कुरआन की आयत 4:144 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ۗ أَتُرِيدُونَ أَن تَجْعَلُوا لِلَّهِ عَلَيْكُمْ سُلْطَانًا مُّبِينًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • يَا أَيُّهَا (Ya Ayyuha): हे ऐसे लोगों!

  • الَّذِينَ آمَنُوا (Alladhina Aamanu): जो ईमान लाए।

  • لَا تَتَّخِذُوا (La Tattakhidhu): तुम मत बना लो।

  • الْكَافِرِينَ (Al-Kafireen): काफिरों को।

  • أَوْلِيَاءَ (Awliya'a): दोस्त/रक्षक/संरक्षक।

  • مِن دُونِ (Min Dooni): छोड़कर, के सिवा।

  • الْمُؤْمِنِينَ (Al-Mu'mineen): ईमान वालों के।

  • أَتُرِيدُونَ (A-turidoon): क्या तुम चाहते हो?

  • أَن تَجْعَلُوا (An Taj'aloo): कि तुम बना दो।

  • لِلَّهِ (Lillahi): अल्लाह के लिए (अल्लाह की ओर से)।

  • عَلَيْكُمْ (Alaikum): तुम पर।

  • سُلْطَانًا (Sultanan): एक स्पष्ट प्रमाण/अधिकार।

  • مُّبِينًا (Mubeenan): स्पष्ट, खुला हुआ।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

इस आयत का संदर्भ भी उन मुनाफिकीन (पाखंडियों) से है जो मुसलमान होने का दिखावा तो करते थे, लेकिन असल में काफिरों से गुप्त संबंध और दोस्ती रखते थे। वह मुसलमानों के बीच रहकर उनकी गोपनीय बातें और कमजोरियां काफिरों तक पहुंचाते थे।

आयत का भावार्थ: "ऐ ईमान वालो! ईमान लाने वालों को छोड़कर काफिरों को अपना दोस्त/संरक्षक न बनाओ। क्या तुम चाहते हो कि (अपने इस काम से) अल्लाह के पास तुम्हारे खिलाफ एक स्पष्ट सबूत हो जाए?" (यानी अल्लाह तुमसे पूछे कि जब तुमने मेरे दुश्मनों को ही अपना दोस्त बना लिया, तो फिर तुम्हारे अज़ाब के हक़दार नहीं हो?)

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत ईमान वालों को उनकी निष्ठा और वफादारी के मामले में एक स्पष्ट और सख्त चेतावनी देती है।

  • विलाया (दोस्ती और संरक्षण): यहां 'अवलिया' शब्द का मतलब सिर्फ सामान्य दोस्ती नहीं है, बल्कि वह गहरी आत्मीयता, समर्थन और निष्ठा है जो एक व्यक्ति अपने समुदाय और धर्म के भाइयों के लिए रखता है। अल्लाह का आदेश है कि यह निष्ठा और समर्थन का रिश्ता सिर्फ और सिर्फ ईमान वालों के साथ ही होना चाहिए।

  • 'छोड़कर' (मिन दून) का महत्व: यह शब्द बहुत अहम है। इसका मतलब यह नहीं है कि दुनियावी मामलों में गैर मुस्लिमों के साथ न्यायपूर्ण और अच्छे व्यवहार की मनाही है। बल्कि इसका मतलब यह है कि ईमान वालों को हटाकर या उनकी अनदेखी करके गैर मुस्लिमों को अपना खास दोस्त, सलाहकार और रक्षक न बनाया जाए। ईमान वालों का हक है कि उनके साथ सबसे मजबूत और विश्वसनीय रिश्ता हो।

