إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَمَاتُوا وَهُمْ كُفَّارٌ أُولَٰئِكَ عَلَيْهِمْ لَعْنَةُ اللَّهِ وَالْمَلَائِكَةِ وَالنَّاسِ أَجْمَعِينَ
2. शब्दार्थ (Word-by-Word Meaning)
إِنَّ الَّذِينَ: बेशक जो लोग (Indeed, those who)
كَفَرُوا: इनकार करते रहे (disbelieved)
وَمَاتُوا: और मर गए (and died)
وَهُمْ: और वे (while they)
كُفَّارٌ: इनकार करने वाले ही थे (were disbelievers)
أُولَٰئِكَ: वे ही लोग (those are the ones)
عَلَيْهِمْ: उन पर (upon them)
لَعْنَةُ اللَّهِ: अल्लाह की लानत है (is the curse of Allah)
وَالْمَلَائِكَةِ: और फ़रिश्तों की (and the angels)
وَالنَّاسِ: और लोगों की (and the people)
أَجْمَعِينَ: सबके सब (all together)
3. आयत का पूर्ण व्याख्या (Full Explanation in Hindi)
यह आयत पिछली दो आयतों (159 और 160) का एक गंभीर और दुखद अंत प्रस्तुत करती है। आयत 159 में सत्य को छुपाने वालों पर लानत की चेतावनी दी गई थी। आयत 160 में उनके लिए माफी का दरवाज़ा खोला गया था, अगर वे तौबा करके सुधर जाएँ। अब, इस आयत 161 में अल्लाह उस स्थिति का वर्णन करता है जब कोई व्यक्ति उस मौके को ठुकरा देता है और अपने इनकार की हालत में ही दुनिया से चला जाता है।
आयत का विस्तृत विवरण:
1. अपरिवर्तनीय स्थिति: "बेशक जो लोग इनकार करते रहे और मर गए, और वे इनकार करने वाले ही थे।"
यहाँ "इनकार" से तात्पर्य सिर्फ आस्था न रखने से नहीं है, बल्कि उस स्पष्ट सत्य का जानबूझकर और हठपूर्वक इनकार करने से है जो उन तक पहुँच चुका था (जैसे अहले-किताब के लिए पैगंबर मुहम्मद सल्ल. का आना)।
"मर गए और वे इनकार करने वाले ही थे" यह वाक्यांश बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब है कि उन्होंने मौत से पहले तौबा का अवसर नहीं लिया। उनका अंतिम पल उसी अवस्था में आया जिसमें वे जीवन भर रहे – ईमान के इनकार में। यही वह निर्णायक बिंदु है जो अनंत दुख और अनंत सुख के बीच का फैसला करता है।
2. त्रिस्तरीय शाप: "वे ही लोग हैं जिन पर अल्लाह की लानत है और फ़रिश्तों की और सभी लोगों की।"
इन लोगों पर तीन तरफा और पूर्ण लानत (दया से दूरी) का अंजाम बताया गया है:
अल्लाह की लानत: यह सबसे बड़ी और मौलिक लानत है। इसका मतलब है कि अल्लाह की रहमत, उसकी कृपा और उसकी मर्जी उनसे सदा के लिए दूर हो गई है। वह उनसे नाराज और अप्रसन्न है।
फरिश्तों की लानत: फरिश्ते, जो अल्लाह के आज्ञाकारी बंदे और उसके कामों के निष्पादक हैं, ऐसे लोगों से दूरी चाहते हैं और उनके लिए अल्लाह से माफी की दुआ भी नहीं करते, बल्कि उन पर लानत भेजते हैं।
सभी लोगों की लानत: यहाँ "लोग" से तात्पर्य है – आखिरत के मैदान में इकट्ठा हुए सभी इंसान। वहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जो उनके बचाव में खड़ा हो। नबी, सिद्दीक, शहीद और सालेह मोमिन सभी इस बात पर सहमत होंगे कि ये लोग लानत के पात्र हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य को जानकर भी ठुकरा दिया और दूसरों को भी रास्ते से रोका।
4. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral)
तौबा में देरी न करो: जीवन अनिश्चित है। मौत कभी भी आ सकती है। इसलिए, गुनाह और इनकार की हालत में जीवन बिताना एक भारी जुआ है। तौबा को कल पर नहीं टालना चाहिए।
