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क़ुरआन की आयत 2:199 की पूर्ण व्याख्या

 यह आयत हज के एक महत्वपूर्ण रिवाज को स्थापित करती है और मुसलमानों को एकता और सामूहिक आज्ञापालन का पाठ पढ़ाती है। यह एक ऐतिहासिक भेदभाव को समाप्त करके सभी मुसलमानों के लिए एक समान तरीका निर्धारित करती है।

1. पूरी आयत अरबी में:

ثُمَّ أَفِيضُوا مِنْ حَيْثُ أَفَاضَ النَّاسُ وَاسْتَغْفِرُوا اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ

2. आयत के शब्दार्थ (Word-to-Word Meaning):

  • ثُمَّ (सुम्म) : फिर

  • أَفِيضُوا (अफ़ीज़ू) : तुम (भी) उमड़ पड़ो / वापस आ जाओ

  • مِنْ (मिन) : से

  • حَيْثُ (हैसु) : जहाँ से

  • أَفَاضَ (अफ़ाज़ा) : उमड़ पड़े (वापस आए)

  • النَّاسُ (अन-नास) : लोग (सभी)

  • وَاسْتَغْفِرُوا (वस्तग़फ़िरू) : और माफ़ी माँगो

  • اللَّهَ (अल्लाह) : अल्लाह से

  • إِنَّ (इन्न) : निश्चित रूप से

  • اللَّهَ (अल्लाह) : अल्लाह

  • غَفُورٌ (ग़फ़ूरुन) : बहुत क्षमा करने वाला है

  • رَّحِيمٌ (रहीमुन) : बहुत दयालु है


3. आयत का पूरा अर्थ और व्याख्या:

अर्थ: "फिर (अरफात से) तुम भी उसी स्थान से वापस आओ, जहाँ से (दूसरे) लोग वापस आते हैं और अल्लाह से क्षमा याचना करो। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है।"

व्याख्या:

यह आयत दो स्पष्ट आदेश देती है:

1. सामूहिक एकता का आदेश: "सुम्म अफ़ीज़ू मिन हैसु अफ़ाज़न नास"

  • ऐतिहासिक संदर्भ: जाहिलिय्यत (अज्ञानता) के ज़माने में, कुरैश के लोग (जो खुद को विशेष समझते थे) अरफात में नहीं, बल्कि मुज़दलिफा में ठहरते थे। उनका मानना था कि अरफात में ठहरना सामान्य लोगों का काम है और वे इससे ऊपर हैं। वे सीधे अरफात से गुज़रकर मुज़दलिफा आ जाते थे।

  • इस्लामी सुधार: इस आयत ने इस घमंड और भेदभाव को समाप्त कर दिया। अल्लाह ने आदेश दिया कि सभी मुसलमान, चाहे वे किसी भी कुल या हैसियत के हों, एक ही जगह (अरफात) से वापस आएँ।

  • हज का रुक्न (स्तंभ): यह आयत वुकूफ-ए-अरफात (अरफात में ठहरना) को हज का एक अनिवार्य स्तंभ स्थापित करती है। अब कोई भी व्यक्ति अरफात में ठहरे बिना हज अदा नहीं कर सकता।

2. आध्यात्मिक शुद्धता का आदेश: "वस्तग़फ़िरुल्लाह इन्नल्लाहा ग़फ़ूरुर रहीम"

  • अरफात से वापस आने का आदेश देने के तुरंत बाद, अल्लाह माफी माँगने का आदेश देता है।

  • कारण: अरफात में ठहरना और वहाँ से वापस आना एक अत्यंत पवित्र और भावनात्मक अनुभव है। यह कयामत के दिन इंसानों के पुनरुत्थान का प्रतीक है। ऐसे पवित्र क्षणों में अल्लाह से माफी माँगना बहुत ही स्वीकार्य होता है।

  • आश्वासन: अल्लाह अपने दो नामों के साथ आयत समाप्त करता है:

