आयत का अरबी पाठ:
وَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تُقْسِطُوا فِي الْيَتَامَىٰ فَانكِحُوا مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاءِ مَثْنَىٰ وَثُلَاثَ وَرُبَاعَ ۖ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تَعْدِلُوا فَوَاحِدَةً أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ ۚ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَلَّا تَعُولُوا
शब्दार्थ:
وَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تُقْسِطُوا فِي الْيَتَامَىٰ: और अगर तुम्हें इस बात का डर हो कि अनाथ लड़कियों के मामले में न्याय नहीं कर सकोगे (जैसे उनसे विवाह में)
فَانكِحُوا مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاءِ: तो (दूसरी) उन औरतों से निकाह कर लो जो तुम्हें पसंद हों
مَثْنَىٰ وَثُلَاثَ وَرُبَاعَ: दो-दो, तीन-तीन, चार-चार (तक की सीमा में)
فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تَعْدِلُوا: फिर अगर तुम्हें डर हो कि (इतनी पत्नियों के बीच) न्याय नहीं कर सकोगे
فَوَاحِدَةً أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ: तो केवल एक (पत्नी) या फिर वे (गुलाम महिलाएं) जो तुम्हारे स्वामित्व में हों
ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَلَّا تَعُولُوا: यह (उपाय) इससे अधिक निकटतम है कि तुम (न्याय से) झुकने न पाओ
सरल व्याख्या:
यह आयत पिछली आयतों के संदर्भ को आगे बढ़ाती है, जहाँ अनाथों के अधिकारों की चर्चा हो रही थी। उस ज़माने में एक समस्या यह थी कि लोग अनाथ लड़कियों से उनके अधिकार (जैसे दहेज या विरासत) हड़पने के लिए शादी कर लेते थे, फिर उनके साथ न्याय नहीं करते थे। इस आयत ने उस गलत प्रथा पर रोक लगाई।
आयत का मूल सार यह है:
अगर तुम्हें लगता है कि अनाथ लड़कियों (जिनकी तुम देखभाल कर रहे हो) के साथ न्याय नहीं कर पाओगे, तो उनसे शादी करने के बजाय दूसरी महिलाओं से शादी कर सकते हो।
इसी संदर्भ में, एक सीमा बताई गई कि एक साथ चार पत्नियों तक की अनुमति है।
लेकिन साथ ही एक बहुत बड़ी शर्त लगा दी: अगर न्याय न कर सकोगे तो केवल एक ही पत्नी पर संतोष कर लो। यह आयत बहुविवाह को एक शर्त के साथ अनुमति देती है, न कि एक आदेश के रूप में। इसका मुख्य लक्ष्य एक सामाजिक समस्या का समाधान निकालना था।
आयत से सीख (Lesson):
न्याय सर्वोच्च है (Justice is Paramount): बहुविवाह की अनुमति न्याय की कठोर शर्त पर है। अगर न्याय की गारंटी नहीं दे सकते, तो एक से अधिक शादी की इजाजत नहीं है। न्याय इस्लामी व्यवस्था का केंद्रीय सिद्धांत है।
कमजोरों का संरक्षण (Protection of the Vulnerable): आयत का प्रारंभ अनाथों की सुरक्षा से होता है, यह दर्शाता है कि इस्लामी कानून का उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों को शोषण से बचाना है।
यथार्थवादी दृष्टिकोण (Realistic Approach): इस्लाम मानव प्रकृति और सामाजिक परिस्थितियों को समझता है। उसने एक सीमा तक बहुविवाह की अनुमति देकर युद्ध आदि जैसी परिस्थितियों में एक व्यावहारिक विकल्प प्रस्तुत किया, लेकिन उसे न्याय की सख्त शर्त से नियंत्रित भी किया।
प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevance: Past, Present & Future)
अतीत के संदर्भ में:
इस आयत ने अरब समाज में एक क्रांतिकारी सुधार किया। इससे पहले, पत्नियों की कोई सीमा नहीं थी और अनाथ लड़कियों का शोषण आम बात थी। इस आयत ने पत्नियों की संख्या को सीमित किया (चार तक) और अनाथों के शोषण पर रोक लगाई।
वर्तमान संदर्भ :
आज के दौर में इस आयत की व्याख्या और प्रासंगिकता को समझना ज़रूरी है:
शर्त पर आधारित अनुमति (Conditional Permission, Not Command): आज का सबसे बड़ा भ्रम यह है कि बहुविवाह इस्लाम में अनिवार्य या प्रोत्साहित है। जबकि आयत स्पष्ट रूप से कहती है कि अगर न्याय का डर हो तो "एक" ही पर्याप्त है। आज के जटिल सामाजिक और भावनात्मक संदर्भ में न्याय कर पाना एक बहुत बड़ी चुनौती है।
महिलाओं के अधिकार (Women's Rights): यह आयत महिलाओं के अधिकार और सम्मान पर ज़ोर देती है। यह पुरुष को यह अधिकार नहीं देती कि वह मनमर्जी करे, बल्कि उसे न्याय की कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती देती है।
सामाजिक समाधान के रूप में (As a Social Solution): आज भी कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे युद्ध के बाद पुरुषों की कमी होना, या कोई महिला किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करना चाहे जो पहले से विवाहित है, यह प्रावधान एक सीमित और नियंत्रित समाधान प्रस्तुत कर सकता है। लेकिन इसकी मूल भावना न्याय और जिम्मेदारी है, न कि केवल इच्छापूर्ति।
आधुनिक कानून के साथ तालमेल (Harmony with Modern Law): अधिकांश इस्लामी देशों ने बहुविवाह पर कानूनी पाबंदियां लगा रखी हैं या इसे न्यायालय की विशेष अनुमति के अधीन कर दिया है, जो इस आयत की मूल शर्त (न्याय) के अनुरूप ही है।
भविष्य के लिए संदेश:
यह आयत भविष्य के समाजों के लिए एक स्थायी सिद्धांत स्थापित करती है: किसी भी सामाजिक व्यवस्था या अनुमति का आधार न्याय और नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। यह एक ऐसा दरवाजा है जो समाज को कठिन परिस्थितियों में लचीलापन प्रदान करता है, लेकिन उसे नैतिक बंधनों से इतना संकरा भी कर देता है कि उसका दुरुपयोग न हो सके।
निष्कर्ष:
कुरआन 4:3 का सार यह नहीं है कि "चार शादियां करो," बल्कि सार यह है कि "न्याय करो, चाहे एक में ही सीमित क्यों न हो जाना पड़े।" यह आयत मानवता को न्याय, संयम और कमजोरों के प्रति जिम्मेदारी का शाश्वत पाठ पढ़ाती है।