आयत का अरबी पाठ:
إِلَّا الْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاءِ وَالْوِلْدَانِ لَا يَسْتَطِيعُونَ حِيلَةً وَلَا يَهْتَدُونَ سَبِيلًا
हिंदी अनुवाद:
"सिवाय उन मर्दों, औरतों और बच्चों के जो सचमुच बेबस (कमज़ोर) हैं, न कोई चारा (उपाय) जानते हैं और न (हिजरत का) रास्ता पा सकते हैं।"
📖 आयत का सार और सीख:
यह आयत पिछली आयत (4:97) में दी गई सामान्य सज़ा से अपवाद (Exception) की घोषणा करती है। इसका मुख्य संदेश है:
अल्लाह की न्यायप्रियता: अल्लाह पूरी तरह से न्यायकारी है। वह किसी को उसकी सामर्थ्य से अधिक जिम्मेदार नहीं ठहराता। जो वास्तव में असमर्थ हैं, उनके लिए राहत का प्रावधान है।
वास्तविक मजबूरी की पहचान: आयत उन लोगों को छूट देती है जो तीन शर्तों पर खरे उतरते हैं:
सच में कमजोर होना (मुस्तज़अफ़)
कोई रास्ता न जानते हों (कोई उपाय न हो)
मार्गदर्शन न पा सकते हों (रास्ता न दिखाई देता हो)
इंसाफ में संतुलन: जहाँ आयत 4:97 में जिम्मेदारी का सख्त सिद्धांत है, वहीं यह आयत दया और वास्तविकता के सिद्धांत को स्थापित करती है। इससे पता चलता है कि इस्लाम का कानून संतुलित और मानवीय है।
🕰️ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Past Relevance):
मक्का के वास्तविक पीड़ित: यह आयत उन लोगों के लिए राहत की खबर थी जो वास्तव में मक्का में फंसे हुए थे। जैसे:
गुलाम: जिनके पास कोई अधिकार नहीं थे और जिन्हें रोक कर रखा गया था।
बूढ़े और बीमार: जो शारीरिक रूप से हिजरत की यात्रा सहन नहीं कर सकते थे।
अनाथ और विधवाएं: जिनके पास सफर का खर्चा उठाने या रास्ता तय करने के लिए कोई सहारा नहीं था।
वे लोग जिन्हें रास्ते का ज्ञान नहीं था और भटक जाते।
समाज की कमजोर कड़ियों का संरक्षण: इस आयत ने समाज के सबसे कमजोर और सबसे ज्यादा जरूरतमंद वर्ग (पुरुष, महिलाएं, बच्चे) को कानूनी सुरक्षा प्रदान की।
💡 वर्तमान और भविष्य के लिए प्रासंगिकता (Contemporary & Future Relevance):
एक आधुनिक दर्शक के लिए, यह आयत बहुत गहरा सामाजिक और नैतिक संदेश देती है:
1. सामाजिक न्याय और समावेशिता (Social Justice & Inclusion):
कमजोर वर्गों के अधिकार: यह आयत समाज में "वंचित और हाशिए के लोगों" (Deprived and Marginalized) के अधिकारों की पैरवी करती है। यह सिखाती है कि एक न्यायपूर्ण समाज वह है जो अपने सबसे कमजोर सदस्यों की क्षमता के आधार पर उनसे अपेक्षा रखता है।
विकलांगता और असमर्थता को समझना: आज के संदर्भ में, यह आयत शारीरिक, मानसिक, आर्थिक या सामाजिक रूप से असमर्थ लोगों के प्रति हमारी सोच को संवारती है। यह सिखाती है कि उन्हें दोष देना या उनकी उपेक्षा करना गलत है।
2. व्यक्तिग्तः आत्म-मूल्यांकन (Personal Self-Assessment):
बहाने और वास्तविक मजबूरी में अंतर: यह आयत हमें खुद से सवाल करना सिखाती है - क्या हम वाकई में मजबूर हैं या सिर्फ आलस्य और डर के कारण बहाने बना रहे हैं? जो लोग वास्तव में कोई रास्ता नहीं ढूंढ पा रहे, उनके लिए अल्लाह की दया है, लेकिन जो कोशिश ही नहीं करते, उनके लिए चेतावनी है।
3. सामुदायिक जिम्मेदारी (Community Responsibility):
दूसरों की मदद करना: आयत हमें सिखाती है कि जो लोग सक्षम हैं, उनकी जिम्मेदारी है कि वे इन "वास्तव में कमजोर" लोगों की मदद करें, उन्हें रास्ता दिखाएं, उनके लिए उपाय खोजें और उन्हें सशक्त बनाएं। एक मुसलमान का फर्ज है कि वह दूसरों की मजबूरी को दूर करने में मदद करे।
उदाहरण: किसी गरीब को नौकरी दिलाना, किसी पढ़ने में कमजोर बच्चे को ट्यूशन देना, बुजुर्गों का ख्याल रखना - ये सभी इसी सिद्धांत के अंतर्गत आते हैं।
4. भविष्य के लिए दृष्टिकोण (Vision for the Future):
एक संवेदनशील समाज का निर्माण: भविष्य की पीढ़ियों के लिए, यह आयत एक ऐसे समाज की नींव रखती है जो केवल सफलता और प्रतिस्पर्धा में ही नहीं, बल्कि देखभाल और सहायता में भी विश्वास रखता है। यह एक मानवीय और देखभाल करने वाले (Caring) समुदाय के निर्माण का मार्गदर्शन करती है।
निष्कर्ष:
कुरआन की यह आयत अल्लाह की दया और न्याय के बीच के संपूर्ण संतुलन को दर्शाती है। यह हमें सिखाती है कि वास्तविक असमर्थता एक वैध अपवाद है, लेकिन आलस्य या डर एक बहाना है। साथ ही, यह हम पर एक सामूहिक जिम्मेदारी डालती है कि हम अपने आसपास के उन लोगों की पहचान करें और उनकी मदद करें जो वास्तव में मजबूर और बेबस हैं। यह आयत सामाजिक न्याय की एक स्थायी घोषणा है।
वालहमदु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन (और सारी प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सारे जहानों का पालनहार है)।