﴿فَإِن تَوَلَّوْا فَإِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ بِالْمُفْسِدِينَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 63)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
فَإِن تَوَلَّوْا (Fa-in tawallaw): फिर अगर वे मुँह मोड़ लें (स्वीकार न करें)।
فَإِنَّ اللَّهَ (Fa-innal-Laaha): तो निश्चित रूप से अल्लाह।
عَلِيمٌ (Aleemun): पूरी तरह जानने वाला है।
بِالْمُفْسِدِينَ (Bil-mufsideen): फसाद फैलाने वालों को।
पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):
यह आयत पिछली आयतों में दिए गए स्पष्ट प्रमाणों और तर्कों के बाद एक अंतिम चेतावनी के रूप में आती है। अल्लाह ने हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के बारे में पूरा सच्चा वर्णन दे दिया है और सत्य को स्पष्ट कर दिया है। अब यह आयत उन लोगों के लिए एक सूत्र जारी करती है जो इस सबके बावजूद सत्य को स्वीकार नहीं करते।
इस आयत के दो भाग हैं:
"फिर अगर वे मुँह मोड़ लें": यहाँ "वे" उन लोगों की ओर संकेत है जो हज़रत ईसा की सही हैसियत के बारे में जिद पकड़े हुए हैं। "मुँह मोड़ लेना" एक मजबूत अभिव्यक्ति है जो इनकार, अवज्ञा और सत्य से पलट जाने को दर्शाती है। यह उनक️ इच्छाशक्ति और पूर्वाग्रह को दिखाता है, ज्ञान की कमी को नहीं।
"तो निश्चित रूप से अल्लाह फसाद फैलाने वालों को भली-भाँति जानने वाला है": यह एक गंभीर चेतावनी है। अल्लाह स्वयं को "अलीम" (सर्वज्ञ) बताता है, विशेष रूप से "मुफसिदीन" (फसाद फैलाने वालों) के बारे में।
मुफसिदीन कौन हैं? वे लोग जो धरती पर सत्य को दबाने, झूठ फैलाने और लोगों को गुमराह करने का काम करते हैं। हज़रत ईसा के बारे में गलत अकीदे फैलाना और लोगों को शिर्क की ओर बुलाना भी एक बड़ा "फसाद" (भ्रष्टाचार) है।
अल्लाह उन्हें जानता है: इसका मतलब है कि अल्लाह उनके इरादों, उनक️ चालों और उनके दिलों की गहराई तक को जानता है। कोई उसक️ नज़र से छिप नहीं सकता।
संक्षेप में, आयत का भाव यह है: "सत्य तुम्हारे सामने रख दिया गया है। अब तुम्हारी मर्जी। अगर तुमने इसे ठुकरा दिया, तो याद रखो कि तुम्हारे इस इनकार और फसाद को अल्लाह अच्छी तरह जानता है और उसका हिसाब तुमसे लेगा।"
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):
जिम्मेदारी का एहसास: इंसान पर सत्य पहुँच जाने के बाद, उसे स्वीकार करना या न करना उसक️ अपनी जिम्मेदारी है। अल्लाह किसी को जबरदस्ती ईमान लाने के लिए मजबूर नहीं करता।
अल्लाह का सर्वज्ञ होना: एक मोमिन को हमेशा यह एहसास रहना चाहिए कि अल्लाह हर चीज को जानता है, खासकर वह बुराई जो दिलों और समाज में छिपी होती है। यह एहसास उसे गुनाह से बचाता है।
धैर्य और कर्तव्य का अंत: दावत-ए-हक़ (सत्य का आह्वान) देने वाले का काम सत्य पहुँचाना है। अगर लोग न मानें, तो निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अंतिम न्याय अल्लाह के हाथ में है।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और प्रारंभिक मुसलमानों के लिए, यह आयत एक सांत्वना और मार्गदर्शन थी। जब यहूदी और ईसाई सत्य स्वीकार नहीं कर रहे थे, तो यह आयत उन्हें बताती थी कि अब आपकी जिम्मेदारी पूरी हो गई। अब मामला अल्लाह पर छोड़ दो, जो हर चीज को जानता है।
वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत हमें यह सिखाती है:
दावत का तरीका: आज भी जब हम लोगों को इस्लाम का संदेश देते हैं और वह नहीं मानते, तो हमें निराश नहीं होना चाहिए। हमारा काम सिर्फ पहुँचाना है। मार्गदर्शन देना अल्लाह का काम है।
गलत धारणाओं का विरोध: जो लोग जानबूझकर इस्लाम के बारे में झूठ और भ्रम फैलाते हैं (फसाद फैलाते हैं), उनके बारे में यह आयत हमें यकीन दिलाती है कि अल्लाह उनके बारे में जानता है और उन्हें जवाबदेह ठहराएगा।
आत्म-मंथन: यह आयत हर इंसान से पूछती है: "क्या तुम भी उनमें से तो नहीं जो सत्य जानने के बाद भी उससे मुँह मोड़ लेते हैं?"
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा "सत्य और असत्य के बीच चुनाव की स्वतंत्रता और उसकी जिम्मेदारी" का प्रतीक बनी रहेगी। भविष्य में जब भी लोग सत्य को ठुकराएँगे, यह आयत उनके लिए एक चेतावनी बनी रहेगी कि अल्लाह उनके इस इनकार और फसाद को जानता है। साथ ही, यह दावत देने वालों के लिए हमेशा एक सबक बनी रहेगी कि उन्हें लोगों के इनकार पर निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि अपना कर्तव्य निभाकर अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए।