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कुरआन 2:18 - "सुम्मुन बुक्मुन उम्युन फहुम ला यर्जिऊन" (صُمٌّ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَرْجِعُونَ)

यहाँ कुरआन की दूसरी सूरह, अल-बक़ारह की अठारहवीं आयत (2:18) का पूर्ण विस्तृत व्याख्या हिंदी में प्रस्तुत है।


कुरआन 2:18 - "सुम्मुन बुक्मुन उम्युन फहुम ला यर्जिऊन" (صُمٌّ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَرْجِعُونَ)

हिंदी अर्थ: "वे बहरे हैं, गूँगे हैं, अंधे हैं, अतः वे (सही मार्ग की ओर) लौट नहीं सकते।"

यह आयत पिछले दृष्टांत (आयत 2:17) का तार्किक और भयानक निष्कर्ष प्रस्तुत करती है। जो लोग अंधेरे में छोड़ दिए गए हैं, उनकी स्थिति क्या है? यह आयत उनके आध्यात्मिक अंग-भंग (Spiritual Disability) को बहुत ही संक्षिप्त और तीखे शब्दों में दर्शाती है।

आइए, इस आयत को शब्द-दर-शब्द और उसके गहन अर्थों में समझते हैं।


1. शब्दार्थ विश्लेषण (Word-by-Word Analysis)

  • सुम्मुन (Summun): बहरे (Deaf)

  • बुक्मुन (Bukmun): गूँगे (Dumb)

  • उम्युन (Umyun): अंधे (Blind)

  • फहुम (Fahum): अतः वे (So they)

  • ला यर्जिऊन (La yarji'oon): लौट नहीं सकते (They will not return)


2. गहन अर्थ और संदेश (In-depth Meaning & Message)

यह आयत मुनाफिक़ीन की दयनीय स्थिति को तीन गहन आध्यात्मिक विकलांगताओं के माध्यम से दर्शाती है:

1. बहरेपन की स्थिति (The State of Deafness - सुम्मुन)

  • आध्यात्मिक अर्थ: वे सत्य की बात सुनने में असमर्थ हैं।

  • विवरण: उनके कान तो हैं, लेकिन वे सुनने की आंतरिक क्षमता खो चुके हैं। जब भी उन्हें कुरआन सुनाया जाता है या कोई नसीहत की जाती है, तो वह बात उनके दिल तक नहीं पहुँचती। उन पर कोई असर नहीं होता। वे सत्य के प्रति पूरी तरह से उदासीन हैं।

2. गूँगेपन की स्थिति (The State of Dumbness - बुक्मुन)

  • आध्यात्मिक अर्थ: वे सत्य को बोलने में असमर्थ हैं।

  • विवरण: उनकी जबान तो है, लेकिन वे अल्लाह की तारीफ, उसके गुणगान, या इस्लाम का संदेश फैलाने के लिए उसे इस्तेमाल नहीं कर सकते। उनकी जबान केवल झूठ, छल-कपट और अफवाह फैलाने के काम आती है। वे सच्चाई को स्वीकार करके उसे दूसरों तक पहुँचाने की हिम्मत नहीं रखते।

3. अंधेपन की स्थिति (The State of Blindness - उम्युन)

  • आध्यात्मिक अर्थ: वे सत्य को देखने और पहचानने में असमर्थ हैं।

  • विवरण: उनकी आँखें तो हैं, लेकिन वे दुनिया में फैली अल्लाह की निशानियों (सृष्टि, प्रकृति, चमत्कार) को नहीं देख पाते। वे सही और गलत के बीच का फर्क नहीं देख पाते। उनके लिए हिदायत का रास्ता पूरी तरह से अदृश्य हो चुका है।

4. लौटने में असमर्थता (The Inability to Return - ला यर्जिऊन)

  • यह आयत का सबसे दुखद और निर्णायक निष्कर्ष है।

  • "फहुम ला यर्जिऊन" - "अतः वे लौट नहीं सकते।"

  • इसका अर्थ है कि उनकी यह स्थिति स्थायी और अपरिवर्तनीय हो चुकी है। उन्होंने इतना अधिक पाप और पाखंड कर लिया है, उनका दिल इतना कठोर हो चुका है कि अब तौबा (पश्चाताप) करके सही रास्ते पर लौटने की संभावना लगभग खत्म हो गई है।

  • यह अल्लाह के उस नियम का परिणाम है जहाँ लगातार अवज्ञा करने वाले को उसी की गुमराही में छोड़ दिया जाता है।


3. पिछली आयतों के साथ संबंध (Connection with Previous Verses)

यह आयत पिछले दृष्टांत (आयत 2:17) का सीधा परिणाम है:

  • आयत 2:17: उनकी रोशनी (ईमान) ले ली गई और वे अंधेरे में छोड़ दिए गए।

  • आयत 2:18: इस अंधेरे का नतीजा यह हुआ कि वे आध्यात्मिक रूप से बहरे, गूँगे और अंधे हो गए और इस अवस्था से लौटने का कोई रास्ता नहीं रहा।

यह तीनों विकलांगताएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जो अंधा है, वह मार्ग नहीं देख सकता। जो बहरा है, वह मार्गदर्शन नहीं सुन सकता। और जो गूँगा है, वा दूसरों को सही रास्ता नहीं दिखा सकता। इस तरह, वह पूरी तरह से आशाहीन स्थिति में पहुँच जाता है।


4. व्यावहारिक जीवन में महत्व (Practical Importance in Daily Life)

  • एक गंभीर चेतावनी: यह आयत हर मुसलमान के लिए एक भयानक चेतावनी है। यह बताती है कि लगातार गुनाह, संदेह और दिखावा इंसान को आध्यात्मिक रूप से विकलांग बना सकता है, जहाँ से वापसी लगभग असंभव हो जाती है।

  • समय रहते सचेत होना: इस आयत का संदेश यह नहीं है कि अल्लाह किसी की तौबा स्वीकार नहीं करता। बल्कि, यह चेतावनी है कि इंसान को उस हद तक नहीं पहुँचना चाहिए जहाँ तौबा करने की इच्छा और क्षमता ही खत्म हो जाए। समय रहते अपनी गलतियों पर पश्चाताप करके अल्लाह की ओर लौट आना चाहिए।

  • दुआ की अहमियत: हमें हमेशा अल्लाह से दुआ करते रहना चाहिए कि वह हमारी आँखों, कानों और दिलों को सत्य के लिए खुला रखे और हमें उन लोगों में शामिल न करे जो सत्य को सुनने, देखने और स्वीकार करने की क्षमता खो बैठे हैं।


निष्कर्ष (Conclusion)

कुरआन की आयत 2:18 मुनाफिक़ीन की आध्यात्मिक मृत्यु की घोषणा करती है। यह बताती है कि पाखंड और सत्य के प्रति जानबूझकर की गई उदासीनता इंसान को आध्यात्मिक रूप से बहरा, गूँगा और अंधा बना देती है, और अंततः उसे एक ऐसी स्थिति में पहुँचा देती है जहाँ से सही मार्ग पर लौटना असंभव हो जाता है। यह आयत हर इंसान से विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करती है कि वह अपने दिल, कान और आँखों को जीवित रखे और कभी भी सत्य को सुनने, देखने और स्वीकार करने से इनकार न करे।