आयत का अरबी पाठ:
إِنَّ الَّذِينَ تَوَفَّاهُمُ الْمَلَائِكَةُ ظَالِمِي أَنفُسِهِمْ قَالُوا فِيمَ كُنتُمْ ۖ قَالُوا كُنَّا مُسْتَضْعَفِينَ فِي الْأَرْضِ ۚ قَالُوا أَلَمْ تَكُنْ أَرْضُ اللَّهِ وَاسِعَةً فَتُهَاجِرُوا فِيهَا ۚ فَأُولَٰئِكَ مَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ ۖ وَسَاءَتْ مَصِيرًا
हिंदी अनुवाद:
"निश्चय ही जिन लोगों की जानें फ़रिश्ते निकालते हैं, जबकि वे अपने ऊपर ज़ुल्म करने वाले (ज़ालिम) थे, (फ़रिश्ते) उनसे पूछते हैं: 'तुम किस हालत में थे?' वे कहते हैं: 'हम धरती में बेबस और कमज़ोर बना दिए गए थे।' फ़रिश्ते कहते हैं: 'क्या अल्लाह की धरती इतनी चौड़ी नहीं थी कि तुम उसमें हिजरत कर जाते (यहाँ से कहीं और चले जाते)?' तो ऐसे लोगों का ठिकाना जहन्नम है, और बहुत ही बुरा ठिकाना है।"
📖 आयत का सार और सीख:
इस आयत का मुख्य संदेश आत्म-जिम्मेदारी और परिस्थितियों से समझौता न करने का है। यह हमें सिखाती है कि:
बहानेबाजी बेकार है: अल्लाह के यहाँ कोई बहाना स्वीकार नहीं है, खासकर तब जब इंसान के पास सही चुनाव करने का विकल्प मौजूद हो।
हिजरत का सिद्धांत: हिजरत (प्रवास/स्थान परिवर्तन) का मतलब सिर्फ भौगोलिक स्थान बदलना नहीं, बल्कि बुराई के माहौल से अच्छाई के माहौल की ओर जाना है। यह अपने ईमान और आत्म-सम्मान को बचाने के लिए उठाया गया कदम है।
नतीजे की गंभीरता: आलस्य, डर या दुनियावी मोह के कारण अगर कोई अपने ईमान और नैतिकता को खतरे में डालने वाले माहौल में रहना चाहे, तो उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
🕰️ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Past Relevance):
मक्का के कमजोर मुसलमान: यह आयत उन मुसलमानों के बारे में उतरी जो मक्का में इस्लाम कबूल करने के बाद भी वहीं रुके रहे, जहाँ उन पर जुल्म ढाए जा रहे थे। उनके पास मदीना हिजरत करने का विकल्प मौजूद था, लेकिन उन्होंने अपनी जमीन-जायदाद या दुनियावी चीजों के चलते हिजरत नहीं की।
कमजोरी का बहाना: उनका "हम तो मजबूर थे" का बहाना अल्लाह के यहाँ स्वीकार नहीं हुआ, क्योंकि अल्लाह की धरती विशाल थी और वे सच्चाई के साथ खड़े हो सकते थे या हिजरत कर सकते थे।
💡 वर्तमान और भविष्य के लिए प्रासंगिकता (Contemporary & Future Relevance):
एक आधुनिक दर्शक के लिए, इस आयत की प्रासंगिकता बहुत गहरी और व्यावहारिक है:
1. आध्यात्मिक और नैतिक हिजरत (Spiritual & Moral Migration):
बुराई के माहौल से दूरी: आज हिजरत का सबसे बड़ा सबक यह है कि अगर कोई गलत संगत, भ्रष्ट माहौल, या पाप के वातावरण में फंसा हुआ है, तो उसे वहाँ से निकलने का प्रयास करना चाहिए। चाहे वह एक बुरी नौकरी का माहौल हो, गलत दोस्तों का समूह हो, या कोई ऐसा स्थान हो जहाँ इंसान की नैतिकता और ईमानदारी खतरे में पड़ रही हो।
डिजिटल हिजरत: आज के डिजिटल युग में, हमें बुरी वेबसाइटों, नकारात्मक सोशल मीडिया समुदायों और हानिकारक कंटेंट से 'हिजरत' (दूरी बनाने) की जरूरत है।
2. व्यक्तिगत विकास में बाधा न बनना:
कम्फर्ट जोन छोड़ना: यह आयत उन लोगों के लिए एक चेतावनी है जो आलस्य, सुविधा, या डर के कारण अपने व्यक्तिगत और आध्यात्मिक विकास के रास्ते में खुद ही बाधक बन जाते हैं। सीखने, बढ़ने और बेहतर जीवन के अवसर मौजूद होने पर भी वे उनका फायदा नहीं उठाते।
3. सामाजिक जिम्मेदारी:
अन्याय के सामने खड़े होना: आयत यह संदेश देती है कि "कमजोर" या "मजबूर" होने का बहाना बनाकर अन्याय और बुराई के सामने चुप रहना, वास्तव में खुद पर जुल्म करने के समान है। समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाना और सही काम के लिए खड़े होना ही एक सच्चे मोमिन की पहचान है।
4. भविष्य के लिए संदेश:
सक्रिय जीवनशैली: भविष्य की पीढ़ियों के लिए यह आयत एक मार्गदर्शक सिद्धांत छोड़ती है: जीवन में निष्क्रियता और शिकायतों में न रहें। अगर परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं, तो उन्हें बदलने का प्रयास करें, और अगर नहीं बदल सकते, तो खुद को बेहतर परिस्थितियों में ले जाने का रास्ता खोजें। यह आत्म-सम्मान और सकारात्मक Initiative (पहल) की शिक्षा देती है।
निष्कर्ष:
कुरआन की यह आयत हमें परिस्थितियों का रोना रोने के बजाय, उनसे निपटने के लिए सक्रिय कदम उठाने का आदेश देती है। यह हमें सिखाती है कि अल्लाह ने हमें समझ और चुनाव की शक्ति दी है, और बुराई के माहौल में रहकर अपने ईमान और चरित्र को दांव पर लगाना खुद के साथ सबसे बड़ा जुल्म है। आज के संदर्भ में, यह हमें नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक रूप से मजबूत बनने की प्रेरणा देती है।
वालहमदु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन (और सारी प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सारे जहानों का पालनहार है)।