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क़ुरआन की आयत 2:194 की पूर्ण व्याख्या

यह आयत एक बहुत ही महत्वपूर्ण और सार्वभौमिक न्यायिक सिद्धांत स्थापित करती है, जिसे "क़िसास" (प्रतिशोध/समानता) का सिद्धांत कहा जा सकता है। यह विशेष रूप से पवित्र महीने और पवित्र स्थान के संदर्भ में इस सिद्धांत को लागू करती है।

1. पूरी आयत अरबी में:

الشَّهْرُ الْحَرَامُ بِالشَّهْرِ الْحَرَامِ وَالْحُرُمَاتُ قِصَاصٌ ۚ فَمَنِ اعْتَدَىٰ عَلَيْكُمْ فَاعْتَدُوا عَلَيْهِ بِمِثْلِ مَا اعْتَدَىٰ عَلَيْكُمْ ۚ وَاتَّقُوا اللَّهَ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ مَعَ الْمُتَّقِينَ

2. आयत के शब्दार्थ (Word-to-Word Meaning):

  • الشَّهْرُ (अश-शहरु) : महीना

  • الْحَرَامُ (अल-हराम) : पवित्र (जिसमें लड़ाई वर्जित है)

  • بِالشَّهْرِ (बिश-शहरी) : पवित्र महीने के (बदले)

  • الْحَرَامِ (अल-हराम) : पवित्र

  • وَالْحُرُمَاتُ (वल-हुरुमातु) : और सभी पवित्र चीज़ें/सीमाएँ

  • قِصَاصٌ (क़िसासुन) : बदला/समान प्रतिकार है

  • فَمَنِ (फ़ा मani) : फिर जिसने

  • اعْتَدَىٰ (इअ्तदा) : सीमा उल्लंघन किया (अत्याचार किया)

  • عَلَيْكُمْ (अलैकum) : तुम पर

  • فَاعْتَدُوا (फ़इअ्तदू) : तो तुम (भी) सीमा उल्लंघन करो

  • عَلَيْهِ (अलैहि) : उस पर

  • بِمِثْلِ (बि-मिस्लि) : उसी के समान

  • مَا (मा) : जैसा

  • اعْتَدَىٰ (इअ्तदा) : उसने सीमा उल्लंघन किया

  • عَلَيْكُمْ (अलैkum) : तुम पर

  • وَاتَّقُوا (वत्तक़ू) : और डरो

  • اللَّهَ (अल्लाह) : अल्लाह से

  • وَاعْلَمُوا (वअ'लमू) : और जान लो

  • أَنَّ (अन्ना) : कि

  • اللَّهَ (अल्लाह) : अल्लाह

  • مَعَ (मअ) : साथ है

  • الْمُتَّقِينَ (अल-मुत्तक़ीन) : परहेज़गार लोगों के


3. आयत का पूरा अर्थ और व्याख्या:

अर्थ: "पवित्र महीने (की अवहेलना) का बदला पवित्र महीने (की अवहेलना) से है, और सभी पवित्र सीमाओं (के उल्लंघन) का बदला (समान) है। फिर जिसने तुमपर अत्याचार किया, तो तुम भी उसपर उसी प्रकार अत्याचार करो, जैसा अत्याचार उसने तुमपर किया है। और अल्लाह से डरते रहो और जान लो कि अल्लाह डर रखने वालों के साथ है।"

व्याख्या:

यह आयत न्याय के सिद्धांत को बहुत स्पष्ट शब्दों में रखती है। इसे तीन प्रमुख भागों में समझा जा सकता है:

1. विशेष संदर्भ: पवित्र महीने (The Specific Context: The Sacred Month)

  • अरब समाज में चार महीने (ज़िल-क़दह, ज़िल-हिज्जा, मुहर्रम, रजब) युद्धविराम के लिए पवित्र माने जाते थे। अगर कोई कबीला इन महीनों में हमला करता था, तो दूसरा कबीला भी पवित्र महीने का सम्मान भूलकर जवाबी हमला कर देता था, जिससे अराजकता फैल जाती थी।

  • अल्लाह इस आयत में कहता है: अगर दुश्मन ने पवित्र महीने में तुमपर हमला किया, तो तुम्हें भी उसी पवित्र महीने में जवाबी हमला करने का अधिकार है। लेकिन, यह एक अनुमति है, एक आदेश नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें ऐसा करना ही चाहिए। बल्कि, इसका मतलब यह है कि अब तुम पर कोई पाप नहीं होगा अगर तुमने पवित्र महीने की हत्या का बदला लेने के लिए उसी महीने में जवाबी कार्रवाई की।

2. सार्वभौमिक न्याय सिद्धांत (The Universal Principle of Justice): "वल हुरुमातु क़िसास"

  • यह इस आयत का मुख्य सिद्धांत है। "हुरुमात" का अर्थ है सभी पवित्र और निषिद्ध चीजें (जैसे पवित्र महीने, पवित्र स्थान, मानव जीवन, सम्पत्ति आदि)।

