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कुरआन की आयत 5:8 की पूर्ण व्याख्या

 

﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُونُوا قَوَّامِينَ لِلَّهِ شُهَدَاءَ بِالْقِسْطِ ۖ وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَىٰ أَلَّا تَعْدِلُوا ۚ اعْدِلُوا هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوَىٰ ۖ وَاتَّقُوا اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ﴾

(सूरह अल-माइदा, आयत नंबर 8)


अरबी शब्दों के अर्थ (Word-by-Word Meaning)

  • يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا: हे ईमान वालो!

  • كُونُوا: बनो।

  • قَوَّامِينَ: (न्याय पर) डटे रहने वाले, स्थापित करने वाले।

  • لِلَّهِ: अल्लाह के लिए।

  • شُهَدَاء: गवाह।

  • بِالْقِسْط: न्याय/इंसाफ के साथ।

  • وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ: और तुमसे कभी न करा दे (उकसा दे)।

  • شَنَآنُ: दुश्मनी, घृणा।

  • قَوْمٍ: किसी समुदाय/कौम की।

  • عَلَىٰ أَلَّا: इस बात पर कि नहीं।

  • تَعْدِلُوا: तुम न्याय करो।

  • اعْدِلُوا: न्याय करो।

  • هُوَ: वह (न्याय)।

  • أَقْرَب: अधिक नज़दीक है।

  • لِلتَّقْوَىٰ: परहेज़गारी (अल्लाह का डर) के।

  • وَاتَّقُوا اللَّهَ: और अल्लाह से डरो।

  • إِنَّ اللَّهَ: बेशक अल्लाह।

  • خَبِيرٌ: पूरी तरह अवगत/जानने वाला है।

  • بِمَا تَعْمَلُونَ: उससे जो तुम करते हो।


पूरी आयत का अर्थ (Full Translation in Hindi)

"हे ईमान वालो! अल्लाह के लिए (सच्चे) ठहरो, न्याय के साथ गवाही देने वाले बनो। और तुम्हें किसी समुदाय की दुश्मनी इस बात पर कभी उकसाए कि तुम न्याय न करो। न्याय करो, वह (कार्य) परहेज़गारी के सबसे अधिक नज़दीक है। और अल्लाह से डरते रहो। निश्चय ही अल्लाह उस सबसे पूरी तरह अवगत है, जो तुम करते हो।"


विस्तृत व्याख्या (Full Explanation in Hindi)

यह आयत इस्लाम की सबसे मौलिक और सार्वभौमिक शिक्षाओं में से एक है – न्याय (अदल) की अनिवार्यता। यह एक गहन मनोवैज्ञानिक सच्चाई को उजागर करती है और एक स्पष्ट नैतिक आदेश देती है।

1. न्याय के लिए दोहरी ज़िम्मेदारी:
आयत मुसलमानों से दो भूमिकाएँ निभाने का आह्वान करती है:

  • "कौव्वामीना लिल्लाह" (अल्लाह के लिए न्याय पर डटे रहने वाले): इसका अर्थ है कि न्याय की स्थापना करना और उसकी रक्षा करना एक सक्रिय कर्तव्य है। यह केवल व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी लागू होता है। यह काम "अल्लाह के लिए" किया जाना चाहिए, यानी केवल उसकी रज़ा के लिए, न कि किसी दबाव, लालच या प्रशंसा के कारण।

  • "शुहदा बिल किस्त" (न्याय के साथ गवाही देने वाले): जब भी गवाही की आवश्यकता हो, चाहे वह अदालत में हो या सामान्य जीवन में, एक मुसलमान को हमेशा न्यायपूर्ण और सच्ची गवाही देनी चाहिए, भले ही वह गवाही स्वयं उसके, उसके परिवार के या उसके समुदाय के खिलाफ ही क्यों न जाती हो।

2. दुश्मनी के सामने न्याय:
आयत मानवीय कमजोरी की पहचान करती है और उससे आगाह करती है: "वला यजरिमन्नकुम शनआनु कौमिन..." – "तुम्हें किसी समुदाय की दुश्मनी इस बात पर कभी उकसाए कि तुम न्याय न करो।"

  • यह चेतावनी अत्यंत शक्तिशाली है। यह स्वीकार करती है कि दुश्मनी और घृणा का भाव मन में अन्याय और पक्षपात की प्रबल इच्छा पैदा कर सकता है।

  • इस्लाम इस मनोवैज्ञानिक झुकाव को "जुर्म" (पाप) करार देता है और इसे स्पष्ट रूप से वर्जित करता है। भले ही कोई समुदाय या व्यक्ति आपका सबसे बड़ा दुश्मन क्यों न हो, उसके साथ न्याय करना आपका धार्मिक कर्तव्य बना रहता है।

3. न्याय और तकवा का अटूट रिश्ता:
आयत घोषणा करती है: "इदिलू हुवा अकरबु लित्तकवा" – "न्याय करो, वह तकवा (परहेज़गारी) के सबसे अधिक नज़दीक है।"

  • इसका अर्थ यह है कि सच्चा न्याय करना, खासकर तब जब यह आपके अपने हितों के विरुद्ध हो, ईश्वर-चेतना (तकवा) की सबसे बड़ी परीक्षा और उसकी सबसे ऊँची अभिव्यक्ति है।

  • न्याय केवल एक सामाजिक आदेश नहीं है; यह एक गहन आध्यात्मिक कार्य है जो इंसान को अल्लाह के और नज़दीक ले जाता है।

