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कुरआन की आयत 4:176 की पूर्ण व्याख्या

 (1) पूरी आयत अरबी में:

"يَسْتَفْتُونَكَ قُلِ اللَّهُ يُفْتِيكُمْ فِي الْكَلَالَةِ ۚ إِنِ امْرُؤٌ هَلَكَ لَيْسَ لَهُ وَلَدٌ وَلَهُ أُخْتٌ فَلَهَا نِصْفُ مَا تَرَكَ ۚ وَهُوَ يَرِثُهَا إِن لَّمْ يَكُن لَّهَا وَلَدٌ ۚ فَإِن كَانَتَا اثْنَتَيْنِ فَلَهُمَا الثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَ ۚ وَإِن كَانُوا إِخْوَةً رِّجَالًا وَنِسَاءً فَلِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْأُنثَيَيْنِ ۗ يُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمْ أَن تَضِلُّوا ۗ وَاللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ"

(2) आयत के शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning):

  • يَسْتَفْتُونَكَ (Yastaftūnaka): वे तुमसे फतवा (निर्णय) पूछते हैं।

  • قُلِ (Qul): तुम कह दो।

  • اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।

  • يُفْتِيكُمْ (Yuftīkum): तुम्हें फतवा देता है।

  • فِي (Fī): में।

  • الْكَلَالَةِ (Al-kalālati): कलाला (वारिसों का एक विशेष मामला)।

  • إِنِ (Ini): यदि।

  • امْرُؤٌ (Imru'un): कोई व्यक्ति।

  • هَلَكَ (Halaka): मर जाए।

  • لَيْسَ (Laysa): नहीं है।

  • لَهُ (Lahu): उसके।

  • وَلَدٌ (Waladun): कोई संतान (बेटा या बेटी)।

  • وَلَهُ (Wa lahu): और उसके।

  • أُخْتٌ (Ukhtun): एक बहन है।

  • فَلَهَا (Fa lahā): तो उसके लिए।

  • نِصْفُ (Niṣfu): आधा।

  • مَا (Mā): जो।

  • تَرَكَ (Taraka): उसने छोड़ा।

  • وَهُوَ (Wa huwa): और वह (भाई)।

  • يَرِثُهَا (Yarithuhā): उससे वारिस होगा।

  • إِن (In): यदि।

  • لَّمْ (Lam): नहीं।

  • يَكُن (Yakun): हो।

  • لَّهَا (Lahā): उसके (बहन के)।

  • وَلَدٌ (Waladun): कोई संतान।

  • فَإِن (Fa-in): तो यदि।

  • كَانَتَا (Kānatā): वे दोनों हो।

  • اثْنَتَيْنِ (Ithnatayni): दो।

  • فَلَهُمَا (Fa lahumā): तो उन दोनों के लिए।

  • الثُّلُثَانِ (Ath-thuluthāni): दो-तिहाई।

  • مِمَّا (Mimmā): उसमें से।

  • تَرَكَ (Taraka): उसने छोड़ा।

  • وَإِن (Wa in): और यदि।

  • كَانُوا (Kānū): वे हो।

  • إِخْوَةً (Ikhwatan): भाई-बहन।

  • رِّجَالًا (Rijālan): पुरुष।

  • وَنِسَاءً (Wa nisā'an): और स्त्रियाँ।

  • فَلِلذَّكَرِ (Fa lildh-dhakari): तो पुरुष के लिए।

  • مِثْلُ (Mithlu): बराबर।

  • حَظِّ (Haẓẓi): हिस्से के।

  • الْأُنثَيَيْنِ (Al-unthayayni): दो स्त्रियों के।

  • يُبَيِّنُ (Yubayyinu): स्पष्ट करता है।

  • اللَّهُ (Allāhu): अल्लाह।

  • لَكُمْ (Lakum): तुम्हारे लिए।

  • أَن (An): कि।

  • تَضِلُّوا (Taḍillū): तुम भटक जाओ।

  • وَاللَّهُ (Wallāhu): और अल्लाह।

  • بِكُلِّ (Bikulli): हर चीज़ को।

  • شَيْءٍ (Shay'in): चीज़ का।

  • عَلِيمٌ (ʿAlīmun): जानने वाला है।

(3) आयत का पूरा अर्थ और संदर्भ:

यह आयत सूरह अन-निसा की अंतिम आयत है और यह वारिसों के एक विशेष मामले "कलाला" पर प्रकाश डालती है। इससे पहले की आयतों में माँ-बाप, बच्चों और पति-पत्नी के हिस्से बताए गए थे। यह आयत उस स्थिति में हिस्से का निर्धारण करती है जब मृतक का न तो कोई बेटा हो और न ही बाप, लेकिन उसके भाई-बहन हों। यह आयत सहजान (भाई-बहन) के हिस्से को स्पष्ट करती है।

आयत का भावार्थ: "वे आपसे (कलाला के बारे में) फैसला पूछते हैं। आप कह दें: अल्लाह तुम्हें कलाला के बारे में फैसला सुनाता है। यदि कोई व्यक्ति मर जाए, उसके कोई बेटा न हो और उसकी एक बहन हो, तो उस (बहन) के लिए उसके छोड़े हुए (माल) का आधा हिस्सा है। और अगर उस (बहन) की कोई संतान न हो, तो वह (भाई) उस (बहन) का वारिस होगा। और यदि दो बहनें हों, तो उन दोनों के लिए उसके छोड़े हुए (माल) का दो-तिहाई हिस्सा है। और यदि (वारिस) भाई-बहन (मर्द और औरत) हों, तो मर्द के लिए दो औरतों के बराबर हिस्सा है। अल्लाह तुम्हारे लिए (ये हुक्म) स्पष्ट करता है, ताकि तुम भटक न जाओ। और अल्लाह हर चीज़ को जानने वाला है।"

