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कुरआन की आयत 3:147 की पूरी व्याख्या

 

1. आयत का अरबी पाठ (Arabic Text)

وَمَا كَانَ قَوْلَهُمْ إِلَّا أَنْ قَالُوا رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا وَإِسْرَافَنَا فِي أَمْرِنَا وَثَبِّتْ أَقْدَامَنَا وَانصُرْنَا عَلَى الْقَوْمِ الْكَافِرِينَ

2. आयत का शाब्दिक अर्थ (Word-to-Word Meaning)

  • وَمَا كَانَ قَوْلَهُمْ إِلَّا : और उनकी बात (दुआ) केवल यही थी

  • أَنْ قَالُوا : कि उन्होंने कहा

  • رَبَّنَا : हे हमारे पालनहार

  • اغْفِرْ لَنَا : हमें क्षमा कर दे

  • ذُنُوبَنَا : हमारे पापों को

  • وَإِسْرَافَنَا فِي أَمْرِنَا : और हमारे अपने मामले में हद से गुज़र जाने को

  • وَثَبِّتْ أَقْدَامَنَا : और हमारे कदमों को मज़बूत कर

  • وَانصُرْنَا : और हमारी सहायता कर

  • عَلَى الْقَوْمِ الْكَافِرِينَ : उन काफ़िरों (अनास्था रखने वालों) के मुकाबले में

3. सरल अर्थ (Simple Meaning in Hindi)

"और उन (विश्वासियों) का यही कथन था कि वे कहते थे: 'हे हमारे रब! हमारे गुनाहों को और हमारी ज़्यादतियों को माफ़ कर दे, हमारे कदमों को (संकट के समय) मज़बूत रख और हमें काफ़िरों के मुकाबले में मदद दे।'"


4. आयत की पृष्ठभूमि और सन्दर्भ (Context)

यह आयत उहुद की लड़ाई के संदर्भ में उतरी थी। इस युद्ध में मुसलमानों को शुरुआती सफलता के बाद कुछ गलतियों की वजह से नुकसान उठाना पड़ा था। कई सहाबा (पैगंबर के साथी) शहीद हो गए थे और मुसलमानों का मनोबल टूट रहा था। यह आयत उन विश्वासियों की प्रशंसा करती है जिन्होंने इस मुश्किल घड़ी में हिम्मत नहीं हारी और अल्लाह से एक संपूर्ण दुआ (प्रार्थना) की।


5. आयत से सीख (Lesson from the Verse)

यह आयत एक मुकम्मल दुआ सिखाती है, जो हर मुसीबत से निपटने का तरीका बताती है:

  1. आत्म-समीक्षा (Self-Accountability): सबसे पहले अपनी गलतियों और हद से ज़्यादा बढ़ जाने की कमज़ोरी को स्वीकार करो और अल्लाह से माफ़ी माँगो।

  2. ध्येय पर अडिग रहना (Steadfastness): मुश्किलें आएँ, लेकिन अपने पैर जमाए रखो, डटे रहो। अल्लाह से मदद माँगो कि वह तुम्हें टिकाए रखे।

  3. बाहरी चुनौतियों का सामना (Confronting External Challenges): गलत और अत्याचारी ताकतों के सामने झुकना नहीं है, बल्कि नेकी के रास्ते पर चलते हुए अल्लाह से उनके खिलाफ मदद माँगनी है।


6. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevance: Past, Present & Future)

अतीत में प्रासंगिकता:

  • यह आयत प्रारंभिक मुसलमानों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्ध हुई। इसने उन्हें सिखाया कि असफलता के बाद हार नहीं माननी, बल्कि आत्म-सुधार करके, दृढ़ रहकर और अल्लाह पर भरोसा करके आगे बढ़ना है।

वर्तमान में प्रासंगिकता (Contemporary Audience Perspective):

आज का इंसान भी तनाव, असफलता, नैतिक संघर्ष और बाहरी दबावों से घिरा हुआ है। यह आयत आज के लिए एक शानदार फॉर्मूला पेश करती है:

  • मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health): अपनी गलतियों को स्वीकार करना और माफ़ी माँगना एक बेहतरीन थेरेपी है। यह अतीत के बोझ से मुक्ति दिलाता है।

  • व्यक्तिगत विकास (Personal Development): जीवन में आगे बढ़ने के लिए दृढ़ता (Steadfastness) सबसे ज़रूरी गुण है। चाहे करियर हो या रिश्ते, हार न मानने वाला रवैया सफलता दिलाता है।

  • सामाजिक संघर्ष (Social Struggles): समाज में फैली बुराइयों, गलत सूचनाओं (Fake News) या अत्याचार के खिलाफ खड़े होने के लिए हिम्मत चाहिए। यह दुआ हमें वह हौसला देती है कि हम सच्चाई के लिए लड़ते रहें और ईश्वरीय मदद की उम्मीद रखें।

भविष्य के लिए संदेश:

  • यह आयत भविष्य की अनिश्चितताओं के लिए एक मज़बूत ढाल है। यह सिखाती है कि भविष्य में आने वाली किसी भी चुनौती का सामना आत्म-विश्लेषण, दृढ़ इच्छाशक्ति और ईश्वर पर भरोसे के साथ किया जा सकता है। यह एक ऐसा आध्यात्मिक टूलकिट है जो हर युग में काम आएगा।


निष्कर्ष (Conclusion)

कुरआन की यह आयत सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना का ज़िक्र नहीं है, बल्कि यह हर इंसान के लिए एक जीवन-पद्धति है। यह हमें सिखाती है कि असली ताकत अपनी कमज़ोरियों को पहचानने, उन्हें सुधारने, हर हाल में डटे रहने और नेकी के लिए लड़ते रहने में है। यह दुआ आज के दौर की भागदौड़ और तनाव भरी ज़िंदगी में एक स्थिरता और शांति का स्रोत बन सकती है।