यह आयत पिछली आयत में दिए गए रोज़े के सामान्य आदेश में कुछ रियायतें (छूट) और विकल्प जोड़ती है। यह इस्लाम के व्यावहारिक और दयालु स्वभाव को दर्शाती है, जो लोगों पर उनकी क्षमता से अधिक बोझ नहीं डालता।
1. पूरी आयत अरबी में:
أَيَّامًا مَّعْدُودَاتٍ ۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ ۚ وَعَلَى الَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ ۖ فَمَن تَطَوَّعَ خَيْرًا فَهُوَ خَيْرٌ لَّهُ ۚ وَأَن تَصُومُوا خَيْرٌ لَّكُمْ ۖ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ
2. आयत के शब्दार्थ (Word-to-Word Meaning):
أَيَّامًا (अय्यामन) : कुछ दिन
مَّعْدُودَاتٍ (मअदुदातिन) : गिने-चुने (थोड़े)
فَمَن (फ़ा मन) : फिर जो (कोई)
كَانَ (कान) : था
مِنكُم (मिनकुम) : तुम में से
مَّرِيضًا (मरीज़न) : बीमार
أَوْ (औ) : या
عَلَىٰ سَفَرٍ (अला सफ़रिन) : सफर पर
فَعِدَّةٌ (फ़ा इद्दतुन) : तो (उतनी ही) गिनती
مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ (मिन अय्यामिन उख़रा) : दूसरे दिनों में से
وَعَلَى (व अला) : और पर
الَّذِينَ (अल्लज़ीना) : उन लोगों पर
يُطِيقُونَهُ (युतीक़ूनहू) : जो इसे सहन कर सकते हैं (कठिनाई से)
فِدْيَةٌ (फिदयतुन) : फिद्या (क्षतिपूर्ति/बदला)
طَعَامُ (तआमु) : खाना (एक बार का भोजन)
مِسْكِينٍ (मिस्कीनिन) : एक मिस्कीन (गरीब) को
فَمَن (फ़ा मन) : फिर जिसने
تَطَوَّعَ (ततव्वअ) : स्वेच्छा से दिया
خَيْرًا (खैरन) : अच्छाई (अधिक)
فَهُوَ (फ़ा हुवा) : तो वह
خَيْرٌ (खैरुन) : बेहतर है
لَّهُ (लहू) : उसके लिए
وَأَن (व अन) : और यह कि
تَصُومُوا (तसूमू) : तुम रोज़ा रखो
خَيْرٌ (खैरुन) : बेहतर है
لَّكُمْ (लकुम) : तुम्हारे लिए
إِن (इन) : यदि
كُنتُمْ (कुंतum) : तुम हो
تَعْلَمُونَ (तअ'लमून) : जानते
3. आयत का पूरा अर्थ और व्याख्या:
अर्थ: "(ये रोज़े) गिने-चुने दिनों के हैं। फिर तुम में से जो कोई बीमार हो या सफर पर हो, तो (वह उन्हें छोड़ दे और) दूसरे दिनों में (उतनी ही) गिनती पूरी करे। और जो लोग इसे (रोज़ा रखने की कठिनाई) सहन कर सकते हैं (मगर नहीं रख सकते), उन पर (रोज़े के बदले) एक मिस्कीन को खाना खिलाना (फिद्या) है। फिर जिसने (फिद्या में) अधिक भलाई की, तो वह उसके लिए बेहतर है। और यदि तुम रोज़ा रखो तो यह तुम्हारे लिए और बेहतर है, यदि तुम जानो।"
व्याख्या:
इस आयत में रोज़े के लिए तीन श्रेणियाँ और नियम बताए गए हैं:
1. अस्थायी छूट (Temporary Exemption): "फ़ा मन काना मिनकुम मरीज़न औ अला सफ़रिन फ़ा इद्दतुन मिन अय्यामिन उख़रा"
बीमार और मुसाफ़िर को रमज़ान के दिनों में रोज़ा न रखने की इजाजत है।
शर्त: उन्हें बाद में, जब वह स्वस्थ हो जाए या सफर से वापस आ जाए, तो उतने ही रोज़े रखकर गिनती पूरी करनी होगी।
यह इस्लाम के व्यावहारिक होने का प्रमाण है। यह लोगों से उनकी शारीरिक क्षमता से अधिक की मांग नहीं करता।
2. स्थायी कठिनाई वालों के लिए रियायत (Concession for Those with Permanent Hardship): "व अलल्लज़ीना युतीक़ूनहू फिदयतुन तआमु मिस्कीन"
यह हुक्म बाद में आयत 2:185 से बदल दिया गया। शुरुआत में, "अल्लज़ीना युतीक़ूनहू" यानी वे बूढ़े या Chronically बीमार लोग जो रोज़ा रखने की कठिनाई तो सहन कर सकते हैं, मगर बहुत मुश्किल से, उनके लिए यह रियायत थी कि वे हर छूटे हुए रोज़े के बदले एक गरीब को एक बार का भोजन (फिद्या) दे सकते थे और रोज़ा न रखें।
