कुरआन की आयत 4:150 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"إِنَّ الَّذِينَ يَكْفُرُونَ بِاللَّهِ وَرُسُلِهِ وَيُرِيدُونَ أَن يُفَرِّقُوا بَيْنَ اللَّهِ وَرُسُلِهِ وَيَقُولُونَ نُؤْمِنُ بِبَعْضٍ وَنَكْفُرُ بِبَعْضٍ وَيُرِيدُونَ أَن يَتَّخِذُوا بَيْنَ ذَٰلِكَ سَبِيلًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • إِنَّ (Inna): निश्चित रूप से।

  • الَّذِينَ (Alladhīna): वे लोग जो।

  • يَكْفُرُونَ (Yakfurūna): इनकार करते हैं, कुफ्र करते हैं।

  • بِاللَّهِ (Billāhi): अल्लाह से।

  • وَرُسُلِهِ (Wa Rusulihi): और उसके रसूलों से।

  • وَيُرِيدُونَ (Wa Yurīdūna): और वे चाहते हैं।

  • أَن (An): कि।

  • يُفَرِّقُوا (Yufarriqū): वे अलगाव (फर्क) पैदा करें।

  • بَيْنَ (Bayna): के बीच।

  • اللَّهِ (Allāhi): अल्लाह के।

  • وَرُسُلِهِ (Wa Rusulihi): और उसके रसूलों के।

  • وَيَقُولُونَ (Wa Yaqūlūna): और वे कहते हैं।

  • نُؤْمِنُ (Nu'minu): हम ईमान लाते हैं।

  • بِبَعْضٍ (Biba'ḍin): कुछ पर।

  • وَنَكْفُرُ (Wa Nakfuru): और हम इनकार करते हैं।

  • بِبَعْضٍ (Biba'ḍin): कुछ से।

  • وَيُرِيدُونَ (Wa Yurīdūna): और वे चाहते हैं।

  • أَن (An): कि।

  • يَتَّخِذُوا (Yattakhidhū): वे अपनाएं, बना लें।

  • بَيْنَ (Bayna): के बीच।

  • ذَٰلِكَ (Dhālika): उस (ईमान और कुफ्र) के।

  • سَبِيلًا (Sabeelan): एक रास्ता, एक मार्ग।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत और इसके बाद वाली आयत (151) एक नए प्रकार के कुफ्र (इनकार) और गुमराही को उजागर करती हैं। यह उन लोगों की मानसिकता को बयान करती है जो खुले कुफ्र और सच्चे ईमान के बीच एक "ढुलमुल" रास्ता ढूंढना चाहते हैं। यह आयत उनकी सोच और दावों का वर्णन करती है।

आयत का भावार्थ: "निश्चित रूप से जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों का इनकार करते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह और उसके रसूलों के बीच अलगाव पैदा कर दें, और कहते हैं कि 'हम कुछ (रसूलों) पर ईमान लाते हैं और कुछ का इनकार करते हैं', और चाहते हैं कि (ईमान और कुफ्र) के बीच कोई (ढुलमुल) रास्ता अपना लें।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत एक गहरी आस्थागत बीमारी को दर्शाती है, जो सीधे कुफ्र से भी ज्यादा खतरनाक हो सकती है क्योंकि यह भ्रम पैदा करती है।

इन लोगों के चार प्रमुख अपराध:

  1. अल्लाह और उसके सभी रसूलों का इनकार (यकफुरूना बिल्लाहि वा रुसुलिही): यहां 'रसूलों का इनकार' एक विशेष अर्थ रखता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह सभी रसूलों के अस्तित्व से इनकार करते हैं, बल्कि वह अल्लाह द्वारा भेजे गए रिसालत के सिद्धांत को ही नकारते हैं। वह अल्लाह की ओर से किसी भी रसूल की आवश्यकता और अधिकार को स्वीकार नहीं करते।

  2. अल्लाह और रसूलों के बीच फर्क करना (युरीदूना अय्युफर्रिकू बैनल्लाहि वा रुसुलिही): यह बहुत बड़ा पाप है। ये लोग चाहते हैं कि अल्लाह को तो मान लिया जाए, लेकिन उसके भेजे हुए रसूलों और विशेष रूप से हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के अधिकार को न माना जाए। वह कहते हैं कि "हमें सीधे अल्लाह की किताब (जैसे इंजील, तौरात) चाहिए, रसूल नहीं चाहिए।" यह दरअसल अल्लाह के मार्गदर्शन के तरीके में दखल देने जैसा है।

  3. चुनिंदा ईमान (यकूलूना नू'मिनु बिबा'ज़िव वा नकफुरु बिबा'ज़िन): यह उनकी सबसे बड़ी गलती है। वह कहते हैं, "हम मूसा (अलैहिस्सलाम) पर ईमान लाते हैं, लेकिन ईसा (अलैहिस्सलाम) पर नहीं," या "हम ईसा पर ईमान लाते हैं, लेकिन मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर नहीं।" यह ईमान की एकता के सिद्धांत के खिलाफ है। एक सच्चा मोमिन अल्लाह के सभी रसूलों पर बिना किसी भेदभाव के ईमान लाता है।

