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कुरआन की आयत 2:43 (सूरह अल-बक़ारह) का पूर्ण विस्तृत विवरण

 1. पूरी आयत अरबी में:

وَأَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ وَارْكَعُوا مَعَ الرَّاكِعِينَ


2. अरबी शब्दों के अर्थ (Word-to-Word Meaning):

  • وَأَقِيمُوا: और स्थापित करो / पूरी श्रद्धा के साथ अदा करो

  • الصَّلَاةَ: नमाज़ को

  • وَآتُوا: और अदा करो / दो

  • الزَّكَاةَ: जकात को

  • وَارْكَعُوا: और रुकू करो (झुको)

  • مَعَ: के साथ

  • الرَّاكِعِينَ: रुकू करने वालों के (वे लोग जो नमाज़ पढ़ते हैं)


3. पूर्ण विवरण (Full Explanation)

संदर्भ (Context):

यह आयत पिछली आयतों की श्रृंखला जारी रखती है जो बनी इस्राईल (यहूदियों) को संबोधित हैं। पिछली आयतों में उन्हें कुरआन पर ईमान लाने, सच को झूठ के साथ न मिलाने और सच्चाई को छिपाने से रोका गया था। अब इस आयत में अल्लाह उन्हें सीधे तौर पर दो मौलिक इबादतों (उपासनाओं) का आदेश दे रहा है जो उनके अपने धर्म में भी मौजूद थीं, और जो इस्लाम के पांच स्तंभों में से दो प्रमुख स्तंभ हैं।

आयत के भागों का विश्लेषण:

भाग 1: "और नमाज़ की स्थापना करो..."

  • "अक़ीमू" का अर्थ: यह सिर्फ "पढ़ो" नहीं है, बल्कि "स्थापित करो" है। इसका गहरा अर्थ है नमाज़ को उसके पूर्ण रूप में, उसके सभी नियमों, समयों, और आत्मिक एकाग्रता (Khushoo') के साथ अदा करना।

  • तौरात और नमाज़: यहूदियों में भी प्रार्थना (सलात) की परंपरा थी, लेकिन समय के साथ उसमें ढीलापन आ गया था। अल्लाह उन्हें उसी मूल इबादत को पुनर्जीवित करने का आदेश दे रहा है।

भाग 2: "...और जकात अदा करो..."

  • जकात का अर्थ: यह इस्लाम की अनिवार्य दान-प्रणाली है, जिसमें हर सक्षम मुसलमान अपनी संपत्ति का एक निश्चित हिस्सा (साढ़े दो प्रतिशत) गरीबों और जरूरतमंदों को देता है।

  • तौरात और जकात: यहूदी धर्म में भी "टिथिंग" (दशमांश) की अवधारणा थी, जो संपत्ति का दसवां हिस्सा दान में दिया जाता था। अल्लाह उन्हें उनके अपने धर्म के इस सामाजिक सिद्धांत को फिर से अपनाने का आह्वान कर रहा है।

भाग 3: "...और रुकू करने वालों के साथ रुकू करो।"

  • व्यावहारिक आह्वान: यह एक बहुत ही ठोस और व्यावहारिक निर्देश है। "रुकू" नमाज़ की एक specific मुद्रा (स्थिति) है जिसमें इंसान झुककर अल्लाह की बड़ाई करता है। यहाँ इसका प्रतीकात्मक अर्थ है "मुसलमानों के साथ मिलकर नमाज़ पढ़ो।"

  • सामूहिक पहलू: यह वाक्यांश जोर देकर कहता है कि इबादत सिर्फ एक व्यक्तिगत कर्म नहीं है, बल्कि एक सामूहिक जिम्मेदारी भी है। इस्लाम एकजुटता और भाईचारे पर जोर देता है, और सामूहिक नमाज़ (जमाअत) इसका सबसे बड़ा प्रतीक है।


4. सबक (Lessons)

  1. इबादत का संतुलन: यह आयत इबादत के दो पहलुओं को एक साथ जोड़ती है: व्यक्तिगत और सामाजिक। नमाज़ व्यक्ति और उसके पालनहार के बीच का संबंध है, जबकि जकात समाज और उसके सदस्यों के बीच का। एक सच्चा मोमिन दोनों में संतुलन बनाता है।

  2. व्यावहारिक ईमान: ईमान सिर्फ मान्यताओं का नाम नहीं है, बल्कि उसे व्यवहार में उतारना है। नमाज़ और जकात ईमान के व्यावहारिक प्रमाण हैं।

  3. एकजुटता और अनुशासन: "रुकू करने वालों के साथ रुकू करो" का आदेश मुसलमानों को एकजुट होकर, अनुशासन के साथ अल्लाह की इबादत करने की शिक्षा देता है।

  4. अनुग्रह की निरंतरता: अल्लाह ने पिछले धर्मों में जो अच्छी चीजें थीं, उन्हें इस्लाम में भी जारी रखा, जो दर्शाता है कि अल्लाह की दया और मार्गदर्शन की धारा निरंतर चलती रहती है।


5. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevancy: Past, Present & Future)

अतीत (Past) में प्रासंगिकता:

  • यह आयत 7वीं सदी के यहूदियों के लिए एक सीधा आह्वान थी कि वे पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के नेतृत्व में एकत्रित होकर अल्लाह की इबादत करें और अपने धर्म के मूल सिद्धांतों पर लौट आएँ।

  • यह दर्शाता है कि नमाज़ और जकात जैसी इबादतें नए धर्म की नहीं, बल्कि सभी ईश्वरीय धर्मों में मौजूद रही हैं।

वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:

यह आयत आज के मुसलमानों के लिए अत्यंत प्रासंगिक है:

  • नमाज़ की हकीकत: आज कई मुसलमान नमाज़ को सिर्फ एक शारीरिक रस्म समझते हैं। "अक़ीमुस्सलात" (नमाज़ स्थापित करो) की चुनौती उन्हें याद दिलाती है कि नमाज़ में खुशू (विनम्रता) और एकाग्रता जरूरी है।

  • जकात की सामाजिक भूमिका: आज दुनिया में आर्थिक असमानता एक बड़ी समस्या है। जकात की व्यवस्था को सही ढंग से लागू करके गरीबी, भुखमरी और आर्थिक संकट को काफी हद तक दूर किया जा सकता है। यह इस्लाम का एक प्रैक्टिकल आर्थिक मॉडल है।

  • मस्जिद और एकजुटता: "रुकू करने वालों के साथ रुकू करो" का आदेश मुसलमानों को मस्जिदों में एकत्रित होने और अपने भाईचारे को मजबूत करने की प्रेरणा देता है। यह समाज में फूट और अलगाव के विरुद्ध एक टीका है।

भविष्य (Future) में प्रासंगिकता:

  • जब तक दुनिया रहेगी, इंसान को आध्यात्मिकता (नमाज़) और सामाजिक न्याय (जकात) की आवश्यकता रहेगी। यह आयत इन दोनों जरूरतों का स्थायी समाधान प्रस्तुत करती है।

  • भविष्य की तकनीकी और भौतिकवादी दुनिया में जहाँ अकेलापन और आर्थिक विषमता बढ़ सकती है, वहाँ नमाज़ (आध्यात्मिक जुड़ाव) और जकात (आर्थिक न्याय) और भी महत्वपूर्ण हो जाएँगे।

  • यह आयत हमेशा मानवता को यह सिखाती रहेगी कि एक संतुलित और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण तभी संभव है जब व्यक्ति का अपने पालनहार से संबंध (नमाज़) और समाज के साथ उसका संबंध (जकात) दोनों मजबूत हों।