﴿يَمْحَقُ اللَّهُ الرِّبَا وَيُرْبِي الصَّدَقَاتِ ۗ وَاللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ أَثِيمٍ﴾
सूरतुल बक़ारह (दूसरा अध्याय), आयत नंबर 276
1. अरबी आयत का शब्दार्थ (Word-by-Word Meaning)
| अरबी शब्द | हिंदी अर्थ |
|---|---|
| यम्हक़ु | मिटा देता है / नष्ट कर देता है |
| अल्लाहु | अल्लाह |
| अर-रिबा | सूद (ब्याज) को |
| व-युरबीस सदक़ात | और बढ़ा देता है दानों को |
| वल्लाहु | और अल्लाह |
| ला युहिब्बु | पसंद नहीं करता |
| कुल्ला | हर |
| कफ्फारिन | बहुत अधिक इनकार करने वाले को |
| असीमिन | बहुत अधिक गुनाहगार को |
2. आयत का पूर्ण अनुवाद और सरल व्याख्या (Full Translation & Simple Explanation)
अनुवाद: "अल्लाह सूद (ब्याज) को मिटा देता है और दानों को बढ़ा देता है। और अल्लाह किसी भी बहुत अधिक इनकार करने वाले, बहुत अधिक गुनाहगार को पसंद नहीं करता।"
सरल व्याख्या:
यह आयत पिछली आयत में दी गई सूद (ब्याज) की चेतावनी को आगे बढ़ाते हुए एक मौलिक आर्थिक और आध्यात्मिक सिद्धांत स्थापित करती है।
1. अल्लाह का आर्थिक नियम:
"यम्हक़ुल्लाहुर रिबा" - "अल्लाह सूद (ब्याज) को मिटा देता है।"
यह एक दिव्य आर्थिक नियम है। सूद से मिला धन भले ही बाहरी तौर पर बढ़ता दिखे, लेकिन अल्लाह की दृष्टि में वह "महक़" (नष्ट, बर्बाद) होता है। इसके कई अर्थ हैं:
दुनिया में ही उस धन से बरकत उठ जाती है।
आखिरत में उसका कोई मूल्य नहीं रहता।
वह धन किसी न किसी तरह (बीमारी, दुर्घटना, नुकसान) से नष्ट हो जाता है।
"व-युरबीस सदक़ात" - "और दानों को बढ़ा देता है।"
यह सूद के विपरीत है। दान देने से धन बाहरी तौर पर कम होता दिखता है, लेकिन अल्लाह उसमें "रब्व" (वृद्धि) कर देता है। इसके भी कई अर्थ हैं:
दुनिया में ही उस धन में अल्लाह बरकत देता है।
आखिरत में उसे सैकड़ों गुना करके दिया जाएगा।
दान देने से इंसान की आत्मा और चरित्र का विकास होता है।
2. अल्लाह की नापसंदगी:
"वल्लाहु ला युहिब्बु कुल्ला कफ्फारिन असीम" - "और अल्लाह किसी भी बहुत अधिक इनकार करने वाले, बहुत अधिक गुनाहगार को पसंद नहीं करता।"
यहाँ "कफ्फार" और "असीम" दो शब्द सूदखोर के लिए इस्तेमाल हुए हैं:
कफ्फार: वह जो अल्लाह के अहकाम (आदेशों) का बहुत ज्यादा इनकार करता है। सूदखोर अल्लाह के स्पष्ट प्रतिबंध को ठुकराता है।
असीम: वह जो बहुत ज्यादा गुनाहगार है। सूद एक बहुत बड़ा गुनाह है।
3. शिक्षा और संदेश (Lesson and Message)
दिव्य आर्थिक व्यवस्था: अल्लाह ने दुनिया में ही एक आर्थिक नियम बना दिया है कि सूद का पैसा बर्बाद होता है और दान का पैसा बढ़ता है।
बरकत और विनाश का सिद्धांत: असली समृद्धि धन की मात्रा में नहीं, बल्कि उसमें बरकत में है। सूद के पैसे में बरकत नहीं होती, जबकि दान और हलाल कमाई के पैसे में बरकत होती है।
अल्लाह की नाराजगी: सूदखोरी सिर्फ एक गुनाह नहीं है, बल्कि यह ऐसा गुनाह है जिससे अल्लाह सख्त नफरत करता है। सूदखोर अल्लाह की नाराजगी का पात्र बन जाता है।
सकारात्मक विकल्प: अल्लाह सिर्फ सूद से मना ही नहीं करता, बल्कि दान देने का एक बेहतर विकल्प भी पेश करता है।
4. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future)
अतीत में प्रासंगिकता:
सूदखोरों के लिए चेतावनी: जब यह आयत उतरी, तो अरब के सूदखोरों के लिए यह एक स्पष्ट चेतावनी थी कि उनका कमाया हुआ धन बर्बाद होगा।
दान को प्रोत्साहन: इस आयत ने मुसलमानों को दान देने के लिए प्रेरित किया क्योंकि उन्हें यकीन दिलाया गया कि उनका दान बर्बाद नहीं जाएगा बल्कि बढ़ेगा।
वर्तमान में प्रासंगिकता:
आधुनिक अर्थव्यवस्था की विफलता: आज की ब्याज आधारित अर्थव्यवस्था में लोग धनवान होने के बावजूद मानसिक तनाव, आर्थिक मंदी और वित्तीय संकटों से जूझ रहे हैं। यह आयत इसका कारण बताती है - ब्याज से कमाई गई दौलत में बरकत नहीं होती।
इस्लामिक फाइनेंस की ओर बढ़ावा: यह आयत मुसलमानों को ब्याज मुक्त बैंकिंग और वित्तीय लेन-देन (इस्लामिक फाइनेंस) की ओर आकर्षित करती है।
फिलांथ्रोपी (दान) को बढ़ावा: यह आयत लोगों को दान और सामाजिक कल्याण के कामों में पैसा लगाने के लिए प्रेरित करती है, क्योंकि इसका प्रतिफल सबसे अच्छा है।
भविष्य में प्रासंगिकता:
शाश्वत आर्थिक नियम: जब तक दुनिया रहेगी, अल्लाह का यह नियम लागू रहेगा कि सूद का पैसा नष्ट होगा और दान का पैसा बढ़ेगा।
वैकल्पिक आर्थिक मॉडल: जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपनी चरम सीमा पर पहुँचेगी, तो यह आयत इस्लामिक आर्थिक व्यवस्था को एक व्यवहारिक विकल्प के रूप में पेश करेगी।
नैतिक अर्थशास्त्र का आधार: भविष्य की अर्थव्यवस्थाएँ नैतिकता पर आधारित होंगी। यह आयत "नैतिक अर्थशास्त्र" का एक मजबूत आधार प्रदान करती है।
निष्कर्ष: आयत 2:276 एक "दिव्य आर्थिक सूत्र" प्रस्तुत करती है। यह सिखाती है कि "असली कमाई वह नहीं जो तुम जमा करते हो, बल्कि वह है जिसमें अल्लाह की बरकत होती है।" सूद का पैसा संख्या में बढ़ता है लेकिन मूल्य में घटता है, जबकि दान का पैसा संख्या में घटता है लेकिन मूल्य में बढ़ता है। यह आयत हर मुसलमान को यह चुनाव करने की प्रेरणा देती है कि वह अल्लाह की बरकत वाले रास्ते (दान और हलाल कमाई) को चुने, न कि उसके गुस्से वाले रास्ते (सूद) को।