4. अंतिम चेतावनी: सर्वव्यापी ज्ञान:
आयत का अंत उसी सिद्धांत के साथ होता है जिस पर इसकी शुरुआत हुई थी – अल्लाह की निगरानी। "इन्नल्लाहा खबीरुम बिमा तअमलून" – "निश्चय ही अल्लाह उस सबसे पूरी तरह अवगत है, जो तुम करते हो।"

  • यह अनुस्मारक हमें बताता है कि हमारा न्याय या अन्याय अल्लाह से छिपा नहीं है। वह हमारे कर्मों और हमारे दिलों के इरादों से पूरी तरह वाकिफ है।


सीख और शिक्षा (Lesson and Moral)

  1. न्याय ईमान की शर्त है: न्याय करना केवल एक अच्छा गुण नहीं है; यह एक मुसलमान की पहचान और उसके ईमान का अनिवार्य हिस्सा है।

  2. भावनाओं पर नियंत्रण: एक मुसलमान को अपनी निजी घृणा और दुश्मनी को न्याय के मार्ग में आने नहीं देना चाहिए। न्याय सर्वोच्च मूल्य है।

  3. सच्ची ईश्वर-चेतना: सच्चा "तकवा" (अल्लाह का भय) तब प्रकट होता है जब कोई व्यक्ति उन स्थितियों में न्याय करता है जहाँ उसके स्वयं के हित प्रभावित होते हैं।

  4. सार्वभौमिक न्याय: इस्लामी न्याय का दायरा केवल मुसलमानों तक सीमित नहीं है। यह सभी इंसानों, यहाँ तक कि दुश्मनों तक, के लिए है।


प्रासंगिकता: अतीत, वर्तमान और भविष्य (Relevancy: Past, Contemporary Present and Future)

1. अतीत में प्रासंगिकता (Relevancy in the Past):

  • जाहिली अरब समाज: इस्लाम से पहले, अरब समाज कबीलाई संघर्ष और रक्त-शत्रुता से ग्रस्त था। न्याय का अर्थ केवल अपने कबीले का पक्ष लेना था। इस आयत ने इस संकीर्ण सोच को समाप्त करके एक सार्वभौमिक नैतिक कोड स्थापित किया।

  • मदीना का संविधान: पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) द्वारा स्थापित मदीना के संविधान (मीथाक-ए-मदीना) में सभी समुदायों (मुसलमानों, यहूदियों, अन्य) के लिए न्याय सुनिश्चित किया गया था। यह आयत उस संवैधानिक सिद्धांत की आधारशिला थी।

2. वर्तमान समय में प्रासंगिकता (Relevancy in the Contemporary Present):

  • साम्प्रदायिक और जातीय संघर्ष: आज दुनिया साम्प्रदायिक दंगों, जातीय घृणा और ध्रुवीकरण से जूझ रही है। यह आयत मुसलमानों को याद दिलाती है कि वे दूसरे समुदायों के खिलाफ नफरत या पक्षपात के आधार पर नहीं, बल्कि न्याय के आधार पर खड़े हों।

  • सोशल मीडिया और न्याय: सोशल मीडिया पर, लोग अक्सर बिना सबूत के दूसरों के खिलाफ आरोप लगाते हैं और "कैंसल" करते हैं। यह आयत "न्याय के साथ गवाही" देने का आदेश देकर हमें जिम्मेदारी से बोलने और फैसला सुनाने का निर्देश देती है।

  • कानून का शासन: एक मुसलमान नागरिक के रूप में, यह आयत उसे देश के कानून का पालन करने और न्यायिक प्रक्रियाओं में निष्पक्ष रहने का आदेश देती है, भले ही मामला उसके धार्मिक या राजनीतिक विरोधी से जुड़ा हो।

3. भविष्य में प्रासंगिकता (Relevancy in the Future):

  • एआई और न्याय: जैसे-जैसे Artificial Intelligence (AI) न्यायिक प्रणालियों, भर्ती प्रक्रियाओं और सामाजिक नियंत्रण में भूमिका निभाएगी, यह आयत "न्याय" के सिद्धांत को एक मौलिक मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करेगी। यह सुनिश्चित करेगी कि तकनीक में मानवीय पूर्वाग्रह (Bias) न आने पाए।

  • वैश्विक नागरिकता: भविष्य की दुनिया में, जहाँ संसाधनों के लिए संघर्ष तीव्र होगा, यह आयत एक वैश्विक नागरिक के रूप में हमारी जिम्मेदारी को परिभाषित करेगी। यह हमें सिखाएगी कि राष्ट्रीय हितों से ऊपर उठकर वैश्विक स्तर पर न्याय और इंसाफ के लिए काम करना चाहिए।

  • एक स्थायी नैतिक कम्पास: चाहे समाज कितना भी बदल जाए, यह आयत हर युग के मुसलमान के लिए एक स्थायी नैतिक कम्पास बनी रहेगी, जो उसे यह याद दिलाती रहेगी कि न्याय, घृणा से ऊपर है और यही सच्ची ईश्वर-चेतना का सबसे बड़ा प्रमाण है।

निष्कर्ष: यह आयत इस्लाम की नैतिक सर्वोच्चता को दर्शाती है। यह मुसलमानों को एक ऐसा समुदाय बनने का आदेश देती है जो न्याय की स्थापना के लिए समर्पित हो, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विषम क्यों न हों। यह केवल एक आदेश नहीं, बल्कि एक ऐसा सिद्धांत है जो इस्लाम को एक सार्वभौमिक और शाश्वत जीवन-पद्धति के रूप में स्थापित करता है।