यह आयत पिछली दो आयतों (174-175) में वर्णित लोगों के अपराध और उसके कारण को और स्पष्ट करती है। यह बताती है कि उनके इस व्यवहार का मूल कारण क्या है और अल्लाह की किताब के साथ उनका कैसा रिश्ता बन गया है।
1. पूरी आयत अरबी में:
ذَٰلِكَ بِأَنَّ اللَّهَ نَزَّلَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ ۗ وَإِنَّ الَّذِينَ اخْتَلَفُوا فِي الْكِتَابِ لَفِي شِقَاقٍ بَعِيدٍ
2. आयत के शब्दार्थ (Word-to-Word Meaning):
ذَٰلِكَ (ज़ालिका) : यह (उनका यह हाल)
بِأَنَّ (बि-अन्न) : इसलिए है कि
اللَّهَ (अल्लाह) : अल्लाह ने
نَزَّلَ (नज़्ज़ला) : उतारा है
الْكِتَابَ (अल-किताब) : किताब को
بِالْحَقِّ (बिल-हक्क) : सच्चाई के साथ
وَإِنَّ (व इन्न) : और निश्चित रूप से
الَّذِينَ (अल्लज़ीना) : वे लोग जिन्होंने
اخْتَلَفُوا (इख्तलफू) : मतभेद किया
فِي الْكِتَابِ (फ़िल किताब) : किताब में
لَفِي (ला-फ़ी) : अवश्य ही (गहरे) में हैं
شِقَاقٍ (शिक़ाक़िन) : फूट / विरोध / मतभेद
بَعِيدٍ (बअदीन) : दूर तक फैले हुए
3. आयत का पूरा अर्थ और व्याख्या:
अर्थ: "यह (उनकी दुर्गति) इसलिए है कि अल्लाह ने किताब को सच्चाई के साथ उतारा है, और निश्चय ही जिन लोगों ने (उस) किताब में मतभेद किया है, वे गहरे मतभेद (और विरोध) में पड़े हुए हैं।"
व्याख्या:
यह आयत दो मौलिक बातों को स्थापित करती है:
1. किताब का स्रोत और स्वभाव (The Source and Nature of the Book): "ज़ालिका बि-अन्नल्लाहा नज़्ज़लल किताबा बिल-हक्क"
पिछली आयतों में जिन लोगों की निंदा की गई थी, उनकी उस दुर्गति का मूल कारण यह है कि अल्लाह ने जो किताब उतारी है, वह "बिल-हक्क" (सच्चाई के साथ) उतरी है।
इसका मतलब है:
यह किताब पूर्णतः सत्य है, इसमें कोई झूठ, भ्रम या विरोधाभास नहीं है।
यह हक (सत्य) लेकर आई है और बातिल (असत्य) को खत्म करने आई है।
यह एक निर्णायक और अंतिम सत्य है जिसे स्वीकार करना या अस्वीकार करना हर इंसान के लिए जिम्मेदारी है।
जब सत्य स्पष्ट और निर्णायक रूप से आ जाए, तो उससे मुंह मोड़ने वालों का पाप और भी बढ़ जाता है। उनकी सजा का कारण यही स्पष्ट सत्य है।
2. मतभेद करने वालों की वास्तविक स्थिति (The Real State of Those Who Create Differences): "व इन्नल्लज़ीनख्तलफू फ़िल किताबा ल-फ़ी शिक़ाक़िन बअदीन"
यहाँ उन लोगों की वास्तविक हालत बताई गई है जो सत्य को जानने के बाद भी उसमें मतभेद पैदा करते हैं। वे सिर्फ एक छोटे से विवाद में नहीं हैं, बल्कि "शिक़ाक़िन बअद" में हैं।
"शिक़ाक़" का अर्थ है:
गहरा और मौलिक मतभेद।
फूट और विभाजन।
सत्य के प्रति जानबूझकर विरोध और हठधर्मिता।
"बअद" (दूर) इस बात को दर्शाता है कि यह मतभेद सतही नहीं है, बल्कि बहुत गहरा और व्यापक है। वे सत्य से इतनी दूर जा चुके हैं कि उनके और हक के बीच एक बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई है।
