﴿فَمَنِ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّهِ الْكَذِبَ مِن بَعْدِ ذَٰلِكَ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ﴾
(Surah Aal-e-Imran, Ayat: 94)
अरबी शब्दों के अर्थ (Arabic Words Meaning):
فَمَنِ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّهِ الْكَذِبَ (Famanif-taraa 'alallaahil-kaziba): फिर जिसने अल्लाह पर झूठा आरोप लगाया।
مِن بَعْدِ ذَٰلِكَ (Min ba'di zaalika): उस (स्पष्टीकरण) के बाद।
فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ (Fa-ulaa'ika humuz-zaalimoon): तो ऐसे ही लोग (सच्चे) ज़ालिम (अन्यायी) हैं।
पूरी व्याख्या (Full Explanation in Hindi):
यह आयत पिछली आयत (3:93) का तार्किक और दृढ़ निष्कर्ष प्रस्तुत करती है। पिछली आयत में अल्लाह ने स्पष्ट कर दिया था कि हज़रत याकूब (अलैहिस्सलाम) द्वारा कुछ चीजों को हराम करना उनकी व्यक्तिगत मन्नत थी, अल्लाह का आदेश नहीं। अब इस आयत में अल्लाह उन लोगों के लिए एक स्पष्ट फैसला सुनाता है जो इस सच्चाई को जानने के बाद भी अल्लाह पर झूठ बोलते रहते हैं।
आयत के तीन मुख्य बिंदु हैं:
"अल्लाह पर झूठा आरोप लगाना": यहाँ "इफ्तिरा" (झूठा आरोप) का मतलब है अल्लाह के नाम पर वह बातें बताना जो उसने कभी कही ही नहीं। जैसे यहूदियों का यह कहना कि "अल्लाह ने ऊँट को हराम किया है," जबकि अल्लाह ने ऐसा कोई हुक्म नहीं दिया था। यह सबसे बड़े पापों में से एक है।
"उस (स्पष्टीकरण) के बाद": यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। अल्लाह ने पिछली आयत में सच्चाई स्पष्ट कर दी थी। अब जो कोई इस "स्पष्ट सच्चाई" के बाद भी झूठ बोलता है, उसके पास कोई बहाना नहीं बचता। उसने जान-बूझकर और सोच-समझकर झूठ बोला है।
"तो ऐसे ही लोग (सच्चे) ज़ालिम हैं": यह आयत का अंतिम फैसला है। ऐसे लोग "ज़ालिम" (अन्यायी) हैं। यहाँ ज़ुल्म का मतलब है सीमा लाँघना। उन्होंने अल्लाह के अधिकार में दखल दिया, उस पर झूठ बोला और लोगों को गुमराह किया। यह अपने आप पर, अल्लाह पर और पूरी मानवता पर सबसे बड़ा ज़ुल्म है।
सीख और शिक्षा (Lesson and Moral):
अल्लाह के नाम पर झूठ सबसे बड़ा पाप: धर्म के नाम पर झूठ बोलना और लोगों को गुमराह करना एक भयानक अत्याचार है। इसकी सजा बहुत कड़ी है।
ज्ञान के बाद जिम्मेदारी: जब सच्चाई स्पष्ट हो जाए, तो उसके बाद भी उसे छिपाना या उसके खिलाफ झूठ बोलना एक गंभीर अपराध है।
ज़ालिम की पहचान: असली ज़ालिम वह है जो अल्लाह की सीमाओं को तोड़ता है और उसके नाम पर मनगढ़ंत बातें फैलाता है।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy to Past, Present and Future):
अतीत (Past) के लिए: पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में, यह आयत यहूदी विद्वानों और उनके झूठे दावों के लिए एक स्पष्ट फैसला थी। यह उनकी धार्मिक बेईमानी को उजागर करती थी।
वर्तमान (Present) के लिए: आज के संदर्भ में यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है:
नकली धर्म गुरु: आज भी कई "धर्म गुरु" अल्लाह के नाम पर अपनी मनमानी बातें और भविष्यवाणियाँ करते हैं, हलाल को हराम और हराम को हलाल ठहराते हैं। यह आयत उन सभी के लिए एक सख्त चेतावनी है।
धार्मिक अतिरिक्तताएँ (Bid'ah): कई मुसलमान ऐसी प्रथाएँ और मान्यताएँ अपना लेते हैं जिनका कुरआन और सुन्नत में कोई आधार नहीं है और उन्हें "धर्म" का नाम दे देते हैं। यह भी एक प्रकार का इफ्तिरा (झूठा आरोप) है।
सच्चाई का दायित्व: हर मुसलमान का फर्ज है कि वह धार्मिक मामलों में सच्चाई का पक्ष ले और झूठे दावों का खंडन करे।
भविष्य (Future) के लिए: यह आयत हमेशा "धार्मिक मामलों में ईमानदारी" की एक स्थायी कसौटी बनी रहेगी। भविष्य में जब भी कोई व्यक्ति या समूह अल्लाह के धर्म में मनमाने बदलाव करेगा या उसके नाम पर झूठ बोलेगा, यह आयत उसे "ज़ालिम" की उपाधि देगी। यह आयत हर युग के मुसलमानों को यह याद दिलाती रहेगी कि धर्म की बात करते समय अत्यधिक सावधानी और ईमानदारी बरतनी चाहिए।