﴿وَالَّذِينَ يُتَوَفَّوْنَ مِنكُمْ وَيَذَرُونَ أَزْوَاجًا وَصِيَّةً لِّأَزْوَاجِهِم مَّتَاعًا إِلَى الْحَوْلِ غَيْرَ إِخْرَاجٍ فَإِنْ خَرَجْنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِي مَا فَعَلْنَ فِي أَنفُسِهِنَّ مِن مَّعْرُوفٍ وَاللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ﴾
सूरतुल बक़ारह (दूसरा अध्याय), आयत नंबर 240
1. अरबी आयत का शब्दार्थ (Word-by-Word Meaning)
| अरबी शब्द | हिंदी अर्थ |
|---|---|
| वल्लज़ीना | और जो लोग |
| युतवफ़्फौना | मर जाते हैं (उनकी मृत्यु हो जाती है) |
| मिनकुम | तुम में से |
| वा यज़रूना | और छोड़ जाते हैं |
| अज़्वाजन | पत्नियों को |
| वसीय्यतन | वसीयत (आदेश) है |
| ली-अज़्वाजिहिम | अपनी पत्नियों के लिए |
| मताअन | सुख-सामग्री (गुज़ारा) |
| इलल हौली | एक वर्ष तक |
| ग़ैरि इख़राजिन | बिना निकाले जाने के (घर से) |
| फ़ा-इन खरजना | फिर अगर वे (पत्नियाँ) स्वयं चली जाएँ |
| फ़ला जुनाहा | तो कोई गुनाह नहीं है |
| अलैकुम | तुमपर |
| फीमा फ़अलना | उस काम में जो उन्होंने किया |
| फी अनफुसिहिन्ना | अपने आप (अपने मामलों) के बारे में |
| मिन मा'रूफ़िन | उचित ढंग से (भलाई के साथ) |
| वल्लाहु | और अल्लाह |
| अज़ीज़ुन | सर्व-शक्तिमान है |
| हकीमुन | तत्वदर्शी (बड़ी हिक्मत वाला) है |
2. आयत का पूर्ण अनुवाद और सरल व्याख्या (Full Translation & Simple Explanation)
अनुवाद: "और तुम में से जो लोग मर जाते हैं और पत्नियों को छोड़ते हैं, उनके लिए यह वसीयत (है कि वे) अपनी पत्नियों के लिए एक वर्ष तक (घर में रहने का) गुज़ारा छोड़ें, और उन्हें (घर से) न निकाला जाए। फिर अगर वे (स्वयं) चली जाएँ, तो जो कुछ भी वे अपने बारे में शरई ढंग से करें, उसमें तुम पर कोई पाप नहीं है। और अल्लाह सामर्थ्यवान, तत्वदर्शी है।"
सरल व्याख्या:
यह आयत उस समय के लिए एक संक्रमणकालीन नियम थी, जब विरासत की विस्तृत व्यवस्था (आयत 2:11-12 में) अभी नहीं उतरी थी। इस आयत का मुख्य उद्देश्य उस जमाने में विधवाओं की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करना था।
विधवा का अधिकार: जब किसी पुरुष की मृत्यु हो जाती थी, तो उसे अपनी पत्नी के लिए "वसीयत" करने का आदेश दिया गया कि वह उसे एक साल तक घर में रहने और गुज़ारा पाने का अधिकार दे।
इद्दत की अवधि का समर्थन: यह एक साल की अवधि विधवा की "इद्दत" (प्रतीक्षा अवधि) से मेल खाती थी। इस दौरान परिवार पर यह ज़िम्मेदारी थी कि वह उसे घर से न निकाले और उसके रहने-खाने का प्रबंध करे।
स्व-निर्णय का अधिकार: अगर विधवा स्वयं इस दौरान घर छोड़कर जाना चाहे (शायद अपने मायके या कहीं और), तो उसे यह अधिकार है। अगर वह शरई रीति-रिवाज़ के अनुसार ऐसा करती है, तो परिवार वालों पर कोई पाप नहीं होगा।
आयत का अंत अल्लाह के दो नामों पर होता है – अल-अज़ीज़ (सर्व-शक्तिमान) और अल-हकीम (तत्वदर्शी)। यह दर्शाता है कि यह आदेश पूर्ण सामर्थ्य और गहरी हिक्मत से भरा हुआ है।
(नोट: बाद में उतरी आयत 2:234 ने इस नियम को संशोधित कर दिया और विरासत की स्पष्ट व्यवस्था लागू हो गई, जहाँ विधवा को उसके पति की विरासत में एक निश्चित हिस्सा मिलता है। इस्लिक कानून में बाद का नियम पहले वाले को रद्द (नासिख) कर देता है।)
3. शिक्षा और संदेश (Lesson and Message)
