Read Quran translation in Hindi with verse-by-verse meaning and time-relevant explanations for deeper understanding.

कुरआन की आयत 4:39 की पूर्ण व्याख्या

 

1. आयत का अरबी पाठ (Arabic Text)

وَمَاذَا عَلَيْهِمْ لَوْ آمَنُوا بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَأَنْفَقُوا مِمَّا رَزَقَهُمُ اللَّهُ ۚ وَكَانَ اللَّهُ بِهِمْ عَلِيمًا


2. आयत का हिंदी अर्थ (Meaning in Hindi)

"और उनपर क्या बीतती अगर वे अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान लाते और अल्लाह ने जो कुछ उन्हें दिया है, उसमें से (उसकी राह में) खर्च करते? और अल्लाह तो उन्हें भली-भाँति जानने वाला है।"


3. आयत से मिलने वाला सबक (Lesson from the Verse)

  1. तर्क और समझ का आह्वान: यह आयत एक तार्किक प्रश्न पूछती है। यह दिखावेबाज और कंजूस लोगों से पूछती है कि अगर वे सच्चा ईमान लाते और सच्चे दिल से दान देते, तो उनका क्या नुकसान होता? इसका जवाब है - कुछ नहीं! बल्कि, उन्हें अनंत लाभ होता। यह मनुष्य को उसकी अक्ल से काम लेने की दावत देती है।

  2. ईमान और अमल का अटूट रिश्ता: आयत स्पष्ट करती है कि असली ईमान केवल दिल में विश्वास रखने का नाम नहीं है। उसकी पहचान व्यवहार में दिखती है। ईमान का एक अनिवार्य परिणाम यह है कि इंसान अल्लाह के दिए हुए रिज़्क (धन, ज्ञान, क्षमता) में से दूसरों की भलाई पर खर्च करे।

  3. अल्लाह का पूर्ण ज्ञान: आयत का अंत इस सच्चाई के साथ होता है कि अल्लाह उनके बारे में पूरी तरह जानता है। वह उनके दिखावे को भी जानता है और उनकी कंजूसी को भी। कोई उसे धोखा नहीं दे सकता।


4. प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevance: Past, Present & Future)

अतीत में प्रासंगिकता (Past Relevance):

  • मुनाफिकों के लिए एक चुनौती: जब यह आयत उतरी, तो यह मदीना के उन मुनाफिकों (पाखंडियों) के लिए एक तार्किक और दिल को छू लेने वाली चुनौती थी, जो दिखावे के लिए दान देते थे लेकिन दिल से ईमान नहीं रखते थे। यह आयत उन्हें सोचने पर मजबूर करती थी कि उनकी इस पाखंडी जिंदगी का कोई फायदा नहीं है।

  • सच्चे ईमान की परिभाषा: इसने प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय को सच्चे ईमान की स्पष्ट परिभाषा दी - जो विश्वास को कर्म के साथ जोड़ता है।

वर्तमान में प्रासंगिकता (Present Relevance):

  • धार्मिक रूढ़िवादिता के खिलाफ संदेश: आज कई लोग धर्म को केवल कुछ रस्मों और बाहरी दिखावे तक सीमित समझते हैं। यह आयत हमें याद दिलाती है कि धर्म का असली सार दिल की गहराई से ईमान लाना और फिर उस ईमान को दूसरों की भलाई में खर्च करने के रूप में दिखाना है।

  • भौतिकवाद के युग में तर्क: आज का युग भौतिकवाद और स्वार्थ का युग है। लोग सोचते हैं कि दान देने से उनकी संपत्ति कम हो जाएगी। यह आयत एक तार्किक सवाल पूछकर इस मानसिकता को चुनौती देती है - "तुम्हारा क्या बिगड़ता?" वास्तव में, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक शोध भी बताते हैं कि दान देने से मानसिक शांति और खुशी मिलती है।

  • सामाजिक जिम्मेदारी का बोध: यह आयत हर उस व्यक्ति से सवाल करती है जो अपनी wealth और skills को सिर्फ अपने लिए इकट्ठा करता है। यह हमें हमारी सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास कराती है कि अल्लाह ने जो कुछ दिया है, उसमें से समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों का हक अदा करना है।

  • आत्म-मूल्यांकन का आधार: यह आयत हर मुसलमान के लिए एक कसौटी है। हम खुद से पूछ सकते हैं: क्या मेरा ईमान सच्चा है? क्या मैं अल्लाह के दिए हुए से दूसरों की मदद करता हूँ? यह एक प्रकार का आत्म-मूल्यांकन (Self-Assessment) है।

भविष्य में प्रासंगिकता (Future Relevance):

  • शाश्वत तर्क: मनुष्य का स्वभाव हमेशा लोभ और स्वार्थ से जुड़ा रहेगा। यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी के सामने यह तार्किक प्रश्न रखती रहेगी कि सच्चा ईमान और दान क्यों जरूरी है।

  • आर्थिक असमानता के समाधान का सिद्धांत: भविष्य में जब आर्थिक असमानता और बढ़ सकती है, यह आयत एक मौलिक इस्लामी समाधान प्रस्तुत करेगी - सच्चा ईमान और संपत्ति का न्यायपूर्ण वितरण।

  • आध्यात्मिक और भौतिक संतुलन: तकनीकी रूप से उन्नत समाज में, यह आयत लोगों को याद दिलाती रहेगी कि भौतिक संपदा का वास्तविक उद्देश्य केवल भोग नहीं, बल्कि अल्लाह की राह में खर्च करना और सामाजिक कल्याण में योगदान देना है।

निष्कर्ष:
कुरआन की आयत 4:39 एक सरल लेकिन गहन तार्किक प्रश्न के माध्यम से मनुष्य को उसकी जिम्मेदारी का एहसास कराती है। यह अतीत में एक चुनौती थी, वर्तमान में एक तार्किक प्रेरणा है और भविष्य के लिए एक शाश्वत मार्गदर्शक सिद्धांत है। यह आयत बताती है कि ईमान और दान के बिना जीवन एक भारी नुकसान है, और इनके साथ जीवन ही सार्थक और सफल बनता है।