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क़ुरआन 3:19 (सूरह आले-इमरान, आयत नंबर 19) की पूर्ण व्याख्या

 

1. आयत का अरबी पाठ (Arabic Text)

إِنَّ الدِّينَ عِندَ اللَّهِ الْإِسْلَامُ ۗ وَمَا اخْتَلَفَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ إِلَّا مِن بَعْدِ مَا جَاءَهُمُ الْعِلْمُ بَغْيًا بَيْنَهُمْ ۗ وَمَن يَكْفُرْ بِآيَاتِ اللَّهِ فَإِنَّ اللَّهَ سَرِيعُ الْحِسَابِ

2. अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning)

  • إِنَّ (इन्ना): बेशक।

  • الدِّينَ (अद-दीन): दीन (धर्म, जीवन पद्धति)।

  • عِندَ (इंद): के पास।

  • اللَّهِ (अल्लाह): अल्लाह के।

  • الْإِسْلَامُ (अल-इस्लाम): इस्लाम (आत्मसमर्पण) है।

  • وَمَا (व मा): और नहीं।

  • اخْتَلَفَ (इख्तलफा): मतभेद किया।

  • الَّذِينَ (अल्लज़ीना): जिन लोगों ने।

  • أُوتُوا (उतु): दी गई थी।

  • الْكِتَابَ (अल-किताब): किताब (ईश्वरीय ग्रंथ)।

  • إِلَّا (इल्ला): केवल।

  • مِن بَعْدِ (मिन बअदि): के बाद।

  • مَا جَاءَهُمُ (मा जाआहुमुल): उनके पास आ जाने के।

  • الْعِلْمُ (अल-इल्म): ज्ञान।

  • بَغْيًا (बग़यन): ज़ुल्म/अत्याचार/ऊंच-नीच।

  • بَيْنَهُمْ (बैनहुम): उनके बीच।

  • وَمَن (व मन): और जो कोई।

  • يَكْفُرْ (यक्फुर): इनकार करता है।

  • بِآيَاتِ (बि-आयाति): आयतों (निशानियों) से।

  • اللَّهِ (अल्लाह): अल्लाह की।

  • فَإِنَّ (फा इन्ना): तो बेशक।

  • اللَّهَ (अल्लाह): अल्लाह।

  • سَرِيعُ (सरीउ): जल्दी है।

  • الْحِسَابِ (अल-हिसाब): हिसाब लेने में।

3. पूर्ण व्याख्या (Full Explanation in Hindi)

यह आयत एक बहुत ही मौलिक और महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित करती है। पिछली आयत में अल्लाह की एकता का प्रमाण दिया गया था, और अब इस आयत में बताया जा रहा है कि उस एक अल्लाह के सामने स्वीकार्य जीवन पद्धति क्या है।

इस आयत के तीन मुख्य भाग हैं:

1. इन्नद-दीना इंदल्लाहिल इस्लाम (बेशक अल्लाह के नज़दीक (स्वीकार्य) दीन केवल इस्लाम है):

  • यहाँ "दीन" का मतलब है वह जीवन पद्धति जिसे अल्लाह ने अपने बन्दों के लिए चुना और पसंद किया है। यह सिर्फ एक "धर्म" नहीं, बल्कि जीवन का एक संपूर्ण तरीका है।

  • "इस्लाम" का शाब्दिक अर्थ है "आत्मसमर्पण" यानी अल्लाह की इच्छा के आगे पूरी तरह से झुक जाना। यही वह मूल सत्य है जिसके साथ हज़रत आदम से लेकर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तक सभी पैगंबर आए।

  • इसका यह मतलब नहीं है कि हज़रत मूसा या हज़रत ईसा का धर्म "इस्लाम" नहीं था। बल्कि, उनका मूल धर्म भी वही "इस्लाम" (अल्लाह के आगे समर्पण) था, जिसकी पूर्ण और अंतिम अभिव्यक्ति पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़रिए हुई।

2. व माख्तलफल्लज़ीना उतुल किताबा इल्ला मिन बअदि मा जाआहुमुल इल्मु बग़यन बैनहुम (और जिन लोगों को किताब दी गई थी, उन्होंने आपसी ज़ुल्म (ऊंच-नीच) के कारण, ज्ञान आ जाने के बाद ही मतभेद किया):

  • यह वाक्य बताता है कि आखिर यहूदी और ईसाई (अहले-किताब) अपने मूल धर्म "इस्लाम" से अलग क्यों हो गए।

  • कारण 1: "बग़य" - यानी आपसी ईर्ष्या, हठधर्मिता, सत्ता की लालसा और धार्मिक नेतृत्व में ऊंच-नीच की भावना।

