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क़ुरआन की आयत 2:170 की पूर्ण व्याख्या

यह आयत एक ऐसी मानसिकता को उजागर करती है जो शैतान के "अल्लाह पर बिना ज्ञान बोलने" के षड्यंत्र (जैसा कि आयत 169 में बताया गया) को साकार करती है। यहाँ, अल्लाह उन लोगों की सोच और जवाब को पेश कर रहा है जो अंधानुकरण (बिना सोचे-समझे चलना) को ही अपनी पहचान और धर्म का आधार बना लेते हैं।

1. पूरी आयत अरबी में:

وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ اتَّبِعُوا مَا أَنْزَلَ اللَّهُ قَالُوا بَلْ نَتَّبِعُ مَا أَلْفَيْنَا عَلَيْهِ آبَاءَنَا ۗ أَوَلَوْ كَانَ آبَاؤُهُمْ لَا يَعْقِلُونَ شَيْئًا وَلَا يَهْتَدُونَ

2. आयत के शब्दार्थ (Word-to-Word Meaning):

  • وَإِذَا (व इज़ा) : और जब

  • قِيلَ لَهُمُ (क़ीला लहुम) : उनसे कहा जाता है

  • اتَّبِعُوا (इत्तबिऊ) : पालन करो (अनुसरण करो)

  • مَا (मा) : उस (चीज़) का

  • أَنْزَلَ اللَّهُ (अंज़लल्लाह) : जो अल्लाह ने उतारा है

  • قَالُوا (क़ालू) : वे कहते हैं

  • بَلْ (बल) : बल्कि (नहीं)

  • نَتَّبِعُ (नत्तबिउ) : हम पालन करते हैं

  • مَا (मा) : उस (चीज़) का

  • أَلْفَيْنَا (अलफैना) : हमने पाया है

  • عَلَيْهِ (अलैहि) : उस पर

  • آبَاءَنَا (आबाअना) : हमारे बाप-दादा को

  • أَوَلَوْ (औलau) : क्या भले ही, भला क्या यदि

  • كَانَ (काना) : होते थे

  • آبَاؤُهُمْ (आबाउहुम) : उनके बाप-दादा

  • لَا يَعْقِلُونَ (ला यअक़िलून) : समझते नहीं थे

  • شَيْئًا (शैअन) : कुछ भी (सही)

  • وَلَا (व ला) : और न

  • يَهْتَدُونَ (यहतदून) : सीधे मार्ग पर थे


3. आयत का पूरा अर्थ और व्याख्या:

अर्थ: "और जब उनसे कहा जाता है कि जो कुछ अल्लाह ने उतारा है उसका अनुसरण करो, तो वे कहते हैं: 'बल्कि हम तो उसी का अनुसरण करते हैं, जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।' क्या (वे उसी का अनुसरण करेंगे) भले ही उनके बाप-दादा कुछ भी न समझते हों और सीधे मार्ग पर न हों?"

व्याख्या:

यह आयत अंधानुकरण (तक़लीद) और सच्चे ईमान के बीच के टकराव को दर्शाती है। इसे निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:

1. दिव्य आह्वान (The Divine Call): "व इज़ा क़ीला लहुमुत्तबिऊ मा अंज़लल्लाह..."

  • यहाँ "उनसे" कहने वाले पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) और ईमान वाले लोग हैं, और "उनसे" कहा जाने वाला समूह वे लोग हैं जो अपनी पुरानी परंपराओं में अटके हुए हैं।

  • आह्वान स्पष्ट और सीधा है: अल्लाह के अवतरित वह्य (कुरआन) का पालन करो। यह तर्क और सबूत पर आधारित है।

2. अंधानुकरण की प्रतिक्रिया (The Response of Blind Following): "क़ालू बल नत्तबिउ मा अलफैना अलैहि आबाअना"

  • उनका जवाब तर्क नहीं, बल्कि एक भावनात्मक इनकार है। "बल" (बल्कि) शब्द उनकी जिद और हठधर्मी को दर्शाता है।

  • उनका आधार "हमने अपने बाप-दादा को जिस रास्ते पर पाया" है। उनके लिए, परंपरा ही सत्य है, भले ही वह सत्य के विपरीत क्यों न हो।

3. तर्कसंगत प्रश्न (The Rational Question): "औलau काना आबाउहुम ला यअक़िलून शैअन वला यहतदून"

  • अल्लाह उनकी इस हठधर्मी पर एक ऐसा तार्किक प्रश्न पूछकर चौंकाता है जो हर युग में प्रासंगिक है।

  • क्या सिर्फ इसलिए कि कोई चीज़ पुरानी है, वह सही है? क्या अगर उनके पूर्वज बुद्धिहीन, अज्ञानी और गुमराह थे, तो भी उनका अनुसरण करोगे?