  4. एक ढुलमुल रास्ता अपनाना (युरीदूना अय्यत्तखिज़ू बैना ज़ालिका सबील): ये लोग न तो पूरे तौर पर ईमान लाना चाहते हैं और न ही खुलेआम कुफ्र करना चाहते हैं। वह एक ऐसा "थर्ड वे" या "मध्यमार्ग" ढूंढना चाहते हैं जहां उन्हें दुनिया में मोमिन कहलाया जाए और आखिरत में भी उनसे नरमी बरती जाए। वह ईमान और कुफ्र के बीच एक धुंधला सा रास्ता बनाना चाहते हैं।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. ईमान एक पूर्ण समर्पण है: ईमान टुकड़ों में स्वीकार करने की चीज नहीं है। यह 'ऑल ऑर नथिंग' का सिद्धांत है। या तो अल्लाह और उसके सभी रसूलों पर पूरा ईमान लाओ, या फिर कुफ्र का रास्ता अपनाओ। बीच का कोई रास्ता नहीं है।

  2. रसूलों में भेदभाव निषिद्ध: एक मुसलमान के लिए यह जरूरी है कि वह अल्लाह के सभी रसूलों पर समान रूप से ईमान रखे। किसी एक रसूल को मानना और दूसरे को नकारना स्पष्ट कुफ्र है।

  3. धर्म में समझौता नहीं: ईमान की बुनियादों पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। दुनियावी फायदे या सामाजिक दबाव के कारण अपने आस्था के सिद्धांतों से समझौता करना इस आयत में बताई गई गुमराही है।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत विशेष रूप से मदीना के यहूदियों और मुनाफिकों (पाखंडियों) पर लागू होती थी। यहूदी दावा करते थे कि वह हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) पर ईमान रखते हैं लेकिन हज़रत ईसा और हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान नहीं लाते। मुनाफिक भी इसी तरह का ढोंग करते थे।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • सेलेक्टिव इस्लाम (चुनिंदा इस्लाम): आज बहुत से लोग हैं जो इस्लाम के कुछ हिस्सों को मानते हैं और कुछ हिस्सों को नहीं। वह कहते हैं, "हम नमाज़ तो पढ़ेंगे, लेकिन हिजाब नहीं करेंगे," या "हम रोज़ा रखेंगे, लेकिन सूद (ब्याज) नहीं छोड़ेंगे।" वह इस्लाम को अपनी सुविधा के अनुसार "एडिट" करना चाहते हैं। यह ठीक वही "हम कुछ पर ईमान लाते हैं और कुछ से इनकार करते हैं" वाली मानसिकता है।

    • "स्पिरिचुअल बट नॉट रिलीजियस" का ट्रेंड: आज एक फैशन है कि लोग कहते हैं, "मैं आध्यात्मिक हूं, धार्मिक नहीं।" उनका मतलब होता है कि वह अल्लाह पर तो विश्वास रखते हैं, लेकिन उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बताए हुए रास्ते और कानून (शरीयत) को नहीं मानते। यह सीधे तौर पर "अल्लाह और उसके रसूलों के बीच फर्क करने" जैसा है।

    • इंटरफेथ डायलॉग में गलतफहमी: कुछ लोग अलग-अलग धर्मों के बीच सामंजस्य बिठाने के नाम पर यह कहने लगते हैं कि "सभी रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं, इसलिए सभी धर्म सही हैं।" एक मुसलमान के लिए यह दृष्टिकोण गलत है। हम सभी रसूलों का सम्मान करते हैं, लेकिन ईमान सिर्फ अल्लाह और उसके अंतिम रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) द्वारा लाए गए पूर्ण धर्म पर ही संपूर्ण है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक दुनिया रहेगी, लोग धर्म के मामले में आसान और ढुलमुल रास्ते की तलाश करते रहेंगे। भविष्य की और भी जटिल दुनिया में यह आयत हमेशा मुसलमानों को यह याद दिलाती रहेगी कि ईमान एक स्पष्ट, पूर्ण और अटल सिद्धांत है। इसमें कोई समझौता या चुनिंदा व्यवहार स्वीकार्य नहीं है। यह आयत भविष्य के सभी "सेलेक्टिव मुसलमानों" के लिए एक स्थायी चेतावनी बनी रहेगी।

निष्कर्ष: सूरह अन-निसा की यह आयत हमें ईमान की शुद्धता और पूर्णता का पाठ पढ़ाती है। यह सिखाती है कि अल्लाह और उसके रसूल के बीच कोई अलगाव नहीं है। जिसने रसूल को नकारा, उसने अल्लाह को नकार दिया। ईमान एक संपूर्ण इकाई है, जिसके कुछ हिस्सों को लेकर कुछ हिस्सों को छोड़ने की कोई गुंजाइश नहीं है। यह आयत हमें हर प्रकार की आस्थागत दुविधा और समझौते से बचने की स्पष्ट चेतावनी देती है।