कुरआन की आयत 4:153 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"يَسْأَلُكَ أَهْلُ الْكِتَابِ أَن تُنَزِّلَ عَلَيْهِمْ كِتَابًا مِّنَ السَّمَاءِ ۚ فَقَدْ سَأَلُوا مُوسَىٰ أَكْبَرَ مِن ذَٰلِكَ فَقَالُوا أَرِنَا اللَّهَ جَهْرَةً فَأَخَذَتْهُمُ الصَّاعِقَةُ بِظُلْمِهِمْ ۚ ثُمَّ اتَّخَذُوا الْعِجْلَ مِن بَعْدِ مَا جَاءَتْهُمُ الْبَيِّنَاتُ فَعَفَوْنَا عَن ذَٰلِكَ ۚ وَآتَيْنَا مُوسَىٰ سُلْطَانًا مُّبِينًا"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • يَسْأَلُكَ (Yas'aluka): तुमसे माँगते हैं, पूछते हैं।

  • أَهْلُ (Ahlु): लोग।

  • الْكِتَابِ (Al-Kitābi): किताब (के, यानू ईसाई)।

  • أَن (An): कि।

  • تُنَزِّلَ (Tunazzila): तुम उतारो।

  • عَلَيْهِمْ (Alayhim): उन पर।

  • كِتَابًا (Kitāban): एक किताब।

  • مِّنَ (Mina): से।

  • السَّمَاءِ (As-Samā'i): आसमान।

  • فَقَدْ (Faqad): तो निश्चित रूप से।

  • سَأَلُوا (Sa'alū): उन्होंने माँगा था।

  • مُوسَىٰ (Mūsā): मूसा (अलैहिस्सलाम) से।

  • أَكْبَرَ (Akbara): अधिक बड़ी (चीज़)।

  • مِن (Min): से।

  • ذَٰلِكَ (Dhālika): उस (माँग) से।

  • فَقَالُوا (Fa-qālū): तो उन्होंने कहा।

  • أَرِنَا (Arinā): हमें दिखाओ।

  • اللَّهَ (Allāha): अल्लाह को।

  • جَهْرَةً (Jahratan): खुल्लमखुल्ला, स्पष्ट रूप से।

  • فَأَخَذَتْهُمُ (Fa-akhathathumu): तो पकड़ लिया उन्हें।

  • الصَّاعِقَةُ (As-Sā'iqatu): बिजली का तड़प/प्रलय।

  • بِظُلْمِهِمْ (Bi-zulmihim): उनके अत्याचार (जिद) के कारण।

  • ثُمَّ (Thumma): फिर, इसके बाद।

  • اتَّخَذُوا (Ittakhadhū): उन्होंने बना लिया।

  • الْعِجْلَ (Al-'Ijla): बछड़े (की मूर्ति) को।

  • مِن بَعْدِ (Min ba'di): के बाद।

  • مَا (Mā): जब।

  • جَاءَتْهُمُ (Jā'athumu): आ चुके थे उनके पास।

  • الْبَيِّنَاتُ (Al-Bayyinātu): स्पष्ट प्रमाण (मोजिज़े)।

  • فَعَفَوْنَا (Fa-'afawnā): तो हमने माफ़ कर दिया।

  • عَن (ʿAn): से।

  • ذَٰلِكَ (Dhālika): उस (गुनाह) को।

  • وَآتَيْنَا (Wa Ātaynā): और हमने दिया।

  • مُوسَىٰ (Mūsā): मूसा (अलैहिस्सलाम) को।

  • سُلْطَانًا (Sulṭānan): स्पष्ट प्रमाण/अधिकार।

  • مُّبِينًا (Mubīnan): साफ़, स्पष्ट।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत मदीना के यहूदियों के एक और दुराग्रह का जवाब है। वह नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहते थे कि यदि आप सच्चे पैगम्बर हैं तो हमारे लिए आसमान से कोई किताब सीधे उतार लाएं। इस आयत में अल्लाह उनकी इस हठधर्मिता का जवाब देते हुए उनके पूर्वजों के इतिहास से एक उदाहरण पेश करता है कि तुम्हारे बाप-दादा भी इससे भी बड़ी माँग कर चुके हैं और उसका क्या नतीजा हुआ था।

आयत का भावार्थ: "ऐ पैगम्बर! अहले-किताब (यहूदी) तुमसे माँग करते हैं कि तुम उनके लिए आसमान से कोई किताब उतार लाओ। हालांकि उन्होंने मूसा से इससे भी बड़ी चीज़ माँगी थी, उन्होंने कहा था: "हमें अल्लाह को खुल्लमखुल्ला दिखाओ।" तो उनके इस ज़ुल्म (हठ) के कारण बिजली का कड़का (प्रलय) ने उन्हें आ लिया। फिर उन्होंने साफ़-साफ़ निशानियाँ आ जाने के बाद बछड़े को (माबूद) बना लिया, फिर भी हमने उस (गुनाह) को माफ़ कर दिया और हमने मूसा को खुल्ली हुज्जत (स्पष्ट प्रमाण) प्रदान की।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत अहले-किताब (यहूदियों) की हठधर्मिता और अविश्वास की प्रवृत्ति को उजागर करती है।

  • अनुचित माँग: यहूदी पैगम्बर से एक तमाशा (Miracle on demand) की माँग कर रहे थे। उनकी माँग ईमान लाने के लिए नहीं, बल्कि पैगम्बर को परखने और उनका मज़ाक उड़ाने के लिए थी। ईमान तो दिल से स्वीकार करने का नाम है, न कि जबरदस्ती मोजिजे देखकर मानने का।

