﴿وَمَن يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَن يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 85)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
وَمَن يَبْتَغِ (Wa many-yabtaghi): और जो कोई तलाश करे।
غَيْرَ الْإِسْلَامِ (Ghairal-Islaami): इस्लाम के अलावा।
دِينًا (Deenan): धर्म (जीवन पद्धति)।
فَلَن يُقْبَلَ مِنْهُ (Falan yuqbala minhu): तो उससे कभी स्वीकार नहीं किया जाएगा।
وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ (Wa huwa fil-aakhirah): और वह आखिरत में।
مِنَ الْخَاسِرِينَ (Minal-khaasireen): घाटा उठाने वालों में से होगा।
पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):
यह आयत एक बहुत ही स्पष्ट, सीधा और अंतिम फैसला सुनाती है। यह पिछली आयतों में बताए गए सिद्धांतों का तार्किक निष्कर्ष है। जहाँ पिछली आयत में बताया गया था कि एक मुसलमान सभी पैगंबरों पर ईमान रखता है, वहीं यह आयत बताती है कि अब अल्लाह के सामने स्वीकार्य धर्म केवल और केवल "इस्लाम" ही है।
इस आयत के तीन मुख्य बिंदु हैं:
"जो कोई इस्लाम के अलावा कोई और धर्म तलाश करे":
यहाँ "इस्लाम" से मतलब सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि अल्लाह के आगे पूर्ण समर्पण की वह अवस्था है जो पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) लेकर आए। यह वही मूल धर्म है जिस पर सभी पैगंबर थे, लेकिन अब उसका पूर्ण और अंतिम रूप सिर्फ वही है जो कुरआन और पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं में मौजूद है।
"तलाश करे" शब्द इशारा करता है कि व्यक्ति जानबूझकर और सचेत रूप से इस्लाम को छोड़कर कुछ और ढूंढ रहा है।
"तो उससे कभी स्वीकार नहीं किया जाएगा":
यह एक सार्वभौमिक और अटल नियम है। पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आने के बाद, अल्लाह के यहाँ कोई भी ऐसा धर्म या आचरण स्वीकार नहीं होगा जो इस्लाम के दायरे से बाहर हो। "कभी नहीं" शब्द इस नियम में कोई अपवाद नहीं छोड़ता।
"और वह आखिरत में घाटा उठाने वालों में से होगा":
यह उस व्यक्ति का अंतिम परिणाम है। "खसरत" (घाटा) का मतलब है सबसे बड़ी हानि। इंसान ने दुनिया की कुछ चीजें (धन, शौहरत) तो पा लीं, लेकिन अपनी आखिरत बर्बाद कर ली। यह सबसे बड़ा नुकसान है।
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):
इस्लाम ही एकमात्र स्वीकार्य धर्म: पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आने के बाद, अल्लाह के यहाँ कोई और धर्म स्वीकार नहीं है। यह इस्लाम की सर्वोच्चता और अंतिमता का दावा है।
असली सफलता और असली घाटा: असली सफलता आखिरत में जन्नत पाना है और असली घाटा आखिरत में नरक में जाना है। दुनिया का लाभ-हानि असली लाभ-हानि नहीं है।
जिम्मेदारी का एहसास: यह आयत हर इंसान को उसकी जिम्मेदारी का एहसास कराती है। उसे अपने अंत के बारे में सोचना चाहिए और सच्चे धर्म को अपनाना चाहिए।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में, यह आयत एक स्पष्ट चेतावनी और दावा थी। यह अरब के मुशरिकों, यहूदियों और ईसाइयों सभी के लिए थी कि अब मोक्ष और बचाव का एकमात्र रास्ता इस्लाम है।
वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:
धार्मिक एकाधिकार का दावा: आज का मुसलमान इस आयत के आधार पर यह दावा करता है कि इस्लाम ही अल्लाह का स्वीकृत धर्म है। यह उसके ईमान का एक मूलभूत हिस्सा है।
दावत-ए-दीन की प्रेरणा: यह आयत मुसलमानों को दूसरों तक इस्लाम का संदेश पहुँचाने (दावत) के लिए प्रेरित करती है, ताकि लोग इस बड़े नुकसान से बच सकें।
व्यक्तिगत ईमान की जाँच: हर मुसलमान को अपने आप से सवाल करना चाहिए कि क्या वह वास्तव में "इस्लाम" को ही अपना धर्म मानता है या फिर दुनियावी चीजों (पैसा, फैशन, विचारधारा) को उस पर प्राथमिकता दे रहा है।
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत कयामत तक "इस्लाम की अंतिमता और अनन्यता" का एक स्थायी सिद्धांत बनी रहेगी। भविष्य में जब भी कोई नया धर्म, संप्रदाय या जीवन-पद्धति उभरेगी, यह आयत मुसलमानों के लिए यह मापदंड स्थापित करेगी कि अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य केवल इस्लाम है। यह आयत हर युग के लोगों को यह चुनाव करने के लिए प्रेरित करती रहेगी कि वह असली सफलता चाहते हैं या फिर सबसे बड़े घाटे को।