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क़ुरआन की आयत 2:200 की पूर्ण व्याख्या

 यह आयत हज की इबादत के सही तरीके और उसके वास्तविक उद्देश्य को समझाती है। यह दुनियावी लाभ के बजाय आखिरत को याद रखने और अल्लाह से दुआ करने का आदेश देती है।

1. पूरी आयत अरबी में:

فَإِذَا قَضَيْتُم مَّنَاسِكَكُمْ فَاذْكُرُوا اللَّهَ كَذِكْرِكُمْ آبَاءَكُمْ أَوْ أَشَدَّ ذِكْرًا ۗ فَمِنَ النَّاسِ مَن يَقُولُ رَبَّنَا آتِنَا فِي الدُّنْيَا وَمَا لَهُ فِي الْآخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ

2. आयत के शब्दार्थ (Word-to-Word Meaning):

  • فَإِذَا (फ़ा इज़ा) : फिर जब

  • قَضَيْتُم (क़ज़ैतुम) : तुमने पूरा कर लिया

  • مَّنَاسِكَكُمْ (मनासिककुम) : अपने हज के कर्म/रस्में

  • فَاذْكُرُوا (फ़ज़्कुरू) : तो याद करो (ज़िक्र करो)

  • اللَّهَ (अल्लाह) : अल्लाह को

  • كَذِكْرِكُمْ (का ज़िक्रिकुम) : जैसे याद करते थे

  • آبَاءَكُمْ (आबाअकum) : अपने बाप-दादाओं को

  • أَوْ (औ) : या

  • أَشَدَّ (अशद्दा) : और अधिक

  • ذِكْرًا (ज़िक्रन) : याद करना

  • فَمِنَ (फ़ा मिन) : फिर कुछ

  • النَّاسِ (अन-नास) : लोगों में से

  • مَن (मन) : ऐसे हैं जो

  • يَقُولُ (यक़ूलु) : कहते हैं

  • رَبَّنَا (रब्बना) : हे हमारे पालनहार!

  • آتِنَا (आतिना) : हमें दे दो

  • فِي الدُّنْيَا (फ़िद दुनया) : दुनिया में

  • وَمَا (व मा) : और नहीं है

  • لَهُ (लहू) : उसके लिए

  • فِي الْآخِرَةِ (फ़िल आख़िरह) : आख़िरत में

  • مِنْ (मिन) : कोई

  • خَلَاقٍ (ख़लाक़िन) : हिस्सा


3. आयत का पूरा अर्थ और व्याख्या:

अर्थ: "फिर जब तुम अपनी हज की रस्में पूरी कर चुको, तो अल्लाह का ज़िक्र (याद) करो, जैसे तुम अपने बाप-दादाओं का ज़िक्र किया करते थे, बल्कि उससे भी अधिक। फिर कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं: 'हे हमारे पालनहार! हमें दुनिया में (धन-दौलत) दे दे,' और आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं होता।"

व्याख्या:

इस आयत के दो प्रमुख भाग हैं:

1. हज के बाद का ज़िक्र (The Remembrance after Hajj): "फ़ा इज़ा क़ज़ैतुम मनासिककुम फ़ज़्कुरुल्लाह..."

  • जब हज के सभी मुख्य कर्म (तवाफ, सई, कुर्बानी, सिर मुंडाना आदि) पूरे हो जाते हैं और हाजी हलाल (सामान्य अवस्था) में आ जाता है, तो उसके लिए एक नया आदेश है।

  • तुलना: जाहिली अरब समाज में लोग हज के बाद अपने बाप-दादाओं के कारनामों और शौर्य की कहानियाँ सुनाने और गर्व करने में लग जाते थे। अल्लाह आदेश देता है कि अब इस स्थान पर अल्लाह का ज़िक्र करो।

  • "का ज़िक्रिकुम आबाअकुम औ अशद्दा ज़िक्रा" - "जैसे तुम अपने बाप-दादाओं का ज़िक्र करते थे, बल्कि उससे भी अधिक।" यानी अल्लाह की याद और उसकी तारीफ उन सभी दुनियावी चीज़ों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है जिन पर लोग गर्व करते हैं।

2. दुआ का सही तरीका (The Correct Way of Supplication): "फ़ा मिनन नासि मन यक़ूलु रब्बना आतिना फिद दुनया..."

