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क़ुरआन 2:147 (सूरह अल-बक़रह) - पूर्ण व्याख्या

 

1. आयत का अरबी पाठ (Arabic Verse)

الْحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِينَ

2. शब्दार्थ (Word-by-Word Meaning)

  • الْحَقُّ: सच्चाई (The Truth)

  • مِن رَّبِّكَ: तेरे रब की तरफ से (is from your Lord)

  • فَلَا: तो नहीं (so do not)

  • تَكُونَنَّ: अवश्य हो जाना (ever be)

  • مِنَ الْمُمْتَرِينَ: संदेह करने वालों में से (of those who doubt)

3. आयत का पूर्ण व्याख्या (Full Explanation in Hindi)

यह आयत बहुत ही संक्षिप्त है, लेकिन इसका भावार्थ अत्यंत गहरा और शक्तिशाली है। यह पिछली कई आयतों के क्रम का सारांश और एक दृढ़ निष्कर्ष प्रस्तुत करती है।

पिछली आयतों (2:144-146) में, अल्लाह ने तीन महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट की थीं:

  1. किब्ले के बदलने का स्पष्ट आदेश।

  2. अहले-किताब (यहूदियों और ईसाइयों) की हठधर्मिता को उजागर किया कि वे चमत्कार देखने के बावजूद भी मानने वाले नहीं हैं।

  3. यह साबित किया कि वे पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) को अपनी किताबों से उसी स्पष्टता से पहचानते हैं जैसे अपने बेटों को, लेकिन फिर भी जानबूझकर सच्चाई को छुपाते हैं।

इस पूरे संदर्भ के बाद, अल्लाह अपने पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को और पूरी उम्मत को यह आश्वासन और आदेश देता है: "सच्चाई तेरे रब की तरफ से है, अतः तू कदापि संदेह करने वालों में से न हो।"

इस आयत में दो मुख्य बिंदु हैं:

1. पूर्ण और अंतिम आश्वासन (The Ultimate Assurance): "सच्चाई तेरे रब की तरफ से है।" यह एक सर्वोच्च और निर्विवाद सत्य की घोषणा है। यह कहना है कि हे पैगंबर! आपके ऊपर जो वह्य (कुरआन) उतरी है, जो आदेश दिए गए हैं (जैसे किब्ला बदलना), वह सब पूर्ण सत्य है। इसकी सत्यता के लिए किसी और के स्वीकार या इनकार की आवश्यकता नहीं है। यह सत्य अपने आप में पूर्ण है क्योंकि इसका स्रोत स्वयं अल्लाह है।

2. स्पष्ट और सख्त निर्देश (The Clear and Stern Directive): "अतः तू कदापि संदेह करने वालों में से न हो।" यहाँ 'ल' और 'न' के प्रयोग (فَلَا تَكُونَنَّ) से बहुत ही दृढ़ और सख्त निषेध का भाव आता है। अल्लाह पैगंबर को संबोधित कर रहा है, लेकिन संदेश पूरी उम्मत के लिए है। यह एक सुरक्षा कवच और मार्गदर्शन है। जब आपके सामने विरोधियों के तर्क, उनकी झूठी बातें और उनके इनकार का माहौल हो, तो आपके दिल में सच्चाई के बारे में जरा-सा भी संदेह नहीं आना चाहिए।

4. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral)

  1. अल्लाह के वादे पर दृढ़ विश्वास: एक मोमिन का ईमान इस बात पर दृढ़ होना चाहिए कि अल्लाह का आदेश और उसकी वही ही पूर्ण सत्य है, भले ही पूरी दुनिया उसके खिलाफ क्यों न खड़ी हो जाए।

  2. संदेह से सुरक्षा: इंसान को शैतान और विरोधियों के बहकावे में आकर सत्य के बारे में कभी संदेह नहीं करना चाहिए। संदेह ईमान को कमजोर करता है।

