﴿يَا مَرْيَمُ اقْنُتِي لِرَبِّكِ وَاسْجُدِي وَارْكَعِي مَعَ الرَّاكِعِينَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 43)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
- يَا مَرْيَمُ (Yaa Maryamu): "ऐ मरयम!" 
- اقْنُتِي (Uqnutee): (तू) आज्ञाकारी बन, (अल्लाह की) इबादत में दृढ़ रह। 
- لِرَبِّكِ (Li Rabbiki): अपने पालनहार की। 
- وَاسْجُدِي (Wasjudee): और सज्दा कर (सज्दे की हालत में गिर जा)। 
- وَارْكَعِي (Warka'ee): और रुकू कर (झुक जा)। 
- مَعَ الرَّاكِعِينَ (Ma'ar-Raaki'een): रुकू करने वालों (नमाज़ पढ़ने वालों) के साथ। 
पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):
पिछली आयत में अल्लाह ने हज़रत मरयम (अलैहिस्सलाम) को उनके विशेष सम्मान और चुनाव की खबर सुनाई थी। अब इस आयत में, अल्लाह उन्हें एक कार्य-योजना (Action Plan) दे रहा है। यह बताया जा रहा है कि इस महान सम्मान और ज़िम्मेदारी के बदले उन्हें क्या करना चाहिए।
इस आयत में तीन आदेश दिए गए हैं:
- "अपने पालनहार की आज्ञाकारी बन (इक़्नुती कर)": इक़्नुती एक गहरा शब्द है। इसका मतलब सिर्फ आज्ञा मानना ही नहीं, बल्कि पूरी तरह से समर्पित, विनम्र और दृढ़तापूर्वक अल्लाह की इबादत में लगे रहना है। यह एकाग्रचित्त होकर, लगातार और ईमानदारी से सेवा करने का आदेश है। 
- "और सज्दा करो और रुकू करो": यहाँ सज्दा (सिजदा) और रुकू नमाज़ की मुख्य मुद्राओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह औपचारिक इबादत (नमाज) का आदेश है, जो इंसान और अल्लाह के बीच सीधा संबंध स्थापित करती है। 
- "रुकू करने वालों के साथ": यह एक बहुत महत्वपूर्ण निर्देश है। इसका मतलब है कि अकेले इबादत के साथ-साथ जमाअत (समुदाय) के साथ इबादत करना भी जरूरी है। हज़रत मरयम को भी दूसरे पवित्र लोगों के साथ मिलकर इबादत करने का आदेश दिया गया। 
संक्षेप में, अल्लाह ने हज़रत मरयम से कहा: "तुम्हें जो महान दर्जा दिया गया है, उसकी कसौटी यह है कि तुम और अधिक विनम्र, और अधिक आज्ञाकारी और और अधिक सामाजिक रूप से इबादतगुज़ार बन जाओ।"
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):
- समर्पण ही सच्ची कृतज्ञता है: जब अल्लाह कोई नेमत या सम्मान दे, तो उसका सबसे बड़ा शुक्रिया यही है कि उसके आगे और ज्यादा विनम्र और आज्ञाकारी बन जाएँ। गर्व करने का कोई स्थान नहीं है। 
- इबादत का संतुलन: सच्ची इबादत दो चीजों का मेल है: दिल की एकाग्रता (इक़्नुती) और शारीरिक actions (रुकू-सज्दा)। केवल दिखावे की नमाज़ काफी नहीं है, और केवल दिल के भाव बिना actions के पूरे नहीं होते। 
- सामुदायिक जीवन का महत्व: इस्लाम अकेलेपन का धर्म नहीं है। ईमानदार लोगों की संगति और उनके साथ मिलकर इबादत करना बहुत पुण्य का काम है। यह इंसान को अकेलेपन और अहंकार से बचाता है। 
अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
- अतीत (Past) के लिए: हज़रत मरयम के लिए, यह आदेश उनके लिए एक मार्गदर्शन था। उन्हें जिस बड़े इम्तिहान का सामना करना था, उसके लिए यह आध्यात्मिक तैयारी थी। यह आदेश उन्हें दृढ़, धैर्यवान और अल्लाह से जुड़े रहने में मदद करता था। 
- वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत हमें यह सिखाती है: - नेमत के बाद की जिम्मेदारी: अगर हमें जीवन में कोई सफलता या सम्मान मिलता है, तो उसका जवाब घमंड नहीं, बल्कि और ज्यादा विनम्रता और सेवा भाव से देना चाहिए। 
- आध्यात्मिक Discipline: इक़्नुती हमें अपने लक्ष्य के प्रति अनुशासित और दृढ़ रहना सिखाता है, चाहे वह धार्मिक लक्ष्य हो या दुनियावी। 
- सामाजिक जुड़ाव: आज की डिजिटल और अलग-थलग कर देने वाली दुनिया में, "रुकू करने वालों के साथ" होने का मतलब है अच्छे लोगों की संगति में रहना और सामूहिक रूप से अच्छे काम करना। 
 
- भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा मानवता के लिए एक मौलिक सिद्धांत स्थापित करती रहेगी: "जितना बड़ा दर्जा, उतनी ही ज्यादा विनम्रता।" यह भविष्य की हर पीढ़ी को यह याद दिलाती रहेगी कि सच्ची सफलता अल्लाह के सामने झुकने और उसकी बनाई हुई जमाअत (समुदाय) के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने में है।