यह आयत पिछली आयतों में चल रहे जिहाद (आत्मरक्षात्मक संघर्ष) के विषय को समाप्त करते हुए इस संघर्ष का स्पष्ट और अंतिम लक्ष्य बताती है। यह सिद्धांत स्थापित करती है कि युद्ध एक सीमित और नैतिक उद्देश्य के लिए है, न कि अनंत संघर्ष के लिए।
1. पूरी आयत अरबी में:
وَقَاتِلُوهُمْ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتْنَةٌ وَيَكُونَ الدِّينُ لِلَّهِ ۖ فَإِنِ انتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ إِلَّا عَلَى الظَّالِمِينَ
2. आयत के शब्दार्थ (Word-to-Word Meaning):
وَقَاتِلُوهُمْ (व क़ातिलूहुम) : और उनसे लड़ो
حَتَّىٰ (हत्ता) : यहाँ तक कि
لَا (ला) : न
تَكُونَ (तकूना) : रहे
فِتْنَةٌ (फ़ित्नतुन) : फितना (अत्याचार, उत्पीड़न)
وَيَكُونَ (व यकूना) : और हो जाए
الدِّينُ (अद-दीनु) : दीन (आज्ञापालन, धर्म)
لِلَّهِ (लिल्लाहि) : अल्लाह के लिए
فَإِنِ (फ़ा इनि) : फिर यदि
انتَهَوْا (इन्तहौ) : वे रुक गए (बंद कर दिया)
فَلَا (फ़ा ला) : तो नहीं है
عُدْوَانَ (उद्वाना) : शत्रुता, आक्रमण
إِلَّا (इल्ला) : सिवाय
عَلَى (अला) : पर
الظَّالِمِينَ (अज़-ज़ालिमीन) : अत्याचारियों के
3. आयत का पूरा अर्थ और व्याख्या:
अर्थ: "और उनसे लड़ो यहाँ तक कि कोई अत्याचार (फितना) न रहे और दीन (आज्ञापालन) पूरी तरह अल्लाह के लिए हो जाए। फिर यदि वे (अत्याचार) बंद कर दें, तो (उनके खिलाफ) कोई शत्रुता नहीं, सिवाय अत्याचारियों के।"
व्याख्या:
यह आयत इस्लामी जिहाद का मुख्य उद्देश्य और उसकी अंतिम सीमा निर्धारित करती है। इसे दो स्पष्ट भागों में समझा जा सकता है:
1. संघर्ष का लक्ष्य (The Goal of the Struggle): "हत्ता ला तकूना फ़ित्नतुन व यकूनद दीनु लिल्लाह"
यहाँ दो लक्ष्य बताए गए हैं जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं:
"ला तकूना फ़ित्नतुन" - फितना समाप्त हो जाए। जैसा कि पिछली आयतों में बताया गया, 'फितना' एक व्यापक शब्द है जिसमें धार्मिक उत्पीड़न, व्यवस्थित अत्याचार, लोगों को उनके धर्म से मजबूरन फेरना और सामाजिक अराजकता शामिल है। इसका अर्थ यह है कि लड़ाई का लक्ष्य उस वातावरण को खत्म करना है जहाँ लोग अत्याचार के डर से अपने विश्वास पर चलने में असमर्थ हैं।
"व यकूनद दीनु लिल्लाह" - और दीन पूरी तरह अल्लाह के लिए हो जाए। इसका सीधा सा अर्थ है कि अल्लाह की इबादत और आज्ञापालन में किसी प्रकार का बाधा या दबाव न रहे। हर व्यक्ति को अपनी इच्छा से अल्लाह की इबादत करने या न करने की स्वतंत्रता हो। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि लोगों को जबरन मुसलमान बनाया जाए, बल्कि इसका अर्थ है कि अल्लाह का कानून और न्याय स्थापित हो ताकि हर व्यक्ति (चाहे वह मुसलमान हो या न हो) शांति और न्याय के साथ रह सके।
2. संघर्ष की समाप्ति (The Cessation of the Struggle): "फ़ा इनि इन्तहौ फ़ला उद्वाना इल्ला अज़-ज़ालिमीन"
जैसे ही उपरोक्त लक्ष्य प्राप्त हो जाता है (यानी अत्याचार बंद हो जाता है और धार्मिक स्वतंत्रता स्थापित हो जाती है), वैसे ही लड़ाई का औचित्य समाप्त हो जाता है।
"फ़ला उद्वाना" - "तो (उनके खिलाफ) कोई शत्रुता नहीं।" यह एक स्पष्ट और सीधा आदेश है। जो लोग अत्याचार बंद कर देते हैं और शांति से रहने को तैयार होते हैं, उनके खिलाफ कोई शत्रुता, आक्रमण या दुश्मनी जायज़ नहीं है।