  3. स्वतंत्र पहचान: मुसलमान को अपनी पहचान और अपने सिद्धांतों पर इतना मजबूत होना चाहिए कि दूसरों के इनकार और आलोचना से उसके निश्चय में कोई कमी न आए।

  4. ज्ञान का स्रोत: सच्चे ज्ञान का एकमात्र स्रोत अल्लाह की ओर से प्रदत्त मार्गदर्शन (कुरआन और सुन्नत) है। बाकी सब कुछ गौण है।

5. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future)

  • अतीत (Past) में प्रासंगिकता:

    • इस आयत ने पैगंबर (सल्ल.) और सहाबा के दिलों को मजबूती दी। जब मदीना के यहूदी और मुनाफिक किब्ला बदले जाने पर सवाल उठा रहे थे और संदेह फैला रहे थे, तो यह आयत एक दिव्य आश्वासन बनकर आई कि तुम जिस मार्ग पर हो, वह पूर्णतः सही है।

    • इसने उनके ईमान में एक नई दृढ़ता और अटल विश्वास पैदा किया।

  • वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:

    • संदेह के युग में मार्गदर्शन: आज का मुसलमान एक ऐसे युग में जी रहा है जहाँ उसके धर्म, उसके पैगंबर और उसकी किताब पर हर तरफ से संदेह और आलोचना की जा रही है। इंटरनेट और मीडिया पर इस्लाम के खिलाफ झूठी जानकारियाँ और भ्रांतियाँ फैलाई जा रही हैं। ऐसे में, यह आयत हर मोमिन के लिए एक मजबूत सहारा है, जो उसे याद दिलाती है कि "अल-हक्कु मिन रब्बिक" – सच्चाई तेरे रब की तरफ से है, इन शोर-शराबे और बकवास से डरने की जरूरत नहीं।

    • आंतरिक संघर्ष: व्यक्तिगत जीवन में जब कोई मुसलमान आधुनिकता और धर्म के बीच झूलता हुआ महसूस करता है, तो यह आयत उसे एक स्पष्ट दिशा देती है कि सत्य का पैमाना अल्लाह का आदेश है, न कि दुनिया की राय।

    • धार्मिक असमंजस: विभिन्न इस्लामिक विद्वानों के अलग-अलग फतवों और मतभेदों के कारण जब कोई साधारण मुसलमान असमंजस में पड़ जाता है, तो उसके लिए यह आयत एक बुनियादी सिद्धांत देती है कि कुरआन और सही सुन्नत में जो स्पष्ट सच्चाई है, उस पर दृढ़ रहो।

  • भविष्य (Future) के लिए प्रासंगिकता:

    • शाश्वत सिद्धांत: यह आयत कयामत तक आने वाली हर पीढ़ी के लिए एक शाश्वत सिद्धांत स्थापित करती है: "सत्य का स्रोत केवल अल्लाह है और एक मोमिन का काम उस पर दृढ़ विश्वास के साथ अडिग रहना है।"

    • भविष्य की चुनौतियाँ: भविष्य में जब और भी नए-नए संदेह और विचारधाराएँ उभरेंगी, यह आयत हर मोमिन के लिए एक कसौटी का काम करेगी। वह अपने विश्वासों को इस आधार पर परख सकता है कि क्या यह "मिन रब्बिक" (अपने रब की तरफ से) है या नहीं।

    • आशा और दृढ़ता का संदेश: यह आयत भविष्य के हर मुसलमान को यह आश्वासन और हौसला देती रहेगी कि तुम्हारा मार्ग सत्य है, इसलिए संदेह और हतोत्साहित होने की बजाय, दृढ़ता और विश्वास के साथ आगे बढ़ो।

निष्कर्ष: कुरआन की यह संक्षिप्त आयत पूरी उम्मत के लिए विश्वास की एक अटूट नींव है। यह हमें सिखाती है कि बाहरी विरोध और आंतरिक संदेहों से ऊपर उठकर, अल्लाह के सत्य पर अडिग रहना ही एक मोमिन की सच्ची पहचान और उसकी सफलता का रहस्य है।