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कुरआन की आयत 2:44 (सूरह अल-बक़ारह) का पूर्ण विस्तृत विवरण

 

1. पूरी आयत अरबी में:

أَتَأْمُرُونَ النَّاسَ بِالْبِرِّ وَتَنسَوْنَ أَنفُسَكُمْ وَأَنتُمْ تَتْلُونَ الْكِتَابَ ۚ أَفَلَا تَعْقِلُونَ


2. अरबी शब्दों के अर्थ (Word-to-Word Meaning):

  • أَتَأْمُرُونَ: क्या तुम आदेश देते हो (हुक्म देते हो)

  • النَّاسَ: लोगों को

  • بِالْبِرِّ: नेकी / भलाई का

  • وَتَنسَوْنَ: और भूल जाते हो

  • أَنفُسَكُمْ: अपने आप को (अपनी ज़ात को)

  • وَأَنتُمْ: और तुम (स्वयं)

  • تَتْلُونَ: पढ़ते हो

  • الْكِتَابَ: किताब (तौरात)

  • أَفَلَا: तो क्या तुम नहीं...?

  • تَعْقِلُونَ: अक्ल से काम लेते (समझते हो)


3. पूर्ण विवरण (Full Explanation)

संदर्भ (Context):

यह आयत मदीना के यहूदी धार्मिक नेताओं और विद्वानों (रब्बियों) को एक तीखी फटकार लगाती है। यह आयत पिछली आयतों के क्रम में आती है, जहाँ उन्हें नमाज़ और जकात जैसे आदेश दिए गए थे। इस आयत में अल्लाह उनकी उस कुरीति पर प्रकाश डाल रहा है जहाँ वे दूसरों को तो नेकी का हुक्म देते थे, लेकिन खुद उस पर अमल नहीं करते थे।

आयत के भागों का विश्लेषण:

भाग 1: "क्या तुम लोगों को नेकी (भलाई) का आदेश देते हो...?"

  • अर्थ: यह एक व्यंग्यात्मक प्रश्न है। यहूदी धार्मिक नेता आम यहूदियों और दूसरों को तौरात की शिक्षाओं के अनुसार अच्छे काम करने का आदेश देते थे।

  • "अल-बिर्र" का अर्थ: "बिर्र" एक बहुत व्यापक शब्द है जिसमें हर प्रकार की भलाई, धार्मिकता, ईमानदारी और अच्छे कर्म शामिल हैं।

भाग 2: "...और अपने आपको भूल जाते हो...?"

  • मुख्य आरोप: यह आयत का सबसे महत्वपूर्ण और कठोर भाग है। अल्लाह कह रहा है कि तुम दूसरों को जिस चीज का हुक्म देते हो, उसे खुद भूल जाते हो। यह एक गंभीर पाखंड और आत्म-विस्मृति का द्योतक है।

  • मनोविज्ञान: यह उस मानसिकता को दर्शाता है जहाँ व्यक्ति को दूसरों के दोष तो स्पष्ट दिखाई देते हैं, लेकिन वह अपनी कमियों पर ध्यान नहीं देता।

भाग 3: "...जबकि तुम (खुद) किताब (तौरात) पढ़ते हो?"

  • आरोप को और पैना करना: यह वाक्यांश उनके अपराध को और गंभीर बना देता है। वह सिर्फ अनजान नहीं हैं; बल्कि वे अल्लाह की किताब को पढ़ते-सुनाते हैं, इसलिए उन्हें सच्चाई का पूरा ज्ञान है। ज्ञान होने के बावजूद अमल न करना उनकी जिम्मेदारी को कई गुना बढ़ा देता है।

भाग 4: "तो क्या तुम अक्ल से काम नहीं लेते?"

  • तार्किक चुनौती: यह आयत का अंत एक दिल दहला देने वाले सवाल के साथ होता है। अल्लाह उनकी बुद्धि को संबोधित कर रहा है। मूल रूप से कहा जा रहा है: "क्या यह तार्किक बात है? क्या तुम्हारी अक्ल यही कहती है कि दूसरों को वह सिखाओ जो तुम खुद नहीं करते? क्या तुम्हें अपने इस व्यवहार की मूर्खता नहीं दिखती?"


4. सबक (Lessons)

  1. अमल की प्राथमिकता: दूसरों को उपदेश देने से पहले स्वयं उस पर अमल करना सबसे जरूरी है। व्यक्ति की कार्यरत आचारसंहिता उसके शब्दों से अधिक प्रभावशाली होती है।

  2. पाखंड से सावधानी: यह आयत हर प्रकार के धार्मिक और नैतिक पाखंड की ओर इशारा करती है। ऐसा व्यवहार अल्लाह के नजदीक सबसे नापसंदीदा चीजों में से एक है।

  3. ज्ञान की जिम्मेदारी: ज्ञान रखने वाले व्यक्ति की जिम्मेदारी सबसे अधिक होती है। उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह ज्ञान के अनुसार कार्य करने में सबसे आगे होगा।

  4. आत्म-मंथन की आदत: इंसान को हमेशा अपने आप को जाँचते रहना चाहिए और दूसरों को सलाह देने से पहले अपने आप को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए।


5. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevancy: Past, Present & Future)

अतीत (Past) में प्रासंगिकता:

  • यह आयत सीधे तौर पर उन यहूदी विद्वानों के लिए थी जो पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) पर ईमान लाने से इसलिए रुके हुए थे क्योंकि उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक लाभ का डर था, जबकि वे आम लोगों को सच्चाई अपनाने के लिए कहते थे।

  • यह हर उस समुदाय के धार्मिक नेताओं पर लागू होती है जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए धर्म का इस्तेमाल किया।

वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:

यह आयत आज के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है:

  • धार्मिक नेता और उपदेशक: जो मौलवी, पादरी, या धर्म गुरु दूसरों को इस्लाम या नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं लेकिन खुद उनकी अपनी जिंदगी उन शिक्षाओं के अनुरूप नहीं होती, वे इस आयत के स्पष्ट लक्ष्य हैं।

  • माता-पिता और शिक्षक: माता-पिता जो अपने बच्चों को झूठ न बोलने की सीख देते हैं लेकिन खुद झूठ बोलते हैं, या शिक्षक जो अनुशासन की बात करते हैं लेकिन खुद अनुशासनहीन होते हैं, उनके लिए यह एक सबक है। "दोहरा मापदंड" (Double Standards) इस आयत द्वारा स्पष्ट रूप से निंदनीय है।

  • सामाजिक कार्यकर्ता और नेता: जो नेता जनता से ईमानदारी की अपेक्षा रखते हैं लेकिन खुद भ्रष्टाचार में लिप्त होते हैं, वे भी इसी श्रेणी में आते हैं।

भविष्य (Future) में प्रासंगिकता:

  • जब तक मानव समाज रहेगा, "करनी और कथनी" के अंतर की समस्या बनी रहेगी। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को यह चेतावनी देती रहेगी कि इस पाखंड से बचो।

  • यह आयत हमेशा हर उस व्यक्ति के लिए एक आईना बनी रहेगी जो दूसरों को सुधारने का दावा करता है। यह उसे याद दिलाएगी कि "स्वयं को सुधारो, समाज स्वतः सुधर जाएगा।"

  • यह इस्लाम की यह सुन्दर शिक्षा कि "दावत-ए-दीन" (धर्म का प्रचार) स्वयं के अमल से शुरू होता है, को स्थापित करती रहेगी।