  • यहाँ दो बातों पर जोर दिया गया है:

    • "ला यअक़िलून शैअन" - वे कुछ भी समझ-बूझ नहीं रखते थे। उनके पास ज्ञान और तर्क का आधार नहीं था।

    • "वला यहतदून" - और वे सही मार्ग पर भी नहीं थे। वे स्पष्ट रूप से गलत रास्ते पर चल रहे थे।

यह आयत स्पष्ट करती है कि ईमान की नींव अंधी परंपरा पर नहीं, बल्कि ज्ञान, समझ और मार्गदर्शन पर टिकी होनी चाहिए।


4. शिक्षा और सबक (Lesson):

  • तर्क और ज्ञान का महत्व: इस्लाम अंधविश्वास और अंधानुकरण का विरोध करता है। इस्लाम चाहता है कि इंसान अपनी बुद्धि और अक्ल का इस्तेमाल करे और सच्चाई को स्वीकार करे, चाहे वह उसकी परंपरा के खिलाफ ही क्यों न हो।

  • परंपरा की आलोचनात्मक समीक्षा: हर पुरानी परंपरा और रिवाज को बिना सोचे-समझे स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसे कुरआन और सुन्नत की कसौटी पर कसना चाहिए। अगर वह खरी नहीं उतरती, तो उसे छोड़ देना चाहिए।

  • हठधर्मी से बचें: सच्चाई सामने आने के बाद भी उसे सिर्फ इसलिए ठुकराना कि वह नई है या पुरानी बातों से मेल नहीं खाती, हठधर्मी और अहंकार है जो इंसान को विनाश की ओर ले जाता है।

  • जिम्मेदारी व्यक्तिगत है: कयामत के दिन कोई यह नहीं कह सकता कि "मैंने तो बस अपने बाप-दादा का अनुसरण किया था।" हर व्यक्ति स्वयं अपने चुनाव के लिए जवाबदेह होगा।


5. अतीत, वर्तमान और भविष्य से प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) के लिए:

    • मक्का के मूर्तिपूजक: यह आयत सीधे तौर पर उनकी मानसिकता को उजागर कर रही थी। जब पैगंबर (स.अ.व.) ने उन्हें तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत दी, तो उनका जवाब यही था: "हमने तो अपने बाप-दादा को इसी रास्ते पर पाया है।" (Quran 31:21, 43:22)

    • यहूदी और ईसाई: उन्होंने भी अपने धर्मगुरुओं द्वारा बिगाड़े गए धर्म का अंधानुकरण जारी रखा।

  • वर्तमान (Present) के लिए:

    • धार्मिक अंधानुकरण: आज भी कई मुस्लिम समुदायों में ऐसी रस्में और बिद्अतें (नवाचार) प्रचलित हैं जिनका कुरआन-सुन्नत में कोई आधार नहीं है (जैसे कुछ मन्नतें, ज़्यादा शोक प्रकट करना, मज़ार परसती आदि)। जब उन्हें समझाया जाता है, तो उनका जवाब होता है: "हमारे बुजुर्ग ऐसा करते आए हैं।"

    • सामाजिक बुराइयाँ: जाति प्रथा, ऊँच-नीच, दहेज प्रथा, बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयाँ सिर्फ इस आधार पर जारी हैं कि "यह हमारी परंपरा है।"

    • राष्ट्रीय और राजनीतिक स्तर पर: लोग बिना सोचे-समझे किसी नेता, पार्टी या विचारधारा का अंधानुकरण करने लगते हैं, भले ही वह गलत क्यों न हो।

    • वैज्ञानिक सोच का विरोध: कोई नई वैज्ञानिक खोज जब पुरानी मान्यताओं के खिलाफ होती है, तो लोग उसे सिर्फ इसलिए ठुकरा देते हैं क्योंकि उनके "बाप-दादा" ऐसा नहीं मानते थे।

  • भविष्य (Future) के लिए:

    • तकनीकी नैतिकता: भविष्य में AI, जेनेटिक इंजीनियरिंग आदि से जुड़े नैतिक सवाल उठेंगे। इनका जवाब सिर्फ "परंपरा" में नहीं, बल्कि ज्ञान और दिव्य मार्गदर्शन (कुरआन-सुन्नत) के आधार पर तलाशना होगा।

    • शाश्वत सिद्धांत: जब तक इंसान समाज में रहेगा, परंपरा और प्रगति के बीच तनाव बना रहेगा। यह आयत हर युग के इंसान को यह सिखाती रहेगी कि सत्य को परंपरा से ऊपर रखो। हमेशा ज्ञान और तर्क का रास्ता अपनाओ, अंधानुकरण का नहीं। यह कुरआन का एक सदाबहार संदेश है।