यह आयत इस्लाम में "बिर्र" (सच्ची पुण्यात्मकता/धार्मिकता) की एक सारगर्भित और व्यावहारिक परिभाषा प्रस्तुत करती है। यह स्पष्ट करती है कि असली ईमान और नेकी सिर्फ बाहरी रीति-रिवाजों या दिखावे का नाम नहीं है, बल्कि यह आस्था, इबादत और सामाजिक नैतिकता का एक सुंदर समन्वय है।
1. पूरी आयत अरबी में:
لَّيْسَ الْبِرَّ أَن تُوَلُّوا وُجُوهَكُمْ قِبَلَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ وَلَٰكِنَّ الْبِرَّ مَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَالْمَلَائِكَةِ وَالْكِتَابِ وَالنَّبِيِّينَ وَآتَى الْمَالَ عَلَىٰ حُبِّهِ ذَوِي الْقُرْبَىٰ وَالْيَتَامَىٰ وَالْمَسَاكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ وَالسَّائِلِينَ وَفِي الرِّقَابِ وَأَقَامَ الصَّلَاةَ وَآتَى الزَّكَاةَ وَالْمُوفُونَ بِعَهْدِهِمْ إِذَا عَاهَدُوا ۖ وَالصَّابِرِينَ فِي الْبَأْسَاءِ وَالضَّرَّاءِ وَحِينَ الْبَأْسِ ۗ أُولَٰئِكَ الَّذِينَ صَدَقُوا ۖ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُتَّقُونَ
2. आयत के शब्दार्थ (Word-to-Word Meaning):
لَّيْسَ (लैसा) : नहीं है
الْبِرَّ (अल-बिर्र) : नेकी/सच्ची धार्मिकता
أَن تُوَلُّوا (अन तुवल्लू) : यह कि तुम मोड़ो
وُجُوهَكُمْ (वुजूहकुम) : अपने चेहरे
قِبَلَ (किबला) : की ओर
الْمَشْرِقِ (अल-मश्रिक़) : पूर्व
وَالْمَغْرِبِ (वल-मग़रिब) : और पश्चिम
وَلَٰكِنَّ (व लाकिन्न) : बल्कि
الْبِرَّ (अल-बिर्र) : नेकी/सच्ची धार्मिकता (वह है)
مَنْ (मन) : जिसने (वह व्यक्ति)
آمَنَ (आमना) : ईमान लाया
بِاللَّهِ (बिल्लाह) : अल्लाह पर
وَالْيَوْمِ الْآخِرِ (वल-यौमिल आख़िर) : और आखिरत के दिन पर
وَالْمَلَائِكَةِ (वल-मलाइकति) : और फ़रिश्तों पर
وَالْكِتَابِ (वल-किताब) : और (अल्लाह की) किताब पर
وَالْنَّبِيِّينَ (वन-नबिय्यीन) : और नबियों पर
وَآتَى (व आता) : और दिया
الْمَالَ (अल-माल) : धन
عَلَىٰ حُبِّهِ (अला हुब्बिही) : अपनी पसंद (धन से प्यार) के बावजूद
ذَوِي الْقُرْبَىٰ (ज़विल कुरबा) : रिश्तेदारों को
وَالْيَتَامَىٰ (वल-यतामा) : और अनाथों को
وَالْمَسَاكِينَ (वल-मसाकीन) : और मिस्कीनों (गरीबों) को
وَابْنَ السَّبِيلِ (वब्निस सबील) : और मुसाफिर को
وَالسَّائِلِينَ (वस-साइलीन) : और माँगने वालों को
وَفِي الرِّقَابِ (व फ़िर रिक़ाब) : और (आज़ादी के लिए) गर्दनों में (गुलामों की)
وَأَقَامَ (व अक़ामा) : और कायम किया
الصَّلَاةَ (अस-सलात) : नमाज़
وَآتَى (व आता) : और दिया
الزَّكَاةَ (अज़-ज़कात) : ज़कात
وَالْمُوفُونَ (वल-मूफून) : और पूरा करने वाले
بِعَهْدِهِمْ (बि-अहदिहिम) : अपने वादे को
إِذَا عَاهَدُوا (इज़ा आहदू) : जब वादा किया
وَالصَّابِرِينَ (वस-साबिरीन) : और सब्र करने वाले
فِي الْبَأْسَاءِ (फ़िल बअसा) : तंगी (गरीबी) में
وَالضَّرَّاءِ (वद-दर्रा) : और बीमारी/मुसीबत में
وَحِينَ الْبَأْسِ (व हीनल बअस) : और लड़ाई के समय (जेहाद)
أُولَٰئِكَ (उलाइका) : वे ही लोग हैं
الَّذِينَ صَدَقُوا (अल्लज़ीना सदक़ू) : जिन्होंने सच्चाई दिखाई
وَأُولَٰئِكَ (व उलाइका) : और वे ही हैं
هُمُ (हुमु) : वह
الْمُتَّقُونَ (अल-मुत्तक़ून) : परहेज़गार/मुत्तक़ी
3. आयत का पूरा अर्थ और व्याख्या:
अर्थ: "नेकी (सच्ची धार्मिकता) यह नहीं है कि तुम अपने चेहरे पूर्व या पश्चिम की ओर फेर लो, बल्कि असली नेकी तो उसकी है जो अल्लाह, आख़िरत के दिन, फ़रिश्तों, किताब और नबियों पर ईमान लाया, और धन से प्यार के बावजूद उसे रिश्तेदारों, अनाथों, मिस्कीनों, मुसाफिरों, माँगने वालों और गुलामों की आज़ादी पर खर्च किया, और नमाज़ कायम की और ज़कात दी, और जब वादा करते हैं तो उसे पूरा करते हैं, और तंगी, बीमारी और जेहाद के समय धैर्य से काम लेते हैं। यही लोग हैं जिन्होंने (अपने ईमान में) सच्चाई दिखाई और यही लोग हकीकत में परहेज़गार (मुत्तक़ी) हैं।"
