(1) पूरी आयत अरबी में:
"وَالَّذِينَ آمَنُوا بِاللَّهِ وَرُسُلِهِ وَلَمْ يُفَرِّقُوا بَيْنَ أَحَدٍ مِّنْهُمْ أُولَٰئِكَ سَوْفَ يُؤْتِيهِمْ أُجُورَهُمْ ۗ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا"
(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):
وَالَّذِينَ (Walladhīna): और वे लोग जो।
آمَنُوا (Āmanū): ईमान लाए।
بِاللَّهِ (Billāhi): अल्लाह पर।
وَرُسُلِهِ (Wa Rusulihi): और उसके रसूलों पर।
وَلَمْ (Wa Lam): और उन्होंने नहीं किया।
يُفَرِّقُوا (Yufarriqū): अंतर/भेदभाव किया।
بَيْنَ (Bayna): के बीच।
أَحَدٍ (Aḥadin): किसी एक के बीच में भी।
مِّنْهُمْ (Minhum): उनमें से (रसूलों में से)।
أُولَٰئِكَ (Ulā'ika): वे ही लोग।
سَوْفَ (Sawfa): जल्द ही (भविष्य में)।
يُؤْتِيهِمْ (Yu'tīhim): देगा उन्हें।
أُجُورَهُمْ (Ujūrahum): उनके पुरस्कार।
وَكَانَ (Wa Kāna): और है (हमेशा से)।
اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।
غَفُورًا (Ghafūran): अत्यंत क्षमा करने वाला।
رَّحِيمًا (Raḥīman): अत्यंत दयावान।
(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:
यह आयत पिछली दो आयतों (4:150-151) का सीधा और सकारात्मक विपरीत (Contrast) पेश करती है। जहां पिछली आयतों में उन लोगों का वर्णन था जो अल्लाह और उसके रसूलों के बीच फर्क करते हैं और जिन्हें "सच्चे काफिर" घोषित किया गया, वहीं यह आयत उन सच्चे मोमिनीन के गुण और उनके इनाम का वर्णन करती है जो इस भेदभाव से पूरी तरह मुक्त हैं।
आयत का भावार्थ: "और जो लोग अल्लाह और उसके सभी रसूलों पर ईमान लाए और उनमें से किसी एक के बीच में भी भेदभाव नहीं किया, तो जल्द ही अल्लाह उन्हें उनका पूरा-पूरा प्रतिफल देगा। और अल्लाह बड़ा क्षमाशील, अत्यंत दयावान है।"
(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):
यह आयत एक सच्चे मोमिन की पहचान और उसकी सफलता की गारंटी को बयान करती है।
सच्चे मोमिन के दो मुख्य गुण:
ईमान बिल्लाहि वा रुसुलिही (अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान): यहां "रसूलों" का तात्पर्य अल्लाह के उन सभी पैगम्बरों से है जिनका उल्लेख कुरआन में है या जिन्हें अल्लाह ने दुनिया में भेजा। इसमें हज़रत आदम से लेकर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तक सभी शामिल हैं।
"वा लम युफर्रिकू बैना अहदिम मिनहुम" (और उनमें से किसी एक के बीच में भी भेदभाव नहीं किया): यह वाक्यांश बेहद महत्वपूर्ण है।
"बैना अहदिम मिनहुम" का मतलब है "उनमें से किसी एक के बीच में भी"। यानी सच्चा मोमिन न तो अल्लाह और किसी रसूल के बीच भेद करता है, और न ही एक रसूल और दूसरे रसूल के बीच।
वह सभी रसूलों को अल्लाह का भेजा हुआ मानता है, सभी का सम्मान करता है, और सभी पर समान रूप से ईमान रखता है। वह यह नहीं कहता कि "मैं मूसा को मानता हूं लेकिन ईसा को नहीं" या "मैं इब्राहीम को मानता हूं लेकिन मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को नहीं।"
सच्चे मोमिन का इनाम:
"सौफा युतीहिम उजूरहुम" (जल्द ही अल्लाह उन्हें उनका पूरा-पूरा प्रतिफल देगा): यहाँ "उजूर" का मतलब है बदला, प्रतिफल या इनाम। यह इनाम जन्नत की शक्ल में होगा, अल्लाह की रज़ामंदी की शक्ल में होगा और उस अनंत सुख की शक्ल में होगा जिसका वादा अल्लाह ने ईमान वालों से किया है। "सौफा" (जल्द ही) शब्द आखिरत की निकटता को दर्शाता है।
अल्लाह की सिफात: "वा कानल्लाहु गफूरर रहीम"
