1. पूरी आयत अरबी में:
ثُمَّ تَوَلَّيْتُم مِّن بَعْدِ ذَٰلِكَ ۖ فَلَوْلَا فَضْلُ اللَّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُ لَكُنتُم مِّنَ الْخَاسِرِينَ
2. अरबी शब्दों का अर्थ (Word-to-Word Meaning):
ثُمَّ: फिर / इसके बाद
تَوَلَّيْتُم: तुमने पीठ फेर ली / मुंह मोड़ लिया
مِّن بَعْدِ: के बाद
ذَٰلِكَ: उस (घटना के)
فَلَوْلَا: तो क्यों नहीं? (यदि नहीं तो)
فَضْلُ: फज़ल (अनुग्रह/कृपा)
اللَّهِ: अल्लाह की
عَلَيْكُمْ: तुम पर
وَرَحْمَتُهُ: और उसकी रहमत
لَكُنتُم: तो अवश्य होते
مِّنَ: में से
الْخَاسِرِينَ: घाटा उठाने वाले
3. पूर्ण विवरण (Full Explanation)
संदर्भ (Context):
यह आयत पिछली आयत (2:63) का सीधा और तार्किक परिणाम है। पिछली आयत में अल्लाह ने बनी इस्राईल को याद दिलाया था कि कैसे उसने उनसे पक्का वादा (मीसाक) लिया था और उन्हें डराने के लिए उनके सिर के ऊपर पहाड़ उठा लिया था। उस भयानक और रौबदार मंजर के बावजूद, बनी इस्राईल ने अपना वादा तोड़ दिया। यह आयत उनकी उसी अकृतज्ञता और विद्रोह का जिक्र करती है।
आयत के भागों का विश्लेषण:
भाग 1: "फिर तुमने उस (घटना) के बाद (भी) पीठ फेर ली..."
"तवल्लैतुम" (तुमने पीठ फेर ली): यह शब्द एक जानबूझकर और दृढ़ इरादे से किया गया कार्य दर्शाता है। यह सिर्फ एक भूल नहीं, बल्कि एक सोची-समझी अवज्ञा थी।
"मिन बअदि ज़ालिक" (उसके बाद): यह वाक्यांश उनकी अकृतज्ञता की गंभीरता को कई गुना बढ़ा देता है। उन्होंने वह सब कुछ देखने और अनुभव करने के बाद भी अल्लाह की अवज्ञा की:
पहाड़ का उठना।
अल्लाह की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण।
गंभीर वादा (मीसाक)।
भाग 2: "...तो यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह (फज़ल) और उसकी दया (रहमत) न होती..."
अल्लाह की दो नेमतें: अल्लाह यहाँ अपनी दो चीजों को गिनाता है जिन्होंने बनी इस्राईल को तुरंत नष्ट होने से बचाया:
"फज़ल" (अनुग्रह): यह अल्लाह की वह सामान्य दया है जो ईमान-कुफ्र सबपर बरसती है। इसमें जीवन, रोज़ी, स्वास्थ्य आदि शामिल हैं।
"रहमत" (दया): यह विशेष दया है जो ईमान वालों के लिए है, जैसे मार्गदर्शन, पैगंबरों का आना, गुनाहों की माफी का मौका देना।
भाग 3: "...तो निश्चय ही तुम घाटा उठाने वालों में से होते।"
"खासिरीन" (घाटा उठाने वाले): इस्लामी शब्दावली में "खुसरान" वह व्यक्ति है जो दुनिया और आखिरत दोनों में घाटे में रहता है। उसका दुनियावी जीवन भी अशांत और आखिरत की जिंदगी भी सदा के लिए बर्बाद हो जाती है।
तार्किक निष्कर्ष: आयत एक तार्किक निष्कर्ष देती है: तुम्हारा कर्म (वादा तोड़ना) तुम्हें "खासिरीन" बनाने के लिए काफी था। केवल अल्लाह की असीम दया ने ही तुम्हें तुरंत नष्ट होने से बचा लिया।
4. सबक (Lessons)
मानव स्वभाव की कमजोरी: इंसान कितनी ही बड़ी चेतावनियाँ और चमत्कार क्यों न देख ले, उसकी प्रकृति में गफलत (भूल) और अवज्ञा का भाव है। इसलिए लगातार याद दिलाने और सचेत करने की आवश्यकता है।
अल्लाह की दया ही सुरक्षा कवच है: इंसान के अपने कर्म उसे नर्क के कगार पर ले जाने के लिए काफी हैं। केवल अल्लाह का "फज़ल" और "रहमत" ही उसे विनाश से बचाती है।
अकृतज्ञता सबसे बड़ा घाटा है: अल्लाह की नेमतों और चेतावनियों के बाद भी उससे मुंह मोड़ना सबसे बड़ा "खुसरान" (नुकसान) है।
दूसरा मौका: अल्लाह की दया यह है कि वह तुरंत सजा नहीं देता, बल्कि इंसान को सुधार का मौका देता है। लेकिन इस मौके का गलत फायदा उठाना और भी बड़ा अपराध है।
5. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevancy: Past, Present & Future)
अतीत (Past) में प्रासंगिकता:
यह आयत बनी इस्राईल को उनकी सबसे बड़ी गलती याद दिला रही थी, ताकि वे अपने व्यवहार पर पश्चाताप करें और पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के मार्गदर्शन को स्वीकार करें।
यह दर्शाती थी कि उनके विनाश न होने का कारण उनकी कोई योग्यता नहीं, बल्कि केवल अल्लाह की दया थी।
वर्तमान (Present) में प्रासंगिकता:
मुसलमानों की स्थिति: आज का मुसलमान भी अल्लाह के अनगिनत एहसानों (कुरआन, पैगंबर, ईमान) के बाद उससे "पीठ फेर" चुका है। हम कुरआन को छोड़कर दुनिया के पीछे भाग रहे हैं, गुनाहों में लिप्त हैं। यह आयत हमें चेतावनी देती है कि हमारी यह हालत "खुसरान" (घाटे) वालों जैसी है।
अल्लाह की दया पर निर्भरता: हमारा जीवन, हमारी रोज़ी, हमारा ईमान - सब अल्लाह के "फज़ल" और "रहमत" पर निर्भर है। अगर वह अपनी दया हटा ले, तो हम तुरंत बर्बाद हो जाएँ।
चेतावनियों को नजरअंदाज करना: आज हमारे आसपास कितनी ही चेतावनियाँ हैं - बीमारी, प्राकृतिक आपदाएँ, मौत - लेकिन हम फिर भी अल्लाह की याद से "पीठ फेरे" हुए हैं।
भविष्य (Future) में प्रासंगिकता:
यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को यह चेतावनी देती रहेगी कि अल्लाह की नेमतों और चमत्कारों के बाद भी उससे मुंह मोड़ना सबसे बड़ा नुकसान है।
यह हमेशा मानवता को यह संदेश देगी कि हमारी सुरक्षा और सफलता केवल अल्लाह की दया पर निर्भर है, हमारे अपने कर्मों पर नहीं।
यह आयत कयामत तक एक स्थायी सत्य स्थापित करती है: "यदि अल्लाह की दया न होती, तो कोई भी इंसान सफल नहीं हो सकता था।"