"इल्ला अलaz-ज़ालिमीन" - "सिवाय अत्याचारियों के।" आखिरी चेतावनी के रूप में, आयत स्पष्ट करती है कि शत्रुता और आक्रमण केवल उन्हीं लोगों के खिलाफ जारी रह सकता है जो अत्याचार जारी रखते हैं और शांति को नष्ट करते हैं।
4. शिक्षा और सबक (Lesson):
युद्ध एक सीमित उपकरण है: इस्लाम में युद्ध का उद्देश्य भूमि या शक्ति हासिल करना नहीं, बल्कि अत्याचार को मिटाना और धार्मिक स्वतंत्रता स्थापित करना है।
शांति सर्वोच्च लक्ष्य है: जैसे ही अत्याचार समाप्त होता है, शांति और सहअस्तित्व स्थापित करना अनिवार्य हो जाता है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार: इस्लाम का लक्ष्य एक ऐसा समाज बनाना है जहाँ हर व्यक्ति बिना किसी डर के अपने विश्वास का पालन कर सके।
न्याय पर आधारित शत्रुता: दुश्मनी व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। जो अत्याचार छोड़ दे, उसके साथ शत्रुता भी छोड़ देनी चाहिए।
5. अतीत, वर्तमान और भविष्य से प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) के लिए:
यह आयत मक्का के कुरैश के खिलाफ लड़ाई का स्पष्ट एजेंडा थी। लड़ाई का उद्देश्य मक्का पर कब्जा करना नहीं, बल्कि वहाँ हो रहे अत्याचार (फितना) को समाप्त करना था। मक्का की विजय के बाद, पैगंबर (स.अ.व.) ने सामान्य माफी की घोषणा करके इस आयत के "फ़ला उद्वाना" (कोई शत्रुता नहीं) के सिद्धांत को Practical रूप में लागू किया।
वर्तमान (Present) के लिए:
आतंकवाद का पूर्ण खंडन: आतंकवादी गुट जो शांतिपूर्ण नागरिकों को निशाना बनाते हैं और शांति के प्रस्तावों को ठुकराते हैं, वे सीधे तौर पर इस आयत के सिद्धांतों के विरुद्ध हैं। उनका उद्देश्य "फितना" को खत्म करना नहीं, बल्कि फैलाना है।
सामूहिक दंड का विरोध: किसी पूरे राष्ट्र या समुदाय के खिलाफ, उनके अत्याचारी शासकों के कारणों की वजह से, शत्रुता रखना इस आयत के विपरीत है। शत्रुता सिर्फ "अज़-ज़ालिमीन" (अत्याचारियों) तक सीमित होनी चाहिए।
धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन: यह आयत उन मुसलमानों के लिए एक मार्गदर्शक है जो अल्पसंख्यक के रूप में रह रहे हैं। वे एक ऐसी व्यवस्था की मांग कर सकते हैं जहाँ "दीनुल्लिल्लाह" हो, यानी उन्हें अपने धर्म का पालन करने की पूरी स्वतंत्रता हो।
शांति वार्ता का महत्व: अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों में, यह आयत मुसलमानों को याद दिलाती है कि यदि दुश्मन शांति और न्याय के सिद्धांतों को स्वीकार कर ले, तो लड़ाई बंद कर देनी चाहिए।
भविष्य (Future) के लिए:
शाश्वत नैतिक कोड: यह आयत कयामत तक मुसलमानों के लिए एक शाश्वत नैतिक और कानूनी कोड के रूप में काम करेगी। यह हमेशा यह सिखाती रहेगी कि "संघर्ष का एक स्पष्ट, नैतिक और सीमित लक्ष्य होना चाहिए। जैसे ही वह लक्ष्य प्राप्त हो जाए, शत्रुता समाप्त हो जानी चाहिए।"
एक आदर्श समाज का खाका: यह आयत भविष्य के एक आदर्श इस्लामी समाज का Vision प्रस्तुत करती है - एक ऐसा समाज जो अत्याचार से मुक्त हो और जहाँ अल्लाह की इबादत (और इसके साथ ही सभी के मूल अधिकार) सुरक्षित हों।