व्याख्या:
इस आयत में "अल-बिर्र" (सच्ची धार्मिकता) को तीन स्तंभों में परिभाषित किया गया है:
1. सही आस्था (Correct Belief - ईमान):
सबसे पहले एक मजबूत आस्थात्मिक आधार जरूरी है। इसमें ईमान के सभी मूल सिद्धांत शामिल हैं:
अल्लाह पर
आख़िरत के दिन पर (पुनर्जीवन और हिसाब-किताब)
फ़रिश्तों पर
अल्लाह की सभी किताबों पर
अल्लाह के सभी नबियों पर (बिना किसी भेदभाव के)
2. सामाजिक जिम्मेदारी (Social Responsibility - इहसान):
ईमान का सबूत समाज के प्रति सेवा और दया से दिया जाता है। यहाँ एक महत्वपूर्ण शर्त है: "आता अल-माला अला हुब्बिही" - अपने धन से प्यार के बावजूद देना। असली नेकी तब है जब इंसान उस चीज़ में से दे जो उसे स्वयं पसंद हो। इस दान का दायरा बहुत व्यापक है:
रिश्तेदार: परिवार और रिश्तेदारों के अधिकारों का ख्याल रखना।
अनाथ: समाज के सबसे कमजोर वर्ग की देखभाल।
मिस्कीन (गरीब): जिसके पास अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ नहीं है।
मुसाफिर: बेघर यात्री की मदद करना।
माँगने वाला: जो सहायता के लिए पूछे, उसकी इज्जत के साथ मदद करना।
गुलामों की आज़ादी: मानवाधिकारों की रक्षा और मानवता की सेवा का सर्वोच्च रूप।
3. व्यक्तिगत अनुशासन (Personal Discipline - इबादत और चरित्र):
नमाज़ और ज़कात: अल्लाह के साथ संबंध को मजबूत रखना। नमाज़ व्यक्तिगत इबादत है और ज़कात सामाजिक इबादत।
वादा पूरा करना: ईमानदारी और विश्वसनीयता। यह व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन की नींव है।
संकट में धैर्य (सब्र): ईमान की असली परीक्षा मुश्किल वक्त में होती है।
तंगी (गरीबी) में
बीमारी और मुसीबत में
जेहाद (अल्लाह की राह में संघर्ष) के समय
आयत का अंत इस बात पर जोर देता है कि जो लोग उपरोक्त गुण रखते हैं, वही "सच्चे ईमान वाले" हैं और वही असली "मुत्तक़ी" (परहेज़गार/अल्लाह से डरने वाले) हैं।
4. शिक्षा और सबक (Lesson):
धर्म एक संपूर्ण जीवन प्रणाली है: ईमान सिर्फ कुछ रीति-रिवाजों का नाम नहीं है। यह आस्था, इबादत, नैतिकता और सामाजिक सेवा का सुंदर मेल है।
दिखावे से सावधान: किबले की ओर मुंह करना एक आदेश है, लेकिन असली बात दिल का सही होना है। दिखावे की धार्मिकता का कोई मोल नहीं है।
मानव सेवा ही अल्लाह की सेवा है: अनाथ, गरीब और जरूरतमंद की मदद करना ईमान का एक अनिवार्य हिस्सा है।
व्यक्तित्व का संतुलन: एक सच्चा मोमिन संकट में धैर्यवान, वादे का पक्का, इबादतगुज़ार और दानशील होता है।
5. अतीत, वर्तमान और भविष्य से प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) के लिए:
इस आयत का संदेश सार्वभौमिक है। यह यहूदियों और ईसाइयों के उन दावों का खंडन करती है जो सिर्फ अपने किबले (यरूशलम) को ही सही मानते थे और दिखावे की इबादत करते थे।
वर्तमान (Present) के लिए:
धार्मिक कट्टरपंथ: आज कई लोग धर्म को सिर्फ दाढ़ी, टोपी और कपड़े तक सीमित समझते हैं, जबकि यह आयत बताती है कि असली धर्म तो अनाथ की देखभाल और गरीब की मदद है।
सामाजिक न्याय: यह आयत एक आदर्श वेलफेयर स्टेट (कल्याणकारी राज्य) का खाका पेश करती है जहाँ हर जरूरतमंद का ख्याल रखा जाता है।
व्यापारिक नैतिकता: "वादा पूरा करना" आज के व्यापार जगत के लिए एक मौलिक सिद्धांत है।
मानसिक स्वास्थ्य: "सब्र" का सिद्धांत आज के तनाव भरे जीवन में मानसिक मजबूती प्रदान करता है।
भविष्य (Future) के लिए:
शाश्वत मार्गदर्शन: चाहे समाज कितना भी आधुनिक क्यों न हो जाए, सच्ची नेकी की यह परिभाषा हमेशा प्रासंगिक रहेगी। अल-बिर्र के ये तीनों स्तंभ - सही आस्था, सामाजिक जिम्मेदारी और व्यक्तिगत अनुशासन - मानवता के लिए एक सदाबहार मार्गदर्शन हैं।