  • तर्क और चेतावनी (أَتُرِيدُونَ...): अल्लाह यहां एक डरावने सवाल के जरिए समझाते हैं। जब एक मुसलमान काफिरों को अपना संरक्षक बनाता है, तो वह खुद अपने खिलाफ अल्लाह के लिए एक "सुल्तानान मुबीना" (स्पष्ट प्रमाण) पैदा कर देता है। यानी कयामत के दिन अल्लाह उससे कह सकता है, "तुमने खुद ही मेरे दुश्मनों को चुना और मेरे दोस्तों (मोमिनीन) को छोड़ दिया, अब तुम मेरे अज़ाब के हकदार क्यों न बनो?" यह एक तार्किक और दिल दहला देने वाली चेतावनी है।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. निष्ठा की शुद्धता: ईमान सिर्फ मानने का नाम नहीं, बल्कि एक पूरी निष्ठा और वफादारी (लॉयल्टी) का नाम है। एक मुसलमान की सर्वोच्च वफादारी अल्लाह, उसके रसूल और ईमान वालों के लिए होनी चाहिए।

  2. दोस्ती के मापदंड: दोस्ती और शत्रुता का आधार ईमान-कुफ्र होना चाहिए, न कि जाति, राष्ट्रीयता या दुनियावी फायदा। जो अल्लाह और उसके दीन का दुश्मन है, उसे दिल का दोस्त नहीं बनाया जा सकता।

  3. गुप्त शत्रु से सावधानी: यह आयत मोमिनीन को सिखाती है कि वह उन लोगों से सावधान रहें जो ऊपर से दोस्त बनकर अंदर से दुश्मनी की फिराक में हों। ऐसे लोग समाज और उम्मत की एकता और सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आदेश मदीना की उस स्थिति में बहुत जरूरी था जहां एक छोटा सा मुस्लिम समुदाय शक्तिशाली काफिर कबीलों से घिरा हुआ था। ऐसे में मुनाफिकों की गद्दारी पूरे समुदाय के अस्तित्व के लिए खतरा थी। इस आयत ने मोमिनीन के बीच एकजुटता और भाईचारे को मजबूत किया।

  • वर्तमान (Present) में: आज यह आयत अत्यधिक प्रासंगिक है।

    • वैचारिक युद्ध: आज मुसलमानों के खिलाफ एक वैचारिक, सांस्कृतिक और मीडिया युद्ध लड़ा जा रहा है। ऐसे में, मुसलमानों का अपने भाइयों के प्रति वफादार रहना और उन्हीं से मदद की उम्मीद रखना बेहद जरूरी है।

    • पहचान का संकट: पश्चिमी समाजों में रह रहे कई मुसलमानों के सामने एक पहचान का संकट है। यह आयत उन्हें यह याद दिलाती है कि उनकी असली पहचान और प्राथमिक वफादारी उनके ईमान और उम्माह के प्रति है, न कि उन राष्ट्रों के प्रति जो इस्लाम के मूल्यों के विरोध में हैं।

    • सोशल मीडिया और जानकारी: आज कोई भी व्यक्ति या समूह मुसलमानों के खिलाफ जहर उगल रहा है, उसके प्रोपेगेंडा को फैलाने में मुसलमानों का ही कोई व्यक्ति शामिल न हो, यह इस आयत का ही संदेश है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक ईमान और कुफ्र का अस्तित्व रहेगा, यह आयत मुसलमानों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत बनी रहेगी। यह हमेशा यह सिखाती रहेगी कि एक मुसलमान की दोस्ती और दुश्मनी का आधार उसका ईमान होना चाहिए। भविष्य की चुनौतियां चाहे कुछ भी हों, अपने ईमान और अपने ईमानी भाइयों के साथ वफादारी ही सच्ची कामयाबी की कुंजी है।

निष्कर्ष: सूरह अन-निसा की यह आयत ईमान वालों के लिए एक स्पष्ट मार्गदर्शन है। यह उन्हें सिखाती है कि उनकी वफादारी और दोस्ती का दायरा ईमान तक ही सीमित होना चाहिए। यह कोई नफरत का संदेश नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व और पहचान को बचाए रखने का एक महत्वपूर्ण सबक है।