  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - पहला पाप: "हमें अल्लाह को खुल्लमखुल्ला दिखाओ"

    • यह माँग कुफ्र और अविश्वास की चरम सीमा थी। अल्लाह नूर (प्रकाश) है, उसे भौतिक आँखों से देखना संभव नहीं। इस माँग ने उनकी अवज्ञा और अत्याचार (ज़ुल्म) को दर्शाया।

    • सजा: इसकी सजा में एक भीषण बिजली का कड़का (साइक़ा) आया जिसने उन्हें झकझोर कर रख दिया।

  • दूसरा पाप: बछड़े की पूजा

    • हैरानी की बात यह है कि इतनी बड़ी सजा और मूसा (अलैहिस्सलाम) के स्पष्ट मोजिज़े (जैसे लाठी का साँप बनना, हाथ का चमकना आदि) देखने के बाद भी, जब मूसा (अलैहिस्सलाम) तूर पहाड़ पर गए, तो उन्होंने एक साँचे में ढले हुए बछड़े की पूजा शुरू कर दी। यह शिर्क (अल्लाह के साथ साझी ठहराना) का सबसे बड़ा गुनाह था।

  • अल्लाह की दया: "फ़ा-अफ़वना अन ज़ालिक" (तो हमने उसे माफ़ कर दिया)

    • यह अल्लाह की असीम दया को दर्शाता है। शिर्क जैसे घोर पाप के बाद भी, जब उन्होंने तौबा की, तो अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया। यह दिखाता है कि अल्लाह की माफ़ी कितनी विशाल है।

  • मूसा (अलैहिस्सलाम) का समर्थन: "वा आतैना मूसा सुल्तानम मुबीना" (और हमने मूसा को स्पष्ट प्रमाण दिए)

    • इसके बावजूद कि उनकी कौम ने उनका साथ नहीं दिया, अल्लाह ने मूसा (अलैहिस्सलाम) का समर्थन जारी रखा और उन्हें और भी स्पष्ट प्रमाण और अधिकार दिए।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. ईमान के लिए बहाने न ढूंढें: ईमान दिल की शुद्धता और सच्ची तलाश का नाम है। अगर इंसान मानना नहीं चाहता तो वह हजारों माँगें और शर्तें लगा सकता है। सच्चा ईमान उसके लिए है जो सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार है।

  2. अल्लाह की महानता का एहसास: अल्लाह सृष्टि का पालनहार है, कोई तमाशा दिखाने वाला नहीं। उसे मनुष्य की शर्तों पर अपनी निशानियाँ दिखानी की जरूरत नहीं है। प्रकृति और कुरआन की आयतें ही उसके अस्तित्व के लिए पर्याप्त प्रमाण हैं।

  3. अल्लाह की दया से निराश न हों: कोई भी इंसान कितना भी बड़ा गुनाह क्यों न करे, अगर वह सच्चे दिल से तौबा करे तो अल्लाह की दया और माफ़ी उसके लिए तैयार है, जैसा कि बनी इसराईल के मामले में हुआ।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय के यहूदियों की हठधर्मिता का जवाब थी और उन्हें उनके अपने इतिहास से सबक सिखाती थी।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • विज्ञान और ईमान: आज कुछ लोग कहते हैं, "अगर अल्लाह है तो उसे वैज्ञानिक रूप से साबित करो," या "कोई चमत्कार दिखाओ।" यह आयत बताती है कि यह नासमझी और हठ का ही एक आधुनिक रूप है। ईमान विज्ञान और तर्क के विपरीत नहीं है, लेकिन वह दिल का एक कदम है जो सबूतों को देखने के बाद उठाया जाता है।

    • धार्मिक हठधर्मिता: आज भी कई लोग धर्म को स्वीकार करने के लिए तरह-तरह की शर्तें लगाते हैं। वह कहते हैं, "अगर ऐसा हो जाए तो मैं मानूंगा।" यह आयत ऐसी मानसिकता को गलत ठहराती है।

    • आध्यात्मिक असंतोष: बनी इसराईल की तरह, आज भी कुछ लोगों का ईमान कमजोर होता है। वह एक संकट के बाद दूसरे में पड़ जाते हैं और आसान रास्ते (जैसे बछड़े की पूजा) की तलाश में भटक जाते हैं, जो आधुनिक समय में धन, शोहरत, शक्ति आदि की मूर्तिपूजा के रूप में सामने आता है।

  • भविष्य (Future) में: जब तक इंसान रहेगा, वह तार्किक और वैज्ञानिक दबाव में ईमान के लिए "दृश्य प्रमाण" की माँग करता रहेगा। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को यह याद दिलाती रहेगी कि ईमान अंधविश्वास नहीं है, बल्कि यह बुद्धि और हृदय का सामंजस्य है। यह उन्हें सिखाती रहेगी कि अल्लाह की निशानियाँ पहले से ही ब्रह्मांड और हमारे अपने अस्तित्व में मौजूद हैं, बस जरूरत है उन्हें देखने और समझने की।

निष्कर्ष: यह आयत हमें सिखाती है कि ईमान की राह हठ और तमाशेबीनी की नहीं, बल्कि विनम्रता और सत्य की तलाश की है। अल्लाह ने अपने पैगम्बरों और किताबों के माध्यम से मार्गदर्शन भेज दिया है। अब हमारा फर्ज है कि हम उसे दिल से स्वीकार करें, उस पर अमल करें और अल्लाह की असीम दया और माफ़ी के हकदार बनें।