बाद का नियम (आयत 2:185): बाद में अल्लाह ने फैसला दिया कि हर हालत में सेहतमंद व्यक्ति को रोज़े की गिनती पूरी करनी ही होगी। अब सिर्फ वही बूढ़े या Permanent रूप से बीमार व्यक्ति जो रोज़ा बिल्कुल नहीं रख सकते, वे फिद्या दे सकते हैं।
3. प्रोत्साहन और सर्वोत्तम विकल्प (Encouragement and the Best Option)
"फ़ा मन ततव्वअ खैरन फ़ा हुवा खैरुल लहू" - अगर कोई फिद्या देते समय एक गरीब के बजाय दो या तीन गरीबों को खाना खिला दे, तो यह उसके लिए और बेहतर है। यह नेकी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना है।
"व अन तसूमू खैरुल लकुम इन कुंतum तअ'लमून" - और (हे सेहतमंद लोगो!) अगर तुम रोज़ा रखो, तो यह तुम्हारे लिए फिद्या देने से बहुत बेहतर है, अगर तुम (इसके फायदे) जानते हो। यह एक स्पष्ट निर्देश है कि जो रोज़ा रख सकता है, उसके लिए रोज़ा रखना ही सबसे अच्छा और सवाब (पुण्य) वाला काम है।
4. शिक्षा और सबक (Lesson):
इस्लाम में आसानी: इस्लाम एक कठोर धर्म नहीं है। यह लोगों की शारीरिक और सामाजिक स्थितियों को ध्यान में रखता है और उनके अनुसार रियायतें देता है।
रोज़े का महत्व: रोज़ा रखना एक बहुत ही फज़ीलत (पुण्य) वाला काम है और हर सक्षम व्यक्ति के लिए यही सबसे बेहतर विकल्प है।
गरीबों का ख्याल: फिद्या का प्रावधान समाज में गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करने का एक तरीका है। यह सामाजिक एकजुटता और भाईचारे को बढ़ावा देता है।
ईमानदारी: व्यक्ति को अपनी क्षमता का ईमानदारी से आकलन करना चाहिए। बिना वजह रियायतों का फायदा नहीं उठाना चाहिए।
5. अतीत, वर्तमान और भविष्य से प्रासंगिकता (Relevancy):
अतीत (Past) के लिए:
इस आयत ने नए-नए मुसलमान बने लोगों के लिए, जिन्हें रोज़े की आदत नहीं थी, एक Step-by-Step तरीका अपनाया। शुरू में फिद्या का विकल्प देना और फिर उसे सीमित करके रोज़े को अनिवार्य बना देना, यह एक Wise Legislative Process था।
वर्तमान (Present) के लिए:
स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ: आज Diabetic, Heart Patient, गुर्दे के मरीज़, गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाएँ आदि इसी आयत के आधार पर रोज़ा छोड़ सकती हैं और बाद में उसकी कज़ा कर सकती हैं।
आधुनिक यात्रा: लंबी हवाई यात्रा (Long Flights) या काम के सिलसिले में सफर करने वाले लोगों के लिए यह रियायत बहुत महत्वपूर्ण है।
वृद्ध और Chronic रोगी: ऐसे बुजुर्ग जो Permanent रूप से रोज़ा नहीं रख सकते, वे हर रोज़े के बदले एक गरीब को दो वक्त का खाना (या उसकी कीमत) दे सकते हैं। यह एक Practical हल है।
सामाजिक कल्याण: फिद्या की रकम आज मस्जिदों और संगठनों के ज़रिए एकत्र की जाती है और रमज़ान में गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने के काम आती है।
भविष्य (Future) के लिए:
नई चिकित्सा स्थितियाँ: भविष्य में चिकित्सा विज्ञान नई-नई बीमारियों और स्थितियों की पहचान करेगा। इस आयत का सिद्धांत ऐसे सभी मामलों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करेगा कि जहाँ रोज़ा सेहत के लिए हानिकारक हो, वहाँ छूट है।
शाश्वत मार्गदर्शन: यह आयत हमेशा यह सुनिश्चित करेगी कि रोज़े का फर्ज़ मानवीय क्षमता के अनुरूप रहे। यह कठोरता और ढील के बीच एक Perfect Balance स्थापित करती है, जो हर युग में प्रासंगिक रहेगी।