(4) विस्तृत व्याख्या और शिक्षा (Tafseer):

यह आयत "कलाला" के मामले में भाई-बहनों के हिस्से को विस्तार से बताती है।

कलाला क्या है? कलाला उस मृतक को कहते हैं जिसके न तो कोई बेटा हो और न ही बाप। यानी सीधे वारिस (बेटा और बाप) न होने की स्थिति।

भाई-बहनों के हिस्से के नियम:

  1. एक बहन की स्थिति: यदि मृतक का कोई बेटा या बाप नहीं है, लेकिन एक बहन है, तो बहन को आधी जायदाद मिलेगी।

  2. दो या अधिक बहनों की स्थिति: यदि दो या दो से अधिक बहनें हैं, तो उन सबको मिलाकर कुल जायदाद का दो-तिहाई (2/3) हिस्सा मिलेगा।

  3. भाई और बहन दोनों की स्थिति: यदि भाई और बहन दोनों वारिस हैं, तो "लिल जकारि मिस्लु हज़्जिल उन्सयैन" - मर्द का हिस्सा दो औरतों के हिस्से के बराबर होगा। यानी हिस्से 2:1 के अनुपात में बंटेंगे।

एक महत्वपूर्ण बिंदु: आयत में कहा गया है "व हुवा यरिसुहा इल्लम यकुन लहा वलद" - "और वह (भाई) उस (बहन) का वारिस होगा, अगर उस (बहन) की कोई संतान न हो।" इसका मतलब यह है कि अगर बहन की अपनी कोई संतान (बेटा-बेटी) नहीं है, तो उसके मरने पर उसका भाई उसकी जायदाद का वारिस बनेगा। यह इस्लामी विरासत प्रणाली की एक सुंदर व्यवस्था है जो परिवार की संपत्ति को बचाए रखती है।

(5) शिक्षा और सबक (Lesson):

  1. अल्लाह सर्वज्ञानी है: विरासत के ये जटिल नियम अल्लाह ने बनाए हैं क्योंकि वही मानवीय रिश्तों, जरूरतों और न्याय को पूरी तरह जानता है।

  2. न्यायसंगत बंटवारा: इस्लामी विरासत प्रणाली पूरी तरह से न्यायसंगत है। यह औरतों को उनका हक देती है, जो जाहिलियत के जमाने में नहीं मिलता था। मर्द को दोगुना हिस्सा इसलिए मिलता है क्योंकि उस पर परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी होती है।

  3. स्पष्ट मार्गदर्शन: अल्लाह ने हर संभव स्थिति में विरासत के नियम स्पष्ट कर दिए हैं ताकि लोग झगड़ों और भटकाव से बचे रहें।

(6) अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) में: यह आयत अरब समाज में एक बड़े भ्रम और झगड़े को दूर करने के लिए उतरी। जाहिलियत के जमाने में औरतों और दूर के रिश्तेदारों को विरासत से वंचित कर दिया जाता था। इस आयत ने भाई-बहनों के हक को स्थापित किया।

  • समकालीन वर्तमान (Contemporary Present) में: आज यह आयत बेहद प्रासंगिक है।

    • पारिवारिक झगड़ों का समाधान: आज भी जायदाद के बंटवारे को लेकर परिवारों में बड़े झगड़े होते हैं। अगर इस्लामी विरासत के इन स्पष्ट नियमों को अपना लिया जाए, तो ये झगड़े स्वतः ही समाप्त हो जाएं।

    • मुस्लिम समाज में जागरूकता: बहुत से मुसलमान इन नियमों से अनजान हैं और जायदाद का बंटवारा गलत तरीके से करते हैं। यह आयत उन्हें अल्लाह के स्पष्ट हुक्म से अवगत कराती है।

    • औरतों के अधिकार: यह आयत इस बात का प्रमाण है कि इस्लाम ने औरतों को विरासत में हिस्सा देकर उन्हें आर्थिक अधिकार दिए, जो उस जमाने में क्रांतिकारी कदम था।

  • भविष्य (Future) में: जब तक मानव समाज और परिवार रहेंगे, विरासत का मुद्दा बना रहेगा। यह आयत कयामत तक मुसलमानों के लिए एक स्थायी और स्पष्ट मार्गदर्शन बनी रहेगी। यह भविष्य की पीढ़ियों को सिखाती रहेगी कि जायदाद का बंटवारा अल्लाह के बताए हुए न्यायसंगत नियमों के अनुसार ही करो, ताकि पारिवारिक एकता बनी रहे और अल्लाह की नाराज़गी से बचे रहो।

निष्कर्ष: सूरह अन-निसा की यह अंतिम आयत इस्लामी विरासत कानून की एक महत्वपूर्ण कड़ी को पूरा करती है। यह दर्शाती है कि अल्लाह ने मानव जीवन के हर पहलू के लिए पूर्ण मार्गदर्शन भेज दिया है, चाहे वह आस्था का मामला हो या जायदाद का बंटवारा। यह आयत हमें अल्लाह की सर्वज्ञानिता और उसकी दया पर विश्वास करना सिखाती है। हमें चाहिए कि हम इन नियमों का पालन करें और अपने पारिवारिक जीवन को शांति और न्याय के साथ व्यतीत करें।