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कुरआन की आयत 3:57 की पूरी व्याख्या

 

﴿وَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ فَيُوَفِّيهِمْ أُجُورَهُمْ ۗ وَاللَّهُ لَا يُحِبُّ الظَّالِمِينَ﴾

(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 57)


अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):

  • وَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا (Wa ammal-lazeena aamanoo): और जिन लोगों ने ईमान स्वीकार किया।

  • وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ (Wa 'amilus-saalihaat): और अच्छे कर्म किए।

  • فَيُوَفِّيهِمْ أُجُورَهُمْ (Fa yuwaffeehim ujoorahum): तो वह (अल्लाह) उन्हें उनका पूरा-पूरा बदला देगा।

  • وَاللَّهُ لَا يُحِبُّ الظَّالِمِينَ (Wallaahu laa yuhibbuz-zaalimeen): और अल्लाह ज़ालिमों (अन्याय करने वालों) से प्यार नहीं करता।


पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):

यह आयत पिछली आयत का दूसरा पहलू प्रस्तुत करती है। जहाँ आयत 3:56 में काफिरों के लिए दंड की घोषणा की गई थी, वहीं यह आयत ईमान वालों के लिए पुरस्कार का शुभ समाचार देती है। यह अल्लाह की न्यायप्रणाली का संतुलन दर्शाती है।

इस आयत में दो मुख्य भाग हैं:

  1. ईमान और अच्छे कर्मों वालों के लिए पूरा बदला: अल्लाह का वादा है कि जिन लोगों ने दो शर्तें पूरी कीं:

    • ईमान लाना: अल्लाह, उसके फरिश्तों, उसकी किताबों, उसके पैगंबरों और आखिरत के दिन पर दिल से विश्वास करना।

    • नेक अमल करना: ईमान के बाद, अल्लाह की इबादत करना और उसके बताए हुए तरीके से अच्छे कर्म (जैसे नमाज, रोजा, जकात, माता-पिता की सेवा, ईमानदारी, दान-पुण्य आदि) करना।
      अल्लाह ऐसे लोगों को उनका "पूरा-पूरा बदला" देगा। "युवाफ्फीहिम" शब्द में पूर्णता का भाव है। अल्लाह नेक बन्दों के सभी छोटे-बड़े अच्छे कर्मों को गिनता है और उन्हें बिना किसी कमी के, बल्कि कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर प्रदान करता है।

  2. अल्लाह ज़ालिमों से प्यार नहीं करता: आयत का अंत इस सार्वभौमिक सिद्धांत के साथ होता है कि "अल्लाह ज़ालिमों से प्यार नहीं करता।" यहाँ "ज़ालिम" (अन्यायी) में वे सभी लोग शामिल हैं जिन्होंने:

    • अपने ऊपर ज़ुल्म किया: अल्लाह के साथ शिर्क करके या उसकी अवज्ञा करके।

    • दूसरों पर ज़ुल्म किया: समाज में अन्याय, अत्याचार और बुराई फैलाकर।
      इस वाक्य से पता चलता है कि कुफ्र और बुरे कर्म एक तरह का ज़ुल्म (अन्याय) हैं, और अल्लाह किसी भी प्रकार के अन्याय को पसंद नहीं करता।


सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):

  1. आशा और प्रोत्साहन: यह आयत हर मोमिन के दिल में आशा और उत्साह भर देती है। यह बताती है कि अल्लाह की रहमत और इनाम उसके गुस्से और सज़ा से कहीं बड़ा है।

  2. ईमान और अमल का अटूट रिश्ता: केवल दावा करने से काम नहीं चलता। ईमान को नेक अमल से साबित करना जरूरी है। विश्वास और कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं।

  3. अन्याय से दूरी: एक मुसलमान का यह कर्तव्य है कि वह हर प्रकार के ज़ुल्म (अन्याय) से दूर रहे, क्योंकि अल्लाह ज़ालिमों से नफरत करता है।


अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):

  • अतीत (Past) के लिए: हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के सच्चे शिष्यों (हवारियों) के लिए, जिन्होंने कठिनाईयों में भी ईमान और नेकी पर डटे रहने का फैसला किया, यह आयत एक शक्तिशाली आश्वासन थी कि उनका त्याग और संघर्ष बेकार नहीं जाएगा।

  • वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत हमें यह सिखाती है:

    • ईमान की रक्षा: आज के भौतिकवादी और नास्तिकता के माहौल में, इस आयत की याद हमें अपने ईमान की कीमत समझाती है और उसे मजबूत करती है।

    • नेकी की प्रेरणा: यह आयत हमें नेक कर्म करने के लिए प्रेरित करती है, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो, क्योंकि अल्लाह उसे बर्बाद नहीं करेगा।

    • सामाजिक न्याय: "अल्लाह ज़ालिमों से प्यार नहीं करता" - यह वाक्य हमें समाज में फैले हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने और उससे दूर रहने की प्रेरणा देता है।

  • भविष्य (Future) के लिए: यह आयत कयामत तक हर मोमिन के लिए एक "आशा का स्तंभ" बनी रहेगी। भविष्य की हर पीढ़ी के लिए, चाहे दुनिया कितनी भी अंधकारमय क्यों न हो जाए, यह आयत यह विश्वास दिलाती रहेगी कि ईमान और नेकी का अंतिम परिणाम हमेशा अच्छा ही होगा। यह आयत हमेशा मानवता को न्याय, ईमानदारी और अच्छाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती रहेगी।