  • आयत अब एक गलत प्रथा की ओर इशारा करती है। कुछ लोग हज जैसे पवित्र स्थान और मौके पर भी सिर्फ दुनियावी चीज़ों (धन, संपत्ति, शोहरत) की दुआ ही माँगते हैं।

  • अल्लाह ऐसे लोगों की स्थिति बताता है: "व मा लहू फिल आख़िरति मिन ख़लाक़" - "और आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं होता।"

  • इसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया की जायज़ चीज़ों के लिए दुआ नहीं माँग सकते। बल्कि, इसका मतलब है कि जिसकी सारी चिंता और माँग सिर्फ दुनिया तक सीमित रह जाए और वह आख़िरत को भूल जाए, उसका आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं है। उसकी सारी कमाई और चाहत दुनिया में ही खत्म हो जाएगी।

सरल शब्दों में: यह आयत दो बातें सिखाती है:

  1. हज के बाद का असली जश्न अल्लाह का ज़िक्र है, न कि दुनियावी बातें।

  2. अल्लाह से दुआ करते समय आख़िरत को न भूलें। सिर्फ दुनिया माँगने वालों की आख़िरत बर्बाद हो जाती है।


4. शिक्षा और सबक (Lesson):

  • इबादत का असली उद्देश्य: हर इबादत का अंतिम लक्ष्य अल्लाह से जुड़ना और उसे याद करना है।

  • दुनिया और आख़िरत का संतुलन: मुसलमान को दुनिया की जायज़ जरूरतों के साथ-साथ आख़िरत की तैयारी भी करनी चाहिए। दुआ में दोनों को शामिल करना चाहिए।

  • अल्लाह का ज़िक्र सर्वोत्तम है: किसी भी दुनियावी चीज़ पर गर्व करने से अल्लाह की याद और उसकी तारीफ करना बेहतर है।

  • आख़िरत की सोच: एक मोमिन की पहचान यह है कि उसकी सोच और दुआएँ दुनिया से आगे आख़िरत तक जाती हैं।


5. अतीत, वर्तमान और भविष्य से प्रासंगिकता (Relevancy):

  • अतीत (Past) के लिए:

    • इस आयत ने जाहिली अरब समाज की उस प्रथा को बदल दिया जहाँ लोग हज के बाद अपने पूर्वजों का गुणगान करते थे। इसने हज के बाद के समय को भी एक इबादत में बदल दिया।

  • वर्तमान (Present) के लिए:

    • हज के बाद का व्यवहार: आज भी, हाजियों को हज के बाद तवाफ-ए-जियारत करने और अल्लाह का ज़िक्र करने का आदेश दिया जाता है। यह इसी आयत पर आधारित है।

    • दुआओं का फोकस: आज के मaterialistic दौर में, लोगों की दुआओं का ज़ोर अक्सर पैसा, कार, घर और नौकरी जैसी दुनियावी चीज़ों पर ही होता है। यह आयत हमें चेतावनी देती है कि ऐसा करके हम आख़िरत में अपना हिस्सा खो सकते हैं। हमें दुआ में दुनिया और आख़िरत दोनों के लिए माँगना चाहिए।

    • गर्व और शौक का विषय: लोग आज भी अपनी नस्ल, अपने पैसे या अपने ओहदे पर गर्व करते हैं। यह आयत सिखाती है कि अल्लाह का ज़िक्र और उसकी इबादत ही सबसे बड़ी शानदार चीज़ है।

  • भविष्य (Future) के लिए:

    • शाश्वत मार्गदर्शन: यह आयत हमेशा मुसलमानों को यह याद दिलाती रहेगी कि किसी भी इबादत के बाद अल्लाह का शुक्र अदा करना और उसका ज़िक्र करना उस इबादत का सबसे beautiful conclusion है।

    • जीवन का लक्ष्य: यह आयत भविष्य की पीढ़ियों को यह सिखाती रहेगी कि एक मुसलमान का लक्ष्य सिर्फ दुनिया बनाना नहीं, बल्कि आख़िरत बचाना है। इसलिए, हर दुआ और हर कोशिश में आख़िरत को प्राथमिकता देनी चाहिए।

    • आध्यात्मिकता बनाम भौतिकता: दुनिया जितनी भौतिकवादी होती जाएगी, यह आयत उतनी ही अधिक प्रासंगिक होती जाएगी, क्योंकि यह आध्यात्मिकता और आख़िरत पर ध्यान केंद्रित करने का संदेश देती है।