महिलाओं के अधिकारों की रक्षा: इस आयत का सबसे बड़ा संदेश यह है कि इस्लाम ने उस समय भी महिलाओं, खासकर विधवाओं, के आर्थिक और सामाजिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की पहल की, जब उन्हें कोई अधिकार नहीं दिए जाते थे।
सामाजिक न्याय: यह आयत एक सामाजिक सुरक्षा जाल का काम करती थी। यह सुनिश्चित करती थी कि किसी महिला का पति मरने के बाद भी उसके सिर पर छत और पेट भर खाना बना रहे।
संक्रमणकालीन नियमों की हिक्मत: अल्लाह की हिक्मत देखिए कि उसने समाज को एकदम से बदलाव के लिए तैयार नहीं किया, बल्कि कदम-दर-कदम नियम बनाए। पहले विधवाओं के लिए एक साल का समर्थन अनिवार्य किया गया, और फिर बाद में उनके लिए स्थायी विरासत का हक़ निर्धारित कर दिया गया।
मानवीय गरिमा: विधवा को घर से न निकालने का आदेश उसकी गरिमा और भावनाओं का ख्याल रखता है। मौत के ठीक बाद के दुख और तनाव के समय उसे बेघर होने के डर से मुक्त रखता है।
4. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future)
अतीत में प्रासंगिकता:
जाहिलिय्यत की प्रथा के विरुद्ध: इस्लाम से पहले अरब समाज में विधवाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। उन्हें विरासत में कोई हिस्सा नहीं मिलता था और अक्सर उन्हें परिवार वाले बेघर कर देते थे। यह आयत सीधे तौर पर उस अन्यायपूर्ण प्रथा को खत्म करने की दिशा में पहला कदम थी।
समाज को नई व्यवस्था के लिए तैयार करना: इस आयत ने लोगों के दिलों में यह बात बैठा दी कि विधवाओं की देखभाल करना एक धार्मिक और नैतिक ज़िम्मेदारी है। इसने बाद में आने वाले विरासत के स्थायी नियमों के लिए समाज को मानसिक रूप से तैयार किया।
वर्तमान में प्रासंगिकता:
विरासत के नियम का आधार: हालाँकि यह नियम अब व्यवहार में नहीं है, लेकिन इसकी भावना आज भी जीवित है। यह इस बात का प्रमाण है कि इस्लामी नियम समय के साथ विकसित होते हैं और उनका उद्देश्य मानव कल्याण है।
विधवा सहायता कार्यक्रमों के लिए प्रेरणा: आज भी दुनिया भर में विधवाओं की स्थिति चिंताजनक है। यह आयत मुसलमानों को यह प्रेरणा देती है कि वे विधवाओं की मदद के लिए सामुदायिक सहायता समूह, ट्रस्ट या फंड बनाएँ, ताकि कोई भी महिला अपने पति की मृत्यु के बाद आर्थिक संकट में न फंसे।
मानवीय व्यवहार की शिक्षा: आयत यह सिखाती है कि दुख की घड़ी में लोगों के साथ संवेदनशीलता से पेश आना चाहिए। किसी विधवा को तुरंत उसके घर से निकालना या उसके अधिकारों से वंचित करना इस्लामी शिक्षा के विपरीत है।
भविष्य में प्रासंगिकता:
शाश्वत सिद्धांत: इस आयत का शाश्वत सिद्धांत यह है: "कमजोर वर्गों, विशेष रूप से महिलाओं की सुरक्षा और समर्थन करो।" यह सिद्धांत तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक इंसानी समाज存在 रहेगा।
कानूनी विकास की समझ: भविष्य की पीढ़ियों के लिए, यह आयत इस्लामी कानून (फिक़्ह) के विकास और उसकी लचीली प्रकृति को समझने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह दिखाती है कि इस्लामी नियम स्थिर नहीं हैं बल्कि मानव जाति की बदलती जरूरतों के अनुसार, दिव्य मार्गदर्शन में, विकसित होते रहते हैं।
निष्कर्ष: सूरत अल-बक़ारा की आयत 240, हालाँकि व्यावहारिक रूप से एक संक्रमणकालीन नियम थी, लेकिन इसकी मूल भावना - न्याय, देखभाल और महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा - इस्लाम की एक स्थायी शिक्षा है जो हर युग में प्रासंगिक बनी रहेगी।