंत: केवल पूर्वजों के नेक होने पर गर्व करना और उसी पर निर्भर रहना बेकार है। असली मूल्य अपने स्वयं के कर्मों का है।

  • व्यक्तिगत जवाबदेही: इस्लाम व्यक्तिगत जवाबदेही का धर्म है। कोई किसी के पापों का भारी नहीं बनेगा और न ही किसी के सवाब का हकदार बिना अमल के बनेगा।

  • वर्तमान पर ध्यान: अतीत के गौरव में जीने के बजाय, वर्तमान में अच्छे कर्म करने पर ध्यान देना चाहिए।

  • न्याय का सिद्धांत: अल्लाह का न्याय पूर्ण रूप से निष्पक्ष होगा, जिसमें हर व्यक्ति को उसके अपने कर्मों का हिसाब देना होगा।


अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत (Past) में प्रासंगिकता: यह आयत मदीना के यहूदियों के लिए एक सीधा संदेश थी कि इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के नाम पर घमंड करना बंद करो और स्वयं अच्छे कर्म करो।

  • वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:

    • सामाजिक चुनौती: आज भी कई समुदायों में जाति, वंश या पैतृक हैसियत के आधार पर श्रेष्ठता का दावा किया जाता है। यह आयत उस मानसिकता को खत्म करती है।

    • व्यक्तिगत प्रेरणा: यह आयत हर इंसान को प्रेरित करती है कि वह अपने कर्मों को दुरुस्त करे, क्योंकि अंततः वही उसे बचा सकते हैं।

    • धार्मिक अंधविश्वास: कुछ लोग सोचते हैं कि संतों या पैगंबरों का सहारा लेने से वे बच जाएँगे। यह आयत उस अंधविश्वास को दूर करती है।

  • भविष्य (Future) में प्रासंगिकता: यह आयत क़यामत तक इंसानियत के लिए एक स्थायी न्यायिक सिद्धांत के रूप में काम करेगी:

    • न्याय का आधार: यह हमेशा याद दिलाती रहेगी कि अल्लाह के यहाँ न्याय का आधार व्यक्तिगत कर्म होंगे, न कि पारिवारिक संबंध।

    • प्रेरणा का स्रोत: यह भविष्य की पीढ़ियों को यह प्रेरणा देती रहेगी कि वे अपने जीवन में अच्छे कर्मों का संचय करें।

    • समानता का दर्शन: यह सिद्धांत मानव समाज में वास्तविक समानता और न्याय की नींव रखता है।

यह आयत मनुष्य को उसकी वास्तविक स्थिति का बोध कराती है और उसे अपने भाग्य का निर्माता स्वयं बनने का संदेश देती है। यह इस्लाम के न्यायसंगत और तर्कसंगत स्वरूप को प्रस्तुत करती है।