  • "क़िसास" का अर्थ है समान प्रतिकार। यानी अगर दुश्मन ने किसी पवित्र सीमा का उल्लंघन किया है, तो तुम्हें भी उतने ही उल्लंघन का अधिकार है, उससे आगे नहीं।

  • "फ़मनि इअ्तदा अलैकुम फइअ्तदू अलैहि बि-मिस्लि मा इअ्तदा अलैकुम" - यह इस सिद्धांत को और स्पष्ट करता है। अगर दुश्मन ने तुम पर अत्याचार किया है, तो तुम भी "बि-मिस्लि" (ठीक उसी के समान) अत्याचार कर सकते हो। तुम आक्रमण को बढ़ा-चढ़ाकर जवाब नहीं दे सकते। यह सिद्धांत आज के अंतरराष्ट्रीय कानून में "Proportionality" (आनुपातिकता) के सिद्धांत के समान है।

3. चेतावनी और आश्वासन (The Warning and the Assurance): "वत्तक़ुल्लाह वअ'लमू अन्नल्लाहा मअल मुत्तक़ीन"

  • इस कठोर न्याय के सिद्धांत के बाद, अल्लाह तुरंत एक चेतावनी देता है: "अल्लाह से डरो।" यानी, इस अधिकार का दुरुपयोग मत करो। न्याय की आड़ में अत्याचारी मत बन जाओ।

  • और फिर एक आश्वासन देता है: "और जान लो कि अल्लाह परहेज़गारों के साथ है।" यानी, जो लोग इन सीमाओं का पालन करते हुए न्याय करेंगे, अल्लाह की मदद और रहमत उनके साथ होगी।


4. शिक्षा और सबक (Lesson):

  • न्याय में समानता: इस्लामी न्याय प्रणाली में बदले की भावना नहीं, बल्कि समानता और न्याय का सिद्धांत है। जैसा किया, वैसा भरा।

  • प्रतिक्रिया में संयम: प्रतिशोध आक्रमण से अधिक नहीं होना चाहिए। यही सच्ची ताकत और नैतिकता है।

  • अल्लाह की निगरानी: हर कर्म अल्लाह की निगरानी में होता है, इसलिए न्याय करते समय भी उससे डरते रहना चाहिए।

  • पवित्रता का सम्मान: जहाँ तक possible हो, पवित्र चीजों का सम्मान बनाए रखना चाहिए, भले ही दुश्मन ने उसका सम्मान न किया हो।


5. अतीत, वर्तमान और भविष्य से प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) के लिए:

    • इस आयत ने जाहिली अरब समाज में प्रचलित अनंत बदले की प्रथा को एक न्यायसंगत और सीमित सिद्धांत में बदल दिया। इसने मुसलमानों को यह अधिकार दिया कि वे पवित्र महीने में हुए हमले का जवाब दे सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्हें संयम बरतने का आदेश भी दिया।

  • वर्तमान (Present) के लिए:

    • अंतरराष्ट्रीय युद्ध कानून: आज का अंतरराष्ट्रीय कानून भी "Proportionality" (आनुपातिकता) के सिद्धांत पर जोर देता है। यानी, किसी हमले के जवाब में इतनी ही शक्ति का प्रयोग करो जितनी जरूरी हो, न कि उससे अधिक। यह आयत इसी सिद्धांत की ओर 1400 साल पहले इशारा कर चुकी है।

    • आतंकवाद का खंडन: आतंकवादी गुट जो निर्दोष नागरिकों की हत्या के जवाब में और अधिक निर्दोषों की हत्या करते हैं, वे सीधे तौर पर "बि-मिस्लि" (उसी के समान) के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। उनकी कार्रवाई प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि कई गुना बड़ा अत्याचार है।

    • व्यक्तिगत जीवन: यदि कोई व्यक्ति आपके साथ बुरा व्यवहार करे, तो इस्लाम सिखाता है कि माफ कर देना बेहतर है। लेकिन अगर न्याय की मांग करें, तो उतना ही जवाब दें, जितना अत्याचार हुआ है। बदले की भावना से आगे बढ़कर कार्य न करें।

  • भविष्य (Future) के लिए:

    • शाश्वत न्याय सिद्धांत: जब तक दुनिया में संघर्ष रहेंगे, यह आयत एक शाश्वत मार्गदर्शक के रूप में काम करेगी। यह हमेशा यह सिखाती रहेगी कि "न्याय की सीमा, अत्याचार की सीमा से आगे नहीं बढ़नी चाहिए।"

    • मानवता के लिए मार्गदर्शन: भविष्य के किसी भी संघर्ष (चाहे वह राष्ट्रों के बीच हो या समुदायों के बीच) में, यह आयत पक्षों को संयम बरतने और प्रतिक्रिया को आनुपातिक रखने की याद दिलाती रहेगी। यह दुनिया को अनावश्यक रक्तपात और अराजकता से बचाने का एक दिव्य समाधान है।