﴿لَيْسُوا سَوَاءً ۗ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ أُمَّةٌ قَائِمَةٌ يَتْلُونَ آيَاتِ اللَّهِ آنَاءَ اللَّيْلِ وَهُمْ يَسْجُدُونَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat 113)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
لَيْسُوا سَوَاءً (Laisoo sawaa'an): वे सब एक समान नहीं हैं।
مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ (Min Ahlil-Kitaabi): अहले-किताब (यहूदी/ईसाई) में से।
أُمَّةٌ قَائِمَةٌ (Ummatun Qaa'imah): एक ऐसा समुदाय है जो स्थिर/डटा हुआ है।
يَتْلُونَ آيَاتِ اللَّهِ (Yatloona Aayaatillaahi): अल्लाह की आयतों का पाठ करते हैं।
آنَاءَ اللَّيْلِ (Aanaa'al-layli): रात के (विभिन्न) पहरों में।
وَهُمْ يَسْجُدُونَ (Wa hum yasjidoon): और वह (अल्लाह को) सज्दा करते हैं।
पूरी तफ्सीर (व्याख्या) और अर्थ (Full Explanation):
इस आयत का पूरा अर्थ है: "वे (अहले-किताब) सब एक समान नहीं हैं। अहले-किताब में से एक ऐसा समुदाय है जो सच्चाई पर डटा हुआ है; वे रात के पहरों में अल्लाह की आयतों का पाठ करते हैं और सज्दा में गिरते हैं (अल्लाह की इबादत करते हैं)।"
यह आयत पिछली आयत (3:112) में अहले-किताब के बारे में दी गई सामान्य व्याख्या में एक बहुत जरूरी और न्यायसंगत भेद (Distinction) करती है। अल्लाह तआला स्पष्ट करता है कि पूरे समुदाय को एक ही तराजू में तोलना उचित नहीं है।
1. "वे सब एक समान नहीं हैं":
यह एक मौलिक और बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यह सिखाता है कि किसी पूरे धर्म या समुदाय के लोगों के बारे में एक ही राय बना लेना गलत है।
हर समुदाय में अच्छे और बुरे, सच्चे और झूठे, दोनों तरह के लोग होते हैं।
2. "एक ऐसा समुदाय है जो सच्चाई पर डटा हुआ है":
"उम्मतुन क़ाइमह" का मतलब है ऐसा समूह जो सच्चाई के मार्ग पर अडिग और दृढ़ है। वह समझौता नहीं करता।
यह समूह अपनी मूल शिक्षाओं – यानी हज़रत इब्राहीम और मूसा (अलैहिस्सलाम) के शुद्ध एकेश्वरवाद (तौहीद) – पर कायम है।
3. उनकी पहचान के लक्षण:
"रात के पहरों में अल्लाह की आयतों का पाठ करते हैं": इसका मतलब है कि वे अल्लाह के कलाम (उनकी अपनी किताबों की असल शिक्षाओं) को पढ़ते, समझते और उस पर चिंतन करते हैं। वे केवल रस्म अदायगी नहीं करते।
"और सज्दा में गिरते हैं": यह पूर्ण समर्पण और विनम्रता की निशानी है। वे अल्लाह के सामने घुटने टेकते हैं और दिल से उसकी इबादत करते हैं। यह दिखाता है कि उनका ईमान सिर्फ दावा नहीं, बल्कि अमल में दिखता है।
यह समूह उन ईसाई priests और यहूदी rabbis का प्रतिनिधित्व करता था जिन्होंने अपनी किताबों में पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ के आने की भविष्यवाणी को पहचाना और सच्चाई स्वीकार कर ली। अब्दुल्लाह बिन सलाम (एक यहूदी विद्वान जो मुसलमान हो गए) इसके सबसे प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
सबक और शिक्षा (Lesson and Guidance):
न्याय और संतुलन का सिद्धांत: किसी भी समुदाय के बारे में सामान्यीकरण (Generalization) नहीं करना चाहिए। हमें लोगों को उनके व्यक्तिगत चरित्र और कर्मों से आंकना चाहिए।
सच्चाई की तलाश का महत्व: सच्चाई हर जगह और हर व्यक्ति में मिल सकती है। हमें उसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए, चाहे वह किसी भी समुदाय से आए।
ईमान की असली पहचान: असली ईमान वह है जो इबादत और आज्ञापालन में दिखाई दे। सिर्फ जुबानी दावा काफी नहीं है।
अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) में: यह आयत पैग़म्बर ﷺ के समय में उन अहले-किताब के लिए एक श्रद्धांजलि और मान्यता थी, जिन्होंने सच्चाई को स्वीकार किया। साथ ही, यह मुसलमानों को सिखाती थी कि वे सभी यहूदियों और ईसाइयों को एक नजर से न देखें।
वर्तमान (Present) में: आज के दौर में यह आयत बेहद प्रासंगिक है:
इस्लामोफोबिया का मुकाबला: जिस तरह सभी मुसलमानों को आतंकवादी कहना गलत है, उसी तरह सभी यहूदियों या ईसाइयों को एक जैसा समझना भी गलत है। यह आयत सहिष्णुता और न्याय की शिक्षा देती है।
अंतर-धार्मिक संवाद: यह आयत अंतर-धार्मिक बातचीत (Interfaith Dialogue) के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करती है। यह हमें दूसरे धर्मों के उन लोगों का सम्मान करना सिखाती है जो ईमानदारी से अल्लाह की इबादत करते और सच्चाई की तलाश करते हैं।
आंतरिक सुधार: यह आयत हर धर्म के लोगों को अपने भीतर ऐसे ही सच्चे और दृढ़ लोगों के समूह बनने की प्रेरणा देती है।
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत मानव समाज के लिए एक स्थायी मार्गदर्शक सिद्धांत है। यह हमेशा यह याद दिलाती रहेगी कि:
विविधता में एकता को समझो।
हमेशा न्याय और संतुलन बनाए रखो।
सच्चाई की तारीफ करने और उसे स्वीकार करने में कभी संकोच न करो, भले ही वह कहीं से भी आए।
यह आयत हमें एक संतुलित और न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाने की शिक्षा देती है, जो आज की वैश्विक दुनिया में और भी ज्यादा जरूरी है।