  • कारण 2: "मिन बअदि मा जाआहुमुल इल्म" - यानी ज्ञान (अल्लाह की एकता और सच्चा धर्म) आ जाने के बाद। यह उनकी जानबूझकर की गई अवज्ञा थी।

3. व मन यक्फुर बि-आयातिल्लाहि फा इन्नल्लाहा सरीउल हिसाब (और जो कोई अल्लाह की आयतों का इनकार करेगा, तो बेशक अल्लाह हिसाब लेने में बहुत जल्दी है):

  • यह आयत का चेतावनी वाला भाग है। जो लोग इस स्पष्ट सत्य ("इस्लाम") को जानने के बाद भी उसका इनकार करते हैं, उनके लिए अल्लाह की चेतावनी है।

  • "सरीउल हिसाब" का मतलब है कि अल्लाह को हिसाब लेने में कोई देर नहीं लगती। वह जब चाहे, जहाँ चाहे, बिना किसी तैयारी के पल भर में इंसाफ कर सकता है।

4. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral)

  1. धर्म की सर्वोच्चता अल्लाह के पास है: यह आयत सिखाती है कि असली धर्म वही है जिसे अल्लाह ने स्वीकार किया है, न कि वह जिसे इंसान अपनी इच्छा से गढ़ ले। इसलिए, इंसान का लक्ष्य उसी दीन को अपनाना चाहिए जो अल्लाह के पास है।

  2. धार्मिक मतभेदों का मूल कारण: दुनिया में धार्मिक मतभेद और फिरके (सम्प्रदाय) इंसानी हठ, ईर्ष्या और सत्ता की लालसा की वजह से पैदा हुए हैं, न कि ईश्वरीय मार्गदर्शन की कमी की वजह से।

  3. जिम्मेदारी का एहसास: जिसे सच्चाई का ज्ञान हो जाए, उसके लिए उसे ठुकराने का कोई बहाना नहीं है। ऐसा करने पर उसे अल्लाह के सामने जवाब देना होगा।

5. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future)

  • अतीत में प्रासंगिकता (Relevancy to the Past):

    • पैगंबर के समय में: यह आयत यहूदियों और ईसाइयों के लिए एक स्पष्ट संदेश थी कि उनके मतभेदों का कारण अल्लाह का मार्गदर्शन नहीं, बल्कि उनका अपना "बग़य" (अत्याचार) है। यह उन्हें मूल "इस्लाम" की ओर लौटने का आह्वान था।

    • सभी पैगंबरों का मूल संदेश: यह आयत इस बात की पुष्टि करती है कि हर पैगंबर का धर्म मूल रूप से "इस्लाम" (आत्मसमर्पण) ही था।

  • वर्तमान में प्रासंगिकता (Relevancy to the Present):

    • धार्मिक एकता का आह्वान: आज दुनिया में हज़ारों धर्म और सम्प्रदाय मौजूद हैं। यह आयत सभी इंसानों को एक ही स्रोत (अल्लाह) और एक ही मूल धर्म (इस्लाम) की ओर बुलाती है।

    • इस्लामोफोबिया का जवाब: जो लोग इस्लाम को "एक नया धर्म" या "मुहम्मद का बनाया हुआ" कहते हैं, उनके लिए यह आयत स्पष्ट करती है कि इस्लाम तो अल्लाह का चुना हुआ और मूल धर्म है।

    • आतंकवाद का खंडन: आतंकवादी संगठन "बग़य" (अत्याचार) के आधार पर ही धर्म की गलत व्याख्या करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे पहले के लोगों ने की थी। यह आयत उनकी मानसिकता को उजागर करती है।

  • भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to the Future):

    • शाश्वत मानदंड: कयामत तक, यह आयत यही सिद्धांत स्थापित करेगी कि अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य धर्म केवल "इस्लाम" है। यह एक शाश्वत और अपरिवर्तनीय सत्य है।

    • भविष्य के मतभेदों के लिए चेतावनी: भविष्य में भी लोग धर्म के नाम पर नए-नए मतभेद पैदा करते रहेंगे। यह आयत हर युग के लोगों को यही चेतावनी देगी कि इन मतभेदों का कारण "बग़य" है, न कि अल्लाह का मार्गदर्शन।

निष्कर्ष:
क़ुरआन 3:19 धर्म की सर्वोच्च परिभाषा और उसके स्वीकार्य होने का एकमात्र मानदंड स्थापित करती है। यह अतीत के सभी पैगंबरों के मूल संदेश की पुष्टि करती है, वर्तमान के धार्मिक अराजकता के लिए एक समाधान प्रस्तुत करती है और भविष्य के लिए एक शाश्वत मार्गदर्शक सिद्धांत है कि सच्चा धर्म केवल वही है जो अल्लाह की ओर से आया और जिसका नाम "इस्लाम" है।