सरल शब्दों में: अल्लाह की किताब स्पष्ट सत्य लेकर आई। लेकिन जिन लोगों ने इस स्पष्ट सत्य में भी मतभेद पैदा किए (जैसे उसे छिपाया, तोड़-मरोड़कर पेश किया, या उसके खिलाफ षड्यंत्र रचा), वह असल में सत्य के साथ एक गहरे युद्ध और टकराव में उलझ गए हैं। उनकी पूरी सोच और कर्म सत्य के विपरीत दिशा में चले गए हैं।
4. शिक्षा और सबक (Lesson):
कुरआन सत्य है: कुरआन कोई साधारण किताब नहीं है। यह अल्लाह की तरफ से उतरा हुआ अंतिम और निर्णायक सत्य है। इस पर ईमान लाना और इसका पालन करना हर इंसान का कर्तव्य है।
मतभेद का पाप: जानबूझकर धर्म में मतभेद पैदा करना एक बहुत बड़ा पाप है। यह सिर्फ एक गलती नहीं, बल्कि सत्य के प्रति एक गहरी दुश्मनी है।
एकता का महत्व: इस्लाम एकता और भाईचारे का धर्म है। किताब में मतभेद पैदा करने से समुदाय में फूट पैदा होती है और लोग सच्चाई से दूर हो जाते हैं।
सत्य को स्वीकार करो: जब सत्य स्पष्ट हो जाए, तो उससे मुंह मोड़ने या उसमें तर्क-वितर्क करने के बजाय, उसे विनम्रता से स्वीकार कर लेना चाहिए।
5. अतीत, वर्तमान और भविष्य से प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) के लिए:
यहूदी विद्वान: उन्होंने तौरात में दिए गए स्पष्ट संकेतों और आदेशों के बावजूद मतभेद पैदा किए। कुछ ने पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) को पहचाना, जबकि अधिकांश ने अपने नेताओं के दबाव में उनसे इनकार कर दिया और किताब में हेराफेरी की। इस तरह वे सत्य से दूर एक गहरे विरोध में चले गए।
वर्तमान (Present) के लिए:
धार्मिक फूट: आज भी कई मुस्लिम समुदायों और संप्रदायों में कुरआन और इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं को लेकर गहरे मतभेद हैं। हर कोई अपनी-अपनी व्याख्या को सही बताता है और दूसरों को गुमराह मानता है, जबकि कुरआन एक स्पष्ट और संपूर्ण मार्गदर्शन है।
कुरआन से दूरी: बहुत से मुसलमान कुरआन को सिर्फ तिलावत (पढ़ने) की किताब समझते हैं, उसके अर्थों और आदेशों पर अमल नहीं करते। यह भी एक प्रकार का किताब में "इख्तिलाफ" (मतभेद) ही है क्योंकि उनका अमल किताब के आदेश से मेल नहीं खाता।
गैर-मुस्लिमों के साथ संवाद: गैर-मुस्लिम जो कुरआन की सच्चाई को समझने के बजाय उसमें दोष निकालते हैं या उसकी गलत व्याख्या करते हैं, वे भी इसी "शिक़ाक़े बअद" (गहरे मतभेद) में हैं।
सेक्युलर विचारधारा: जो लोग यह कहते हैं कि "धर्म का सत्य व्यक्तिगत मामला है, कोई एक सत्य नहीं है," वे भी इस आयत के दायरे में आते हैं, क्योंकि वे किताब के स्पष्ट और निर्णायक सत्य को नकार रहे हैं।
भविष्य (Future) के लिए:
सत्य के साथ संघर्ष: भविष्य में जैसे-जैसे दुनिया और भी भौतिकवादी और सापेक्षवादी (Relativist) होगी, कुरआन के निरपेक्ष सत्य (Absolute Truth) के साथ लोगों का टकराव और भी बढ़ेगा। यह "शिक़ाक़" (गहरा मतभेद) और भी स्पष्ट होता जाएगा।
शाश्वत मार्गदर्शन: जब तक कुरआन रहेगा, यह आयत एक स्थायी सत्य को दोहराती रहेगी: अल्लाह की किताब हक (सत्य) है। इस सत्य के साथ कोई मतभेद नहीं किया जा सकता। जो लोग ऐसा करेंगे, वे हमेशा गलत और सत्य से दूर ही रहेंगे। यह मुसलमानों को एकता और सत्य पर डटे रहने की प्रेरणा देती रहेगी।