Read Quran translation in Hindi with verse-by-verse meaning and time-relevant explanations for deeper understanding.

कुरआन 2:21 - "याअय्युहन्नासु'बुदू रब्बकुमुल्लजी खलककुम वल्लजीना मिन कब्लिकुम लअल्लकुम तत्तकून" (يَا أَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُمْ وَالَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ)

यहाँ कुरआन की दूसरी सूरह, अल-बक़ारह की इक्कीसवीं आयत (2:21) का पूर्ण विस्तृत व्याख्या हिंदी में प्रस्तुत है।


कुरआन 2:21 - "याअय्युहन्नासु'बुदू रब्बकुमुल्लजी खलककुम वल्लजीना मिन कब्लिकुम लअल्लकुम तत्तकून" (يَا أَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُمْ وَالَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ)

हिंदी अर्थ: "हे लोगों! अपने उस पालनहार की इबादत (बन्दगी) करो जिसने तुम्हें और तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया, ताकि तुम (अपनी रक्षा कर सको और) डर रखने वाले बन जाओ।"

यह आयत एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ है। अब तक की आयतों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के लोगों का वर्णन किया गया था - मोमिन, काफिर और मुनाफिक। अब अल्लाह सीधे समस्त मानवजाति को संबोधित करते हुए उन्हें अपनी बन्दगी की ओर बुला रहा है। यह एक सार्वभौमिक संदेश (Universal Message) की शुरुआत है।

आइए, इस आयत को शब्द-दर-शब्द और उसके गहन अर्थों में समझते हैं।


1. शब्दार्थ विश्लेषण (Word-by-Word Analysis)

  • याअय्युहन्नासु (Yaa ayyuhan-naasu): "हे लोगों!" (O mankind!)। यह संबोधन बहुत ही व्यापक है और हर युग, हर जाति और हर रंग के इंसान को शामिल करता है।

  • उ'बुदू (U'budoo): "इबादत करो" (Worship)। यह एक आदेश (Imperative) है।

  • रब्बकुम (Rabbakum): "तुम्हारे पालनहार" (Your Lord)

  • अल्लजी खलककुम (Allazee khalaqakum): "जिसने तुम्हें पैदा किया" (Who created you)

  • वल्लजीना मिन कब्लिकुम (Wallazeena min qablikum): "और तुमसे पहले के लोगों को (पैदा किया)" (And those before you)

  • लअल्लकुम (La'allakum): "ताकि तुम" (So that you)

  • तत्तकून (Tattaqoon): "डर रखने वाले बन जाओ" (May become pious / God-conscious)


2. गहन अर्थ और संदेश (In-depth Meaning & Message)

इस आयत में तीन मौलिक बिंदु हैं जो इंसान और अल्लाह के बीच के रिश्ते की नींव रखते हैं:

1. सार्वभौमिक पुकार (The Universal Call)

  • "हे लोगों!" कहकर अल्लाह हर इंसान को, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या पृष्ठभूमि का हो, सीधे संबोधित कर रहा है।

  • यह इस बात का प्रमाण है कि इस्लाम का संदेश सिर्फ एक खास समूह के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवजाति के लिए है।

2. इबादत का आधार: रब की पहचान (The Basis of Worship: Recognition of the 'Rabb')

  • अल्लाह ने अपने लिए "पालनहार" (रब्ब) शब्द का प्रयोग किया है। "रब" वह है जो पैदा करता है, पालता-पोसता है, विकास करता है और पूरी व्यवस्था चलाता है।

  • इबादत का आधार इस पहचान और कृतज्ञता पर टिका है कि तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा पालन-पोषण और तुम्हारा सारा जीवन इसी एक "रब" की देन है। इसलिए, इबादत (पूर्ण समर्पण) भी उसी के लिए होना चाहिए।

3. इबादत का उद्देश्य: तक़्वा प्राप्त करना (The Purpose of Worship: To Attain Taqwa)

  • इबादत का अंतिम लक्ष्य सिर्फ कुछ रीति-रिवाजों को अदा करना नहीं है। इसका सबसे बड़ा लक्ष्य है "तत्तकून" यानी "तक़्वा" प्राप्त करना।

  • तक़्वा क्या है? यह अल्लाह की इतनी गहरी चेतना और डर है कि इंसान हर उस चीज़ से बचने लगता है जिससे अल्लाह नाराज हो सकता है। यह एक ऐसी आंतरिक सुरक्षा-प्रणाली (Internal Security System) है जो इंसान को हर प्रकार की बुराई से बचाती है।

  • "लअल्लकुम" (ताकि तुम) शब्द यह भी दर्शाता है कि इबादत तक़्वा प्राप्त करने का साधन है। नमाज, रोज़ा, ज़कात आदि सभी इबादतें हमारे अंदर तक़्वा पैदा करने के लिए हैं।


3. संदर्भ और महत्व (Context and Significance)

  • एक नई शुरुआत: यह आयत सूरह अल-बक़ारह के पहले बड़े खंड का प्रारंभ है। अब तक जो लोग बताए गए थे, उनके बारे में सुनने के बाद अब हर इंसान से कहा जा रहा है: "अब तुम अपना फैसला करो। सही रास्ता यही है।"

  • मूल संदेश: यह आयत इस्लाम के मूल संदेश "तौहीद" (एकेश्वरवाद) को बहुत ही सरल और स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत करती है।


4. व्यावहारिक जीवन में महत्व (Practical Importance in Daily Life)

  • जीवन का उद्देश्य: यह आयत हर इंसान के सामने उसके जीवन का स्पष्ट उद्देश्य रखती है - अपने रब की इबादत करना और तक़्वा वाला जीवन जीना।

  • इबादत की समझ: यह आयत हमें सिखाती है कि इबादत का दायरा बहुत व्यापक है। यह सिर्फ नमाज-रोज़ा ही नहीं, बल्कि अल्लाह के प्रति कृतज्ञता, उसके आदेशों का पालन और उसकी नाराजगी से बचने का पूरा जीवन है।

  • आत्म-सुधार का लक्ष्य: जब भी हम कोई इबादत करें (जैसे नमाज पढ़ें), हमें अपने आप से पूछना चाहिए: "क्या इससे मेरा तक़्वा बढ़ रहा है? क्या इससे मैं गुनाहों से बचने लगा हूँ?"


निष्कर्ष (Conclusion)

कुरआन की आयत 2:21 समस्त मानवजाति के लिए एक स्पष्ट और सीधा मार्गदर्शन है। यह हमें हमारे अस्तित्व के मूल स्रोत (हमारे रब) की ओर लौटने का आह्वान करती है। यह बताती है कि हमारी सारी इबादत और आज्ञाकारिता का अंतिम लक्ष्य "तक़्वा" प्राप्त करना है - एक ऐसी जीवन शैली जिसमें इंसान हर पल अल्लाह के सामने जवाबदेह महसूस करे और उसकी रज़ा के लिए जिए। यह आयत इस्लाम के सार्वभौमिक, तार्किक और उद्देश्यपूर्ण स्वरूप को प्रस्तुत करती है।