गफूर (अत्यंत क्षमा करने वाला): अल्लाह अपने बंदों की गलतियों और कमियों को माफ कर देता है। भले ही एक मोमिन से कोई छोटी-मोटी गलती हो जाए, अगर उसका ईमान सही और पूरा है तो अल्लाह उसे माफ कर देगा।
रहीम (अत्यंत दयावान): अल्लाह की दया बेहिसाब है। वह न केवल गुनाह माफ करता है बल्कि अपने बंदों के थोड़े से अच्छे अमलों को बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर स्वीकार करता है और उसका बेहिसाब बदला देता है।
(5) शिक्षा और सबक (Lesson):
ईमान की पूर्णता: सच्चा ईमान वही है जो अल्लाह और उसके सभी रसूलों को एक साथ और बिना किसी भेदभाव के माने। यह ईमान की सबसे पहली और मूल शर्त है।
सभी पैगम्बरों का सम्मान: एक मुसलमान का फर्ज है कि वह दुनिया के सभी पैगम्बरों का आदर और सम्मान करे। किसी एक पैगम्बर का अपमान करना या उसे न मानना, सभी को न मानने के समान है।
आखिरत पर विश्वास: इस आयत से हमें आखिरत के इनाम पर पक्का यकीन होना चाहिए। अल्लाह ने सच्चे ईमान का इनाम देने का वादा किया है और अल्लाह अपने वादे का पक्का है।
(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) में: यह आयत प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय के लिए एक स्पष्ट मार्गदर्शन थी। इसने उन्हें यहूदियों और ईसाइयों की उस सोच से अलग किया जो कुछ रसूलों को मानते थे और कुछ को नहीं। इसने उनके ईमान को शुद्ध और पूर्ण बनाया।
समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज के दौर में यह आयत बेहद प्रासंगिक है।
अंतर-धार्मिक संवाद (Interfaith Dialogue): आज जब अलग-अलग धर्मों के लोग एक साथ बैठते हैं, तो एक मुसलमान का यह कर्तव्य है कि वह दूसरे धर्मों के पैगम्बरों का अपमान न करे, बल्कि उनका सम्मान करे, क्योंकि वह उन सब पर ईमान रखता है। हां, वह यह जरूर स्पष्ट कर सकता है कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के अंतिम और सार्वभौमिक रसूल हैं।
"कुरआन-ओनली" मानसिकता: आज कुछ लोगों का एक समूह है जो कहता है कि "हम केवल कुरआन मानते हैं, हदीस (रसूल की शिक्षाएं) नहीं मानते।" यह आयत स्पष्ट रूप से उनकी इस सोच का खंडन करती है। जो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और अल्लाह के बीच फर्क करता है, वह सच्चा मोमिन नहीं हो सकता।
एकता का संदेश: यह आयत मुसलमानों के भीतर एकता का संदेश देती है। यह हमें सिखाती है कि हमारा ईमान एक ही स्रोत से आता है और हम सभी एक ही अकीदा (विश्वास) को मानते हैं, जिससे हमारे बीच भाईचारा और एकजुटता पैदा होती है।
भविष्य (Future) में: जब तक दुनिया में विभिन्न धर्म और विश्वास रहेंगे, यह आयत मुसलमानों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शक सिद्धांत बनी रहेगी। यह भविष्य की पीढ़ियों को यह याद दिलाती रहेगी कि उनकी पहचान "ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदुर रसूलुल्लाह" के सिद्धांत में है, जिसमें अल्लाह की एकता और उसके अंतिम रसूल पर ईमान शामिल है, साथ ही सभी पूर्ववर्ती रसूलों पर भी पूर्ण विश्वास शामिल है। यह आयत भविष्य के सभी "सेलेक्टिव मुसलमानों" के लिए एक कसौटी का काम करेगी।
निष्कर्ष: सूरह अन-निसा की यह आयत सच्चे ईमान की परिभाषा और उसके अनंत इनाम का सुंदर वर्णन है। यह हमें बताती है कि अल्लाह की नजर में सफलता उन्हीं लोगों के लिए है जो अल्लाह और उसके सभी रसूलों पर पूर्ण और अविभाजित ईमान रखते हैं। यह आयत हमारे लिए एक आशा और खुशखबरी है कि अगर हमारा ईमान सही और पूर्ण है, तो अल्लाह का अनंत इनाम और उसकी बेहिसाब दया और माफी हमारा इंतजार कर रही है।