    • "ग़फ़ूर" - वह बहुत क्षमाशील है। वह हमारी सारी गलतियों और कमियों को माफ़ कर सकता है।

    • "रहीम" - वह बहुत दयालु है। वह हम पर दया करके हमें माफ़ कर देता है।

सरल शब्दों में: यह आयत दो बातें कहती है:

  1. अमीर-गरीब, काले-गोरे का कोई भेद मत रखो। सब एक ही तरीके से हज करो।

  2. इस महान इबादत के बाद भी घमंड मत करो, बल्कि अल्लाह से अपने पापों की माफ़ी माँगो, क्योंकि वह माफ़ करने वाला है।


4. शिक्षा और सबक (Lesson):

  • इस्लाम में समानता: इस्लाम किसी प्रकार के जाति, वंश या सामाजिक स्तर के भेद को स्वीकार नहीं करता। अल्लाह की नज़र में सब बराबर हैं।

  • एकता और भाईचारा: हज मुसलमानों की एकता और भाईचारे का सबसे बड़ा प्रतीक है। सभी एक ही समय, एक ही स्थान पर, एक ही तरीके से इबादत करते हैं।

  • विनम्रता: महान इबादतें करने के बाद भी इंसान को घमंड नहीं, बल्कि विनम्रता दिखानी चाहिए और अल्लाह से माफ़ी माँगनी चाहिए।

  • अल्लाह की दया पर भरोसा: कोई भी कितना ही बड़ा पापी क्यों न हो, उसे अल्लाह की क्षमा और दया से कभी निराश नहीं होना चाहिए।


5. अतीत, वर्तमान और भविष्य से प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) के लिए:

    • इस आयत ने जाहिली अरब समाज में फैली सामाजिक असमानता और घमंड की भावना पर सीधा प्रहार किया। इसने कुरैश के गर्व को चूर-चूर कर दिया और सभी मुसलमानों को एक समान बना दिया।

  • वर्तमान (Present) के लिए:

    • सामाजिक समानता का संदेश: आज के समाज में जाति, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता के आधार पर भेदभाव अभी भी मौजूद है। यह आयत हर मुसलमान को यह याद दिलाती है कि हज के मैदान में दुनिया भर के लोग एक साथ खड़े होकर इस सिद्धांत को जीवंत करते हैं कि "सबसे बेहतरीन वह है जो सबसे ज्यादा परहेज़गार है।"

    • धार्मिक एकरूपता: यह आयत इस बात की गारंटी है कि हज का तरीका हर जगह और हर युग में एक जैसा रहेगा। कोई भी इसमें कोई बदलाव नहीं कर सकता।

    • आध्यात्मिक विनम्रता: आज के दौर में, जहाँ लोग थोड़ी सी सफलता पर घमंड करने लगते हैं, यह आयत सिखाती है कि हज जैसी महान इबादत के बाद भी इंसान को अल्लाह के सामने गिड़गिड़ाना और माफ़ी माँगना चाहिए।

  • भविष्य (Future) के लिए:

    • शाश्वत एकता का प्रतीक: जब तक हज कायम रहेगा, यह आयत दुनिया के मुसलमानों को एक सूत्र में बाँधे रखेगी। यह हमेशा यह याद दिलाती रहेगी कि "अल्लाह के सामने सब बराबर हैं और उसकी इबादत एक ही तरीके से की जाएगी।"

    • मानवता के लिए मिसाल: यह आयत पूरी मानवजाति के लिए एक मिसाल कायम करती है कि सामाजिक भेदभाव और नस्लीय श्रेष्ठता की भावना को समाप्त करके ही एक सच्चा और न्यायपूर्ण समाज बनाया जा सकता है।

    • आशा का संदेश: यह आयत भविष्य की हर पीढ़ी को यह आश्वासन देती रहेगी कि अल्लाह की क्षमा का दरवाज़ा हमेशा खुला है, बस हमें विनम्रता से उससे माफ़ी माँगनी चाहिए।