अंतिम समय का महत्व: इंसान की आखिरी स्थिति (हाल) बहुत महत्वपूर्ण है। ईमान की हालत में मरना ही सफलता है। इस आयत से पता चलता है कि अगर कोई काफिर भी तौबा करले, तो उसकी तौबा कबूल है, लेकिन अगर वह कुफ्र पर ही मर गया, तो उसके लिए सब कुछ खत्म हो गया।
अल्लाह की दया और न्याय का संतुलन: अल्लाह बहुत दयावान है (जैसा कि आयत 160 में है), लेकिन वह बहुत न्यायी भी है। वह हर किसी को माफी का मौका देता है, लेकिन जो लोग जानबूझकर उस मौके को ठुकराते हैं, उनके लिए उसका न्याय बहुत सख्त है।
ईमान की अहमियत: दुनिया की हर सफलता ईमान के सामने महत्वहीन है। असली सफलता ईमान की हालत में इस दुनिया से जाना है।
5. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future)
अतीत (Past) में प्रासंगिकता:
यह आयत उन यहूदी विद्वानों और मक्का के मुशरिकों के लिए एक स्पष्ट चेतावनी थी जो सत्य को जानते-समझते हुए भी हठपूर्वक इनकार कर रहे थे। यह उन्हें आगाह करती थी कि अगर तुमने इसी हालत में मौत को पकड़ लिया, तो तुम्हारा अंजाम बहुत भयानक होगा।
इसने नए मुसलमानों के ईमान को मजबूत किया और उन्हें यह समझाया कि सत्य पर डटे रहने का फल कितना महान है और उससे विमुख होने का परिणाम कितना भयावह।
वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:
आस्थाहीनता के युग में चेतावनी: आज का युग ऐसा है जहाँ लोग अल्लाह, आखिरत और धर्म के मामले में उदासीन या इनकार करने वाले हैं। यह आयत उन सभी के लिए एक जगाने वाली घंटी है कि यह जीवन स्थायी नहीं है और एक दिन मौत आकर सब कुछ खत्म कर देगी। अगर ईमान नहीं लाए, तो अनंत काल की हानि होगी।
मृत्यु के प्रति जागरूकता: यह आयत हर मोमिन को याद दिलाती है कि उसका अंतिम लक्ष्य ईमान की हालत में मरना है। इसलिए, उसे हमेशा अल्लाह से दुआ करते रहना चाहिए कि "हे अल्लाह, हमें ईमान पर ही मौत दे।"
दावत-ए-दीन की प्रेरणा: यह आयत मुसलमानों को दूसरों तक सत्य पहुँचाने (दावत) के लिए प्रेरित करती है, ताकि कोई भी इंसान अज्ञानता या हठ के कारण इस भयानक अंजाम तक न पहुँचे।
भविष्य (Future) के लिए प्रासंगिकता:
शाश्वत सत्य: जब तक दुनिया कायम है, यह आयत एक शाश्वत सत्य को दोहराती रहेगी – ईमान के बिना मृत्यु सबसे बड़ी असफलता है।
चेतावनी का सिद्धांत: भविष्य में चाहे कितनी भी नई विचारधाराएँ आ जाएँ, यह आयत हर युग के इंसान को यह चेतावनी देती रहेगी कि अल्लाह और आखिरत के इनकार का अंतिम परिणाम पूरी सृष्टि की लानत और अल्लाह की नाराजगी है।
आशा और भय का संतुलन: यह आयत, आयत 160 के साथ मिलकर, भविष्य के हर मोमिन के दिल में एक स्वस्थ संतुलन बनाए रखेगी – अल्लाह की दया से आशा और उसके अजाब (दंड) से डर। यह डर उसे गुनाहों से बचाएगा और आशा उसे तौबा और सुधार के लिए प्रेरित करेगी।
निष्कर्ष: कुरआन की यह आयत मानव जीवन की सबसे बड़ी चेतावनी है। यह सिखाती है कि दुनिया की सारी सफलताएँ तब बेकार हैं जब इंसान का अंत ईमान से विहीन हो। यह आयत हमें जीवन की नश्वरता और आखिरत की शाश्वतता का एहसास कराती है और हमें हमेशा अल्लाह से प्रार्थना करने को कहती है कि हमारा अंत ईमान पर ही हो। यह अल्लाह के न्याय की गंभीरता को दर्शाती है, जो उसकी दया का ही दूसरा पहलू है।