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क़ुरआन 3:30 (सूरह आले-इमरान, आयत नंबर 30)

 

1. आयत का अरबी पाठ (Arabic Text)

يَوْمَ تَجِدُ كُلُّ نَفْسٍ مَّا عَمِلَتْ مِنْ خَيْرٍ مُّحْضَرًا وَمَا عَمِلَتْ مِن سُوءٍ تَوَدُّ لَوْ أَنَّ بَيْنَهَا وَبَيْنَهُ أَمَدًا بَعِيدًا ۗ وَيُحَذِّرُكُمُ اللَّهُ نَفْسَهُ ۗ وَاللَّهُ رَءُوفٌ بِالْعِبَادِ

2. सरल हिंदी अर्थ

"उस दिन हर व्यक्ति को वह (परिणाम) मिल जाएगा जो उसने अच्छाई का कर्म किया है, (उसे) वहाँ मौजूद पाएगा; और जो बुराई उसने की है, वह चाहेगी कि काश! उसके और उस (बुराई के परिणाम) के बीच बहुत लंबी दूरी हो जाए। और अल्लाह तुम्हें स्वयं (अपने अज़ाब) से डराता है, और अल्लाह बन्दों के लिए अत्यंत दयालु है।"

3. शब्दार्थ (Word Meanings)

  • يَوْمَ (यौम): जिस दिन।

  • تَجِدُ (तजिदु): पाएगी।

  • كُلُّ (कुल्लु): हर।

  • نَفْسٍ (नफ़्सिन): आत्मा/व्यक्ति।

  • مَّا (मा): जो कुछ।

  • عَمِلَتْ (अमिलत): उसने किया।

  • مِنْ خَيْرٍ (मिन खैरिन): अच्छाई में से।

  • مُّحْضَرًا (मुह्ज़रान): मौजूद/हाज़िर किया हुआ।

  • وَمَا (व मा): और जो कुछ।

  • عَمِلَتْ (अमिलत): उसने किया।

  • مِن سُوءٍ (मिन सूइन): बुराई में से।

  • تَوَدُّ (तवद्दु): वह चाहेगी/कामना करेगी।

  • لَو (लौ): काश।

  • أَنَّ (अन्ना): कि।

  • بَيْنَهَا (बैनहा): उसके और।

  • وَبَيْنَهُ (व बैनहु): और उस (बुराई) के बीच।

  • أَمَدًا (अमदन): एक अवधि/दूरी।

  • بَعِيدًا (बअईदान): बहुत दूर।

  • وَيُحَذِّرُكُمُ (व युहज़िरुकुमु): और तुम्हें सचेत करता है।

  • اللَّهُ (अल्लाह): अल्लाह।

  • نَفْسَهُ (नफ़सहु): अपने आप (अपने दंड) से।

  • وَاللَّهُ (वल्लाह): और अल्लाह।

  • رَءُوفٌ (रऊफ़ुन): अत्यंत दयालु/कोमल हृदय।

  • بِالْعِبَادِ (बिल-इबाद): बन्दों के साथ।

4. पूर्ण व्याख्या (Full Explanation)

यह आयत पिछली आयतों में वर्णित अल्लाह के ज्ञान का एक तार्किक और दृश्यात्मक परिणाम प्रस्तुत करती है। जिस ईश्वर ने हर छिपे और खुले कर्म को जान लिया (3:29), वह उसका पूरा हिसाब-किताब एक दिन पेश करेगा। यह आयत कर्म के सिद्धांत (Law of Consequences) और दिव्य न्याय का एक जीवंत चित्रण है।

इस आयत के तीन प्रमुख भाग हैं:

1. व्यक्तिगत जिम्मेदारी और पूर्ण लेखा-जोखा: "यौमा तजिदु कुल्लु नफ़्सिम मा अमिलत मिन खैरिम मुह्ज़रान"

  • यहाँ "हर व्यक्ति" पर जोर दिया गया है। कोई भी किसी और के कर्म का बोझ नहीं उठाएगा।

  • "मा अमिलत" (जो कुछ उसने किया) बताता है कि हर छोटा-बड़ा अच्छा कर्म दर्ज है और उसे पूरा का पूरा प्रस्तुत किया जाएगा। यह न्याय की पूर्णता को दर्शाता है।

2. पश्चाताप की चरम स्थिति: "व मा अमिलत मिन सूइन तवद्दु लौ अन्ना बैनहा व बैनहु अमदन बअईदा"

  • यह आयत का सबसे मार्मिक हिस्सा है, जो मानव मनोविज्ञान को बखूबी समझता है।

  • यह उस गहन पछतावे और निराशा की भावना को दर्शाता है जब इंसान अपने बुरे कर्मों के सामने खड़ा होगा।

  • "काश उसके और उस (पाप) के बीच बहुत दूरी हो जाए" - यह वाक्य बताता है कि इंसान उस पल अपने अतीत के कर्मों से इतना डर जाएगा कि वह उनसे कोसों दूर भागना चाहेगा, लेकिन तब बहुत देर हो चुकी होगी। यह एक मनोवैज्ञानिक यातना का दृश्य है।

3. चेतावनी और दया का सुंदर संतुलन: "व युहज़िरुकुमुल्लाहु नफ़सहु, वल्लाहु रऊफ़ुम बिल-इबाद"

  • आयत का अंत एक साथ दो विपरीत लगने वाले, लेकिन गहराई से जुड़े हुए ईश्वरीय गुणों के साथ होता है।

  • "व युहज़िरुकुमुल्लाहु नफ़सहु" (और अल्लाह तुम्हें अपने आप से डराता है): यह एक स्पष्ट चेतावनी है। ईश्वर अपने दंड से डरा रहा है ताकि इंसान सचेत हो जाए और बुराई से बचे। यह एक कठोर शिक्षक की तरह है जो परीक्षा से पहले ही छात्रों को पाठ याद करने की चेतावनी दे देता है।

  • "वल्लाहु रऊफ़ुम बिल-इबाद" (और अल्लाह बन्दों के लिए अत्यंत दयालु है): यह चेतावनी का उद्देश्य बताता है। ईश्वर की चेतावनी उसकी दया का हिस्सा है। वह नहीं चाहता कि उसके बन्दे उस दर्दनाक पश्चाताप और यातना में फंसें। यह चेतावनी स्वयं एक दयालुता है, ताकि इंसान को सुधारने का मौका मिले।

5. शिक्षा और सबक (Lesson and Moral)

  1. कर्मों का महत्व: यह आयत हमें सिखाती है कि हमारे हर कर्म का एक स्थायी परिणाम है। अच्छाई का इनाम और बुराई की सजा निश्चित है।

  2. वर्तमान में सजगता: भविष्य में पछताने से बेहतर है कि वर्तमान में सजग रहा जाए। आयत हमें अभी अपने कर्मों को सुधारने का संदेश देती है।

  3. डर और आशा का संतुलन: एक आदर्श जीवन वह है जहाँ ईश्वर के दंड का डर हमें पाप से रोके और उसकी दया की आशा हमें नेकी की ओर प्रेरित करे।

6. अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रासंगिकता

  • अतीत में प्रासंगिकता:

    • प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय के लिए: यह आयत मक्का और मदीना के मुसलमानों के लिए एक मार्गदर्शक थी, जो एक शक्तिशाली विप opposition का सामना कर रहे थे। यह उन्हें यह विश्वास दिलाती थी कि अंतिम न्याय निश्चित है, भले ही दुनिया में अन्याय हो रहा हो।

    • सार्वभौमिक संदेश: यह भय और आशा का संदेश सभी पैगंबरों के teachings का केंद्र बिंदु रहा है।

  • वर्तमान में प्रासंगिकता:

    • नैतिकता का संकट: आज के भौतिकवादी युग में, कई लोग मानते हैं कि मृत्यु के बाद कोई जवाबदेही नहीं है, जिससे समाज में अनैतिकता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। यह आयत एक अंतिम जवाबदेही का सिद्धांत देकर एक मजबूत नैतिक आधार प्रदान करती है।

    • मानसिक स्वास्थ्य और पश्चाताप: आज लोग अपने अतीत के गलत फैसलों और कर्मों के लिए पश्चाताप और ग्लानि से ग्रस्त हैं। यह आयत बताती है कि वास्तविक पश्चाताप का सही समय अभी है, जीवन का अंत होने से पहले।

    • सामाजिक न्याय: यह आयत उन सभी पीड़ितों के लिए एक आशा है जिनके साथ दुनिया में अन्याय हुआ है। यह सिद्धांत देती है कि अंतिम न्याय अवश्य होगा, जहाँ हर अत्याचारी को उसके कर्म का फल मिलेगा।

  • भविष्य में प्रासंगिकता:

    • शाश्वत नैतिक कम्पास: तकनीकी प्रगति चाहे जितनी भी हो जाए, मानवीय नैतिकता का यह सिद्धांत सदैव प्रासंगिक रहेगा। यह आयत भविष्य की पीढ़ियों को यह याद दिलाती रहेगी कि उनके कर्मों का लेखा-जोखा होगा।

    • कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और नैतिकता: जैसे-जैसे AI का विकास होगा, मशीनों के 'कर्मों' की नैतिक जिम्मेदारी का सवाल उठेगा। यह आयत मनुष्यों के लिए एक स्थायी अनुस्मारक के रूप में काम करेगी कि उनकी रचनाओं के कर्मों की जिम्मेदारी का अंतिम लेखा-जोखा उनसे ही होगा।

निष्कर्ष:
क़ुरआन 3:30 केवल भविष्य की यातना का वर्णन नहीं है। यह मानव जिम्मेदारी, नैतिक विकल्प और दिव्य न्याय का एक गहन दर्शन प्रस्तुत करती है। यह हमें हमारे कर्मों की गंभीरता का एहसास कराती है और एक संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा देती है - जहाँ ईश्वर के न्याय का डर हमें पाप से रोके और उसकी असीम दया की